विद्या की देवी कही जाने वाली सरस्वती वेदों से लेकर पुराणों तक विभिन्न रूपों में वर्णित हैं. कहीं उन्हें वेदों की माता कहा गया है तो कहीं ब्रह्मा की पत्नी. तो वहीं उन्हें ब्रह्मा की बेटी भी माना जाता है. बावजूद इसके सरस्वती ही एक मात्र ऐसी देवी हैं जिनको हिंदू धर्म के अलावा अन्य पंथों में भी पूज्य स्थान प्राप्त हुआ. विभिन्न नामों और स्वरूपों से सरस्वती भारत और अन्य देशों के प्रत्येक पंथ में विद्या, बुद्धि और ज्ञान की देवी के रूप में वर्णित हैं. सरस्वती भारतीय अध्यात्म परंपरा की तीन शीर्ष देवियों में से एक हैं. उनके अनेक नाम हैं, वागेश्वरी, वाग्देवी, वाणी, इरा, शारदा, सुरसती. सरस्वती का वर्णन वेदों से लेकर वैदिकोत्तर काल के सभी प्रकार के साहित्य में मिलता है. ऋग्वेद में सरस्वती शब्द का जिक्र आया है. लेकिन उसका संबंध सरस्वती नदी से है. लेकिन जिस नदी की बात ऋग्वेद कर रहा है उसके गुण बखान के आधार संकेत मिलता है कि यह बात सरस्वती देवी के संबंध में ही कही जा रही है.
ऋग्वेद में कहा गया है कि अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वति और अपो अस्मान मातर: शुन्धयन्तु घर्तेन नो घर्तप्व: पुनन्तु, विश्वं हि रिप्रं परवहन्ति देविरुदिदाभ्य: शुचिरापूत एमि. इससे यह माना जा सकता है कि संभव है कि तब के समय शीर्ष पर स्थापित देवी होने के नाते उक्त नदी का नाम सरस्वती के नाम पर किया गया.
शंकराचार्य की मां शारदा और सरस्वती
वेदांत परंपरा के प्रवर्तक और महान दार्शनिक आचार्य शंकर ने भी अपने चार पीठों में से एक पीठ का नाम सरस्वती के नाम पर रखा. शारदापीठ देवी सरस्वती का प्राचीन मन्दिर है जो पाक अधिकृत कश्मीर में शारदा के निकट किशनगंगा नदी (नीलम नदी) के किनारे स्थित है. इसके भग्नावशेष भारत-पाक नियन्त्रण-रेखा के निकट स्थित है. आचार्य शंकर ने मां सरस्वती को शारदा नाम से संबोधित किया.
सरस्वती का स्वरूप
पुरातात्विक साक्ष्यों में ज्यादातर सरस्वती को पद्मासन मुद्रा में बैठा दिखाया गया है. लेकिन कुछ मूर्तियां दो साधारण महिला के रूप में खड़ी मुद्रा में भी हैं. सरस्वती के स्वरूप का वर्णन उनकी स्तुति में उल्लिखित है.
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिदेर्वै: सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा ॥1॥
शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम।
हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम॥2॥
इससे स्पष्ट होता है कि सरस्वती के एक मुख, चार हाथ हैं. मुस्कान से उल्लास, दो हाथों में वीणा-भाव संचार एवं कलात्मकता की प्रतीक है. पुस्तक से ज्ञान और माला से ईशनिष्ठा-सात्त्विकता का बोध होता है. वाहन मयूर-सौन्दर्य एवं मधुर स्वर का प्रतीक है. इनका वाहन हंस माना जाता है और इनके हाथों में वीणा, वेद और माला होती है.
अन्य पंथों में सरस्वती
सरस्वती सिर्फ हिंदू धर्म की देवी नहीं हैं. सरस्वती की व्यापकता हिंदू धर्म तक सीमित नहीं थी. जैन संप्रदाय ने उन्हें यथास्वरूप स्वीकार लिया. वहीं बौद्ध धर्म ने जब सनातन परंपरा का बहिष्कार किया तो सभी देवी देवताओं को भी खंडित कर दिया लेकिन सरस्वती की महत्ता वहां भी बनी रही. बौद्ध धर्म से संबंधित ग्रंथ आर्यमंजूश्री कल्प में सरस्वती नाम से वर्णन है. नाम बदलने के बावजूद बौद्धों ने सरस्वती के स्वरूप के साथ कोई छेड़-छाड़ नहीं की. तो वहीं रोम की देवी एथेना भी सरस्वती समीकृत की जाती हैं. दक्षिण एशिया के अलावा थाइलैण्ड, इण्डोनेशिया, जापान एवं अन्य देशों में भी सरस्वती की पूजा होती है. सरस्वती को बर्मा में थुयथदी और तिपिटक मेदा, चीन में बियानचाइत्यान, जापान में बेंजाइतेन , थाईलैण्ड में सुरसवदी के नाम से जाना जाता है. इन सभी देशों में सरस्वती का स्वरूप आंशिक परिर्वतनों साथ लगभग एक सा ही स्थापित है.
इंडोनेशिया में सरस्वती की प्रतिमायें
इंडोनेशिया और बाली जैसे देशों में सरस्वती की प्रतिमाओं का विशेष महत्व है. बाली में कई स्थानों पर सरस्वती की मूर्तियां मिल जाएंगी. तो वहीं हाल में विश्व के सर्वाधिक मुसलमानों वाले देश इंडोनेशिया ने यूएस को एक 16 फीट ऊंची प्रतिमा भेंट की है. इंडोनेशिया की ओर से कहा गया था कि ऐसा उन्होने द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने के लिये किया है. यह घटना इंडोनेशिया के सरकार की सरस्वती निष्ठा का उदाहरण है. तो वहीं यूएस में ह्वाइट हाउस की ओर इस प्रतिमा की स्थापना करवाई गई थी और वहां काफी संख्या में पर्यटक आते हैं.
