मजहबी आस्था का मुख्य उद्देश्य मानवता के कल्याण, नैतिकता और शांति को बढ़ावा देना है। लेकिन जब यह आस्था पाखंड और कट्टरपंथ के जाल में फंस जाती है, तो इसका उपयोग हिंसा और आतंक के लिए होने लगता है। यह केवल फ्रेडरिक नीत्शे और इब्न रश्द जैसे दार्शनिकों की चिंता नहीं थी, बल्कि आज का भी एक ज्वलंत मुद्दा है, जिसने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। चाहे वह पश्चिमी देशों में मजहबी पाखंड हो या इस्लामी कट्टरपंथ, हर जगह इसका नकारात्मक प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे ने अपनी पुस्तक 'Thus Spoke Zarathustra' में मजहबी संस्थाओं और उनके अंधविश्वास की कठोर आलोचना की थी। उनका प्रसिद्ध उद्धरण, 'God is dead. God remains dead. And we have killed him,' मजहब के नाम पर फैले पाखंड और अंधविश्वास की ओर इशारा करता है। नीत्शे का कहना था कि मजहबी संस्थाओं ने मानव की स्वतंत्र सोच और सृजनात्मकता को बाधित किया है, और यह दावा किया कि मजहब ने लोगों को डर और नैतिक जंजीरों में बाँध रखा है।
वहीं इस्लामी दार्शनिक इब्न रश्द (एवरोस) ने भी इस समस्या की ओर ध्यान आकर्षित किया। उनकी प्रसिद्ध उक्ति, 'Ignorance leads to fear, fear leads to hatred, and hatred leads to violence,' दर्शाती है कि अज्ञानता और अंधविश्वास लोगों को कट्टरपंथ की ओर ले जाते हैं। इब्न रश्द ने इस्लामिक समाज में तार्किकता और विज्ञान के महत्व पर जोर दिया, लेकिन दुर्भाग्य से उनके विचारों को ज्यादा समर्थन नहीं मिला।
आज के समय में हम जिस मजहबी कट्टरता और अंधविश्वास का सामना कर रहे हैं, वह न केवल नीत्शे और इब्न रश्द की भविष्यवाणियों को सही ठहराता है, बल्कि यह दुनिया के विभिन्न हिस्सों में बढ़ते संघर्ष और हिंसा की भी जड़ है।
इस्लाम, जिसका शाब्दिक अर्थ 'शांति और समर्पण' है, इसने हमेशा न्याय, भाईचारे और दया की शिक्षा दी है। लेकिन इस्लाम के नाम पर काम करने वाले कट्टरपंथी समूहों ने इस्लाम की शिक्षाओं को तोड़-मरोड़कर पेश किया है। अल-कायदा, आईएसआईएस, तालिबान, और बोको हराम जैसे संगठनों ने आतंक और हिंसा का सहारा लेते हुए निर्दोष लोगों की हत्या की है।
कट्टरपंथियों ने इस्लामी सिद्धांत जिहाद की गलत व्याख्या की है। जबकि जिहाद का वास्तविक अर्थ आत्म-सुधार और अन्याय के खिलाफ न्याय के लिए संघर्ष है, कुछ चरमपंथी इसे हिंसा और आतंक का औचित्य ठहराने के लिए इस्तेमाल करते हैं। कुरआन में निर्दोष लोगों की हत्या को सबसे बड़ा पाप बताया गया है:
'जिसने किसी निर्दोष को मारा, उसने पूरी मानवता को मारा।' (कुरआन 5:32)
इसके बावजूद, कुछ कट्टरपंथी समूह और नेता मजहबी ग्रंथों को तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं ताकि वे अपने हिंसात्मक एजेंडे को उचित ठहरा सकें। इन चरमपंथी गतिविधियों ने इस्लाम की वास्तविक छवि को धूमिल कर दिया है, और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में मुसलमानों के प्रति घृणा और भेदभाव बढ़ा है।
आज हम पश्चिम एशिया से लेकर अफ्रीका तक, और दक्षिण एशिया से लेकर यूरोप तक, विभिन्न देशों में इस्लाम के नाम पर हिंसा, युद्ध और आतंकवाद देख रहे हैं। यह स्थिति केवल उस गलतफहमी को और बढ़ाती है कि इस्लाम हिंसात्मक मजहब है, जबकि इस्लाम का वास्तविक संदेश शांति, न्याय और करुणा का है। कट्टरपंथी विचारधारा ने मुस्लिम समाज के भीतर भी विभाजन को बढ़ावा दिया है, जहां कुछ वर्गों को लगता है कि वे सच्चे मुसलमान हैं, जबकि अन्य को मजहब के बाहर का समझा जाता है।
