संघ के समावेशी बनने के पीछे के राज!

श्रीराजेश

 |   04 Oct 2018 |   10

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने पहले दशकों से धारण की जाने वाली अपनी पोशाक में परिवर्तन किया और अब वह अपनी धारणा में भी बदलाव करती दिख रही है. संघ अगर इस तरह के प्रयास इतने मुखर तौर पर कर रहा है, उसे प्रचारित प्रसारित करने का प्रयास कर रहा है तो निस्संदेह इसके निहितार्थ गहरे हैं. संघ भले अपनी मंशा हमेशा गैर सियासी साबित करे पर इन सब कारगुजारियों का आखीरी सिरा हमेशा ही राजनीति से जा मिलता है. फिलहाल संघ साबित तो यह करना चाहता है कि यह धारणा उसने अभी अंगीकार किया हो ऐसा नहीं है बल्कि यह तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दर्शन का बद्धमूल सिद्धांत है. पर सच तो यही है कि संघ कभी इतना समावेशी नहीं दिखाई दिया जितना कि मोहन भागवत के बयानों के जरिये दिखने की कोशिश कर रहा है. संघ ने यह स्वीकारा कि देश की आज़ादी में कांग्रेस का बड़ा योगदान है, उसने देश को कई महापुरुष दिये और यह भी कि यह देश मुसलमानों का भी है उनके बिना हिंदुत्व की अवधारण आधूरी है. संघ पहले जिस बात को इस तरह से कह चुका है कि जो भी भारत में रहते हैं वे वह सब हिंदू हैं, उसको बदल कर इस बार वह इस तरह से प्रस्तुत कर रहा है कि जो भी भारत को अपनी मातृभूमि मानता है, वो सभी अपने हैं. संघ अब हिंदुत्व एजेंडे को लेकर हमलावर राजनीतिक दलों और संगठनों को यह समझाने की कोशिश में है कि उसके हिंदुत्व का अर्थ उससे बहुत भिन्न है जिसका प्रचार विपक्षी करते आ रहे हैं. वह धार्मिक उग्रता वाले हिंदुत्व और हिंसा का पोषक नहीं है बल्कि उस हिंदुत्व की बात करता है जिसकी वकालत संविधान करता है, जिसकी व्याख्या एक बार सुप्रीम कोर्ट कर चुका है, जिसका सार विविधता में एकता, समभाव और धार्मिक तथ असामाजिक स्तर पर एक दूसरे के प्रति सम्मान है. संघ भाजपा को अपना राजनीतिक उपांग़ मानने से इनकार कर रहा है तो उसकी विनम्रता का मतलब यह है कि वह यह बताना चाहता है कि वह पार्टी, प्रधानमंत्री से भी बड़ी ताकत संघ है. यह भी स्वयं ही सिद्ध है. संघ की भाषा यह बताती है कि वह यह दर्शाना चाहता है कि देश में चल रही राजनीतिक विचारधारा के केंद्र में है. संभवत: वर्तमान परिस्थितियों में संघ को यह बात भी साबित करने की कोई आवश्यकता नहीं.   निस्संदेह संघ की एक परंपरा रही है कि वह अपने वैचारिक दायरे के बाहर के लोगों को आमंत्रित करता रहा है,जेपी और प्रणब दा समेत कई उदाहरण मौजूद हैं पर राहुल गांधे जिनके ऊपर संघ ने मुकदमा कर रखा हो उनको बुलाने की बात करने का क्या प्रयोजन. आखिर अचानक संघ को इतना समावेशी बनने की क्या आवश्यकता पड़ गयी. क्या संघ ने अटल जी के प्रयाण के बाद यह देखा कि अगर उदारता का मुखौटा लगाया जाये तो उनके बीच भी पैठ बनायी जा सकते है जो मूलत: उनसे सहमत नहीं है, इससे विचार विस्तार में सहायता मिलेगी. अटल जी से प्रेरणा की बात तो बेमानी है क्योंकि खुद संघ अटल जी की रीति नीति से बहुत बार खफा रही है पर संघ की यह सोच सही है कि समावेशी बनने से उसके प्रति सुग्राह्यता में बढोतरी होगी. जो उससे सहमत है उनकों और दृढ करना, जो आंशिक तौर पर सहमत हैं उनके समावेशन का प्रयास करना और असहमत स्वरों को अपने प्रति बने भ्रमों को दूर करने की कोशिश करना संघ का नियत फार्मूला है और यह उसी रणनीति के तहत कार्य कर रही है. यह अलग बात है कि इस बार उसक अतरीका थोड़ा ज्यादा आग्रही, विनम्र और व्यावहारिक है. उसकी यह कारगुजारी अगर राजनीति में रूपांतरित होती है तो बहुविधि लाभ की स्थिति बनेगी है. पर लाख टके की बात क्या आरएसएस अपने संदेश को सर्वजन तक पहुंचाने में सफल रहेगा, उसकी छवि सर्वस्वीकार्य होने में किंचित बाधक नहीं बनेगी.


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