लंदन में देवी सरस्वती
वैसे तो विश्व के कई भागों में सरस्वती की मूर्तियां और उनसे संबंधित पुरातात्विक साक्ष्य मिलते हैं. लेकिन लंदन संग्रहालय में रखी एक काले पत्थर को तराश कर बनाई प्रतिमा बेहद खास है. एमपी के धार जिले में भोजशाला विवि के पास एक सरस्वती मंदिर के अवशेष हैं. यहां पर कभी मां सरस्वती यानी वाग्देवी का मंदिर था. जिसका कवि मदन ने अपने नाटक में उल्लेख किया है. यह प्रतिमा भव्य व विशाल थी. यहां की देवी की प्रतिमा अंग्रेज अपने साथ लंदन ले गए, जो आज भी लंदन के संग्रहालय में मौजूद है. इस प्रतिमा की राजा भोज द्वारा आराधना की जाती थी. प्रतिमा पर परमार कला और शिल्प का प्रभाव है जिससे साफ है कि यह प्रतिमा भोज के काल में ही बनवाई गई.
भोजशाला और सरस्वती
सरस्वती की पूजा विश्व के कई देशों और संस्कृतियों में विभिन्न रूपों में की जाती है लेकिन उनकी प्रतिष्ठा प्रत्येक स्थान पर विद्या की देवी के रूप में ही है. मध्यप्रदेश स्थित भोजशाला भी सरस्वती से संबंध रखता है. लेकिन भोजशाला का जितना सांस्कृतिक महत्व है उससे कम ऐतिहासिक महत्व भी नहीं है. परमार वंश के सबसे प्रतापी राजा भोज ने इसका निर्माण करवाया था जिसके पर्याप्त पुरातात्विक साक्ष्य मिलते हैं. माना जाता है कि यहां सरस्वती ने भोज को दर्शन दिये थे. साहित्यिक साक्ष्यों से पता चलता है कि भोज सरस्वती की कृपा से ही योग, सांख्य, न्याय, ज्योतिष, धर्म, वास्तुशास्त्र, राज-व्यवहार शास्त्र सहित कई शास्त्रों के ज्ञाता रहे. इतिहास के पन्नों में यह बात दर्ज है कि परमार वंश के सबसे महान अधिपति राजा भोज का धार में 1000 ईसवीं से 1055 ईसवीं तक प्रभाव रहा, जिससे कि यहां की कीर्ति दूर-दूर तक पहुंची. राजा भोज विद्वानों के आश्रयदाता थे. उन्होंने धार में एक महाविद्यालय की स्थापना की थी, जो बाद में भोजशाला के नाम से विख्यात हुई. जहां सुंदर तथा निकट स्थानों से विद्यार्थी अपनी ज्ञान पिपासा शांत करने के लिए आते थे. उस काल के साहित्य में इस नगर का उल्लेख धार तथा उसके शासक का यशोगान ही किया गया है.
...और हर राज्यवासी कवि हो गया
जब भी बात सरस्वती की कृपा की होती है हम सब इसे रूढ़िवादी कृत्य मानने लगते हैं. जबकि ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं कि भोज ने मां सरस्वती का आर्शीवाद प्राप्त कर विश्व भर में अपनी ख्याति फैलाई थी. ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि भोज के शासनकाल में उनके राज्य का हर निवासी कवि था. यह काल संस्कृत भाषा का था. एक बार भोज के राज में एक कवि प्रवास पर आये और उन्हें भोज के राज्य की व्यवस्था भा गई. कवि ने राजा के समक्ष राज्य में बसने की इच्छा जाहिर की, तो भोज ने सेनापति को आदेश दिया कि राज्य से एक अनपढ़ को निष्कासित कर कवि को ससम्मान बसाया जाये. सेनापति काफी प्रयासों के बावजूद कोई अशिक्षित न ढूंढ़ सके. तो भोज ने घोषणा की चूंकि अतिथि कवि हैं, अत: किसी एक गैर कवि को राज्य से निष्कासित कर उसका घर इन्हें उपलब्ध कराया जाये. खोजते-खोजते शाम हो गई सेनापति को कोई गैर कवि न मिला. अंत में उन्होंने एक जुलाहे को यह समझ कर पकड़ लिया कि यह तो निश्चित ही गैर कवि होगा. दरबार में जब भोज ने उससे उसका कर्म जानना चाहा तो जुलाहे ने जवाब दिया, ‘कवयामि, वयामि, यामि’ यानि कविता करता हूं, बुनता हूं और घर जाता हूं. भोज को अपने सवाल का जवाब कविता के रूप में मिला तो उन्होंने कहा कि कवि को फिलहाल राजमहल में ही निवास कराया जाये और उनके कोई वैकल्पिक व्यवस्था की जाये. प्रवासी कवि हैरान थे कि आखिर कैसे एक राज्य के सभी निवासी कवि हो सकते हैं. तो भोज ने कहा कि यह उन्हें मां सरस्वती से मिला वरदान है.
(उपरोक्त आलेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं, इससे कल्ट करंट का सहमत होना आवश्यक नहीं है)