पश्चिम एशिया में चल रहे संघर्ष, जैसे कि सीरिया, इराक और यमन में गृहयुद्ध, ने न केवल इन देशों को तबाह कर दिया है, बल्कि पूरी दुनिया के सामने इस्लाम की छवि को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। वहीं, यूरोप में हुए आतंकवादी हमलों ने इस्लामोफोबिया को और बढ़ावा दिया है, जिससे मुसलमानों के प्रति नकारात्मक धारणाएं और भेदभाव पैदा हुआ है।
भारत, जो अपनी विविधता और बहुलता के लिए जाना जाता है, वहां भी इस्लामी कट्टरपंथ के कुछ मामले सामने आए हैं। तीन तलाक और हिजाब विवाद जैसे मुद्दे यह दर्शाते हैं कि कैसे इस्लाम के कुछ रूढ़िवादी हिस्से मजहबी अंधविश्वास और पाखंड को बढ़ावा दे रहे हैं। जबकि भारतीय मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा प्रगतिशील और आधुनिक विचारों को अपनाने का समर्थन करता है, लेकिन कुछ कट्टरपंथी समाज को पीछे ले जाने का प्रयास कर रहे हैं।
इसके अलावा, कुछ भारतीय युवाओं के अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों से जुड़ने के प्रयासों ने भी भारत में मुसलमानों की छवि को प्रभावित किया है। आईएसआईएस और अन्य आतंकवादी संगठनों ने भारतीय मुस्लिम युवाओं को कट्टरपंथी बनाने की कोशिश की है, जो देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए भी खतरा है।
दुनिया के कई हिस्सों में, महिलाओं के अधिकारों को सीमित करने के लिए इस्लाम का इस्तेमाल एक औजार के रूप में किया जा रहा है। अफगानिस्तान में तालिबान शासन इसका सबसे प्रबल उदाहरण है, जहां महिलाओं को शिक्षा, कामकाज और सार्वजनिक जीवन से लगभग वंचित कर दिया गया है। यह विरोधाभास तब और गहरा हो जाता है जब इस्लाम की मूल शिक्षाओं पर नजर डाली जाती है। पैगंबर मुहम्मद ने स्पष्ट रूप से कहा है, 'ज्ञान प्राप्त करना हर मुसलमान (पुरुष और महिला) पर अनिवार्य है।' फिर भी, मजहबी व्याख्याओं और सत्ता की राजनीति ने इस मूल संदेश को विकृत कर दिया है।
आज कुछ मजहबी विद्वान और चरमपंथी समूह इस्लाम का इस्तेमाल अपने राजनीतिक और व्यक्तिगत हितों को साधने के लिए कर रहे हैं। वे इस्लाम की शिक्षाओं को तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं, जिससे समाज में असहिष्णुता, पाखंड और कट्टरता का प्रसार होता है। अफसोस की बात है कि समाज के कई हिस्सों में लोग इन भ्रामक व्याख्याओं को चुनौती देने से कतराते हैं।
एक विचित्र उदाहरण इस्लामिक शिक्षाओं के नाम पर पृथ्वी को चपटी और स्थिर कहने की है। कुछ मजहबी विद्वानों जिन्हें आमतौर पर बोलचाल की भाषा मौलाना कहते हैं, उन्होंने कुरआन की आयतों की गलत व्याख्या कर इस धारणा को प्रचारित किया है। उदाहरण के लिए, सूरह अन-नाज़िआत (79:30) और सूरह अल-ग़ाशियाह (88:20) में 'पृथ्वी को बिछाने' की बात कही गई है, जिसे पृथ्वी के सपाट होने का सबूत बताया जाता है। जबकि, यह अधिक संभावना है कि यह शब्दावली पृथ्वी को मानव जीवन के लिए अनुकूल और सुरक्षित बनाने के रूपक के रूप में उपयोग की गई है।
इतिहास में मुस्लिम विद्वानों ने विज्ञान और खगोलशास्त्र में अद्वितीय योगदान दिया है। अल-फ़रग़ानी और अल-बरूनी जैसे विद्वानों ने पृथ्वी के गोलाकार होने का समर्थन किया और उसकी माप भी की। कुरआन में सूरह अज़-ज़ुमर (39:5) में कहा गया है, 'वह रात को दिन में लपेटता है और दिन को रात में लपेटता है,' जो स्पष्ट रूप से पृथ्वी के गोलाकार होने की ओर संकेत करता है। यह उदाहरण बताता है कि इस्लाम में वैज्ञानिक ज्ञान और तर्कशीलता का कितना महत्व है।
हालांकि, सिर्फ यहीं नहीं बल्कि ऐसी बहुत सारी भ्रांतियां मुस्लिम समाज में इस कदर फैलायी गई हैं कि यह उनके अवचेतन में गहरे तक पैबस्त हो गई हैं। यह दावा कुरआन की व्याख्या में एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी और ऐतिहासिक संदर्भों की अनदेखी पर आधारित है। इस तरह की गलत व्याख्याएं मुस्लिम समाज में वैज्ञानिक सोच को कुंद कर रही हैं, जाहिलियत को बढ़ावा दे रही हैं, और आधुनिक समाज में सामाजिक सद्भाव को खतरे में डाल रही हैं। अति-रूढ़िवादी विद्वानों ने इन आयतों की गलत व्याख्या करते हुए दावा किया है कि इससे पृथ्वी के सपाट होने का संकेत मिलता है। हालांकि, यह तर्क न केवल वैज्ञानिक प्रमाणों के विपरीत है, बल्कि आधुनिक इस्लामी विद्वान और वैज्ञानिक स्वयं इस बात को स्पष्ट कर चुके हैं कि कुरआन की यह भाषा प्रतीकात्मक और रूपक है, न कि वैज्ञानिक रूप से शाब्दिक।
इसके बावजूद, कुछ लोग इस्लाम के भीतर इस दावे को मजहबी रूप से सही ठहराने की कोशिश करते हैं, जिससे मुस्लिम समाज में वैज्ञानिक सोच का विकास रुक जाता है। ऐसे विचारों का प्रसार मुस्लिम समाज में वैज्ञानिक अन्वेषण और तार्किकता के प्रति उदासीनता को बढ़ावा देता है। जबकि इस्लाम का प्रारंभिक इतिहास विज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में योगदान के लिए जाना जाता है—जैसे खगोलशास्त्री अल-बिरूनी और चिकित्सा विशेषज्ञ इब्न सीना। आज इन कट्टरपंथी विचारों ने उस विरासत को कमजोर कर दिया है।
पृथ्वी के सपाट होने का दावा, केवल दावा भर नहीं है बल्कि यह एक विचार का रूप ले चुका है और यह उन सभी वैज्ञानिक तथ्यों के खिलाफ जाता है जो पृथ्वी के गोलाकार होने जैसी वैज्ञानिक सोच के पैरोकार हैं। यह भी दर्शाता है कि यह समुदाय आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी को समझने और अपनाने में पिछड़ रहा है। इससे विज्ञान के प्रति शत्रुता और संदेह का माहौल बनता है, जो युवा पीढ़ी को आधुनिक विज्ञान के अध्ययन और समझ से दूर कर रहा है। जब समाज में मजहबी किताबों की गलत व्याख्या के आधार पर ऐसी अवैज्ञानिक धारणाओं को सही ठहराया जाता है, तो इसका परिणाम यह होता है कि अज्ञानता (जाहिलियत) बढ़ती है। शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को तार्किक और विवेकशील बनाना है, परंतु जब शिक्षा का स्थान मजहबी कट्टरता और अंधविश्वास लेते हैं, तो समाज में बौद्धिक स्थिरता आ जाती है। ऐसे विचार न केवल लोगों के वैज्ञानिक सोच को बाधित करते हैं, बल्कि उन्हें जड़ता और अंधविश्वास की ओर धकेल देते हैं।
इसके अतिरिक्त, जब युवा मुसलमानों को यह सिखाया जाता है कि पृथ्वी सपाट है और आधुनिक विज्ञान गलत है, तो इससे उनका भविष्य में वैज्ञानिक विषयों में योगदान कम हो जाता है। इससे इस्लामी समाज में शिक्षा का स्तर गिरता है और वैश्विक ज्ञान की दौड़ में मुस्लिम समाज पीछे छूटता जाता है। ऐसे अवैज्ञानिक दावों का प्रचार न केवल मुस्लिम समाज के भीतर विभाजन पैदा करता है, बल्कि यह मुस्लिम और गैर-मुस्लिम समुदायों के बीच संवाद और सामाजिक सद्भाव को भी नुकसान पहुंचाता है।
जब एक समाज आधुनिक वैज्ञानिक तथ्यों को स्वीकार करने से इनकार करता है और मजहब की गलत व्याख्या पर जोर देता है, तो यह अंतर-सांस्कृतिक संवाद के लिए मुश्किलें पैदा करता है। गैर-मुस्लिम समाज इस्लाम को कट्टरपंथी और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण के रूप में देखने लगते हैं, जिससे सामाजिक विभाजन और बढ़ता है। इससे मुस्लिम समाज में आंतरिक संघर्ष भी उत्पन्न होते हैं, जहां एक तरफ प्रगतिशील मुस्लिम विद्वान और वैज्ञानिक समाज सुधार और आधुनिकता का समर्थन करते हैं, तो दूसरी तरफ रूढ़िवादी मजहबी विद्वान पुरानी, अवैज्ञानिक मान्यताओं को बनाए रखने पर जोर देते हैं। यह आंतरिक विभाजन मुस्लिम समाज को कमजोर करता है और उसकी एकता और स्थिरता पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।
इस्लाम की वास्तविक शिक्षाओं को समझने और उनका पालन करने की सख्त आवश्यकता है। यह मुस्लिम समाज की जिम्मेदारी है कि वह कट्टरता, पाखंड और अंधविश्वास के खिलाफ आवाज उठाए। इस्लामी विद्वानों को चाहिए कि वे कुरआन और हदीस की शिक्षाओं की वैज्ञानिक और तर्कपूर्ण व्याख्या करें, ताकि समाज में फैली गलतफहमियों को दूर किया जा सके।
इस्लाम, जैसा कि पैगंबर मुहम्मद ने प्रचारित किया, एक ऐसा मजहब है जो समानता, सहिष्णुता और ज्ञान को महत्व देता है। यदि इस्लामी समाज इस मूल संदेश को अपनाए, तो यह न केवल महिलाओं के अधिकारों को सुरक्षित करेगा बल्कि इस्लाम के वास्तविक उद्देश्य — प्रेम, शांति और करुणा — को भी स्थापित करेगा।
इस्लाम के नाम पर कुछ मौलानाओं और कट्टरपंथी मजहबी नेताओं द्वारा प्रसारित अति रूढ़िवादी विचारों ने आज पूरी दुनिया में मुसलमानों की एक नकारात्मक छवि गढ़ दी है। यह प्रवृत्ति न केवल इस्लाम के वास्तविक संदेश को विकृत कर रही है, बल्कि वैश्विक स्तर पर मुसलमानों को एक खतरनाक समुदाय के रूप में पेश कर रही है। कई घटनाएं और स्थितियां इस प्रक्रिया को दर्शाती हैं, जिससे यह समझने में मदद मिलती है कि कैसे अति-रूढ़िवादी विचारधाराएं मुस्लिम समाज के भीतर और बाहर गंभीर चुनौतियां पैदा कर रही हैं।
कई मौलानाओं द्वारा प्रचारित कट्टरपंथी विचारधारा इस्लाम के नाम पर हिंसा, असहिष्णुता और समाजिक अलगाव को बढ़ावा देती है। यह कट्टरपंथी विचारधारा दुनिया के कई हिस्सों में फैली है, खासकर पश्चिम एशिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, उत्तरी अफ्रीका, और कुछ पश्चिमी देशों में भी, जहाँ मुस्लिम अल्पसंख्यक रहते हैं। इन विचारों का समर्थन करने वाले मजहबी नेता इस्लाम की उन शिक्षाओं को अनदेखा करते हैं जो शांति, सहनशीलता और पारस्परिक सद्भाव का समर्थन करती हैं। इसके विपरीत, वे शरिया कानून की कठोर व्याख्या और गैर-मुसलमानों के प्रति घृणा फैलाते हैं, जिससे वैश्विक समाज में मुसलमानों की एक रूढ़िवादी और हिंसक छवि बनती है। यहां कुछ ऐसी घटनाओं का उल्लेख कर रहा हूं जिसे उदाहरण के दौर पर देखा-समझा जा सकता है।
2021 में, अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा इस्लामी दुनिया में अति-रूढ़िवादी विचारों के प्रसार का प्रमुख उदाहरण है। तालिबान ने शरिया कानून के अपने कठोर और कट्टरपंथी संस्करण को लागू किया, जिसके तहत महिलाओं के अधिकारों का दमन, शिक्षा पर प्रतिबंध, और सामाजिक स्वतंत्रता पर नियंत्रण लगाया गया। इस्लाम के इस तरह के कट्टरपंथी और हिंसात्मक रूप को देखकर दुनिया के कई हिस्सों में मुसलमानों के प्रति नकारात्मक धारणा बन गई, जिसमें उन्हें वैश्विक शांति के लिए एक खतरे के रूप में देखा जाने लगा।
अति-रूढ़िवादी विचारधारा का सबसे विनाशकारी परिणाम आतंकवाद और हिंसक चरमपंथ के रूप में सामने आता है। अल-कायदा, आईएसआईएस, बोको हराम और अन्य चरमपंथी संगठनों ने इस्लाम के नाम पर आतंक फैलाया है। ये समूह कुरआन और इस्लामी शिक्षाओं की विकृत व्याख्या करके जिहाद का गलत अर्थ निकालते हैं और निर्दोष लोगों की हत्या करते हैं। इस तरह की घटनाओं ने वैश्विक शांति और सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न किया है, और पश्चिमी देशों में मुसलमानों के प्रति संदेह और घृणा की भावना बढ़ी है।
आईएसआईएस ने 2014 में एक 'खिलाफत' की घोषणा की और सीरिया तथा इराक के बड़े हिस्सों पर कब्जा कर लिया। इस संगठन ने इस्लाम के नाम पर भयावह हिंसा, नरसंहार, और बर्बरता का प्रदर्शन किया। उन्होंने न केवल गैर-मुसलमानों को बल्कि शिया मुस्लिमों, यज़ीदियों, और अन्य मजहबी अल्पसंख्यकों को भी निशाना बनाया। यह संगठन मुस्लिम युवाओं को ऑनलाइन कट्टरपंथी बनाने और आतंकवादी गतिविधियों में भर्ती करने में सफल रहा। आईएसआईएस के बर्बर कारनामों ने इस्लाम की छवि को पूरी दुनिया में धूमिल किया और मुसलमानों को एक खतरनाक समूह के रूप में देखा जाने लगा।
2015 और 2016 में पेरिस और ब्रुसेल्स में हुए आतंकवादी हमलों ने यूरोप में मुसलमानों की छवि को और खराब कर दिया। आईएसआईएस के समर्थकों द्वारा किए गए इन हमलों ने न केवल यूरोपीय समाज में भय और घृणा का माहौल पैदा किया, बल्कि इस्लाम को हिंसा और आतंकवाद से जोड़ दिया गया। इस तरह के हमलों के कारण यूरोप और अमेरिका जैसे देशों में मुसलमानों के खिलाफ घृणा अपराधों में वृद्धि देखी गई, और उनके प्रति नकारात्मक धारणाएं और मजबूत हो गईं।
अति-रूढ़िवादी मौलानाओं द्वारा प्रचारित विचार महिलाओं के अधिकारों को सीमित करने का प्रयास करते हैं, जो आधुनिक समाज के मूल्यों और अधिकारों के खिलाफ है। महिलाओं की शिक्षा, रोजगार और सामाजिक सहभागिता पर प्रतिबंध लगाकर इन कट्टरपंथियों ने इस्लाम को एक ऐसे मजहब के रूप में प्रस्तुत किया है जो महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन करता है। जबकि इस्लाम महिलाओं को शिक्षा, सम्मान, और स्वतंत्रता का समर्थन करता है, कट्टरपंथी विचारधारा इसका विपरीत प्रभाव डालती है।
अफगानिस्तान में तालिबान के शासन के तहत लड़कियों की शिक्षा पर लगाए गए प्रतिबंध ने न केवल मुस्लिम समाज के भीतर असंतोष पैदा किया, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसकी कड़ी आलोचना हुई। महिलाओं के अधिकारों के इस हनन ने दुनिया भर में इस्लाम के प्रति एक नकारात्मक दृष्टिकोण पैदा किया, जहां इसे एक ऐसे मजहब के रूप में देखा जाने लगा जो महिलाओं की स्वतंत्रता को दबाता है।
अति-रूढ़िवादी विचारधाराओं के कारण इस्लामोफोबिया (इस्लाम के प्रति भय और घृणा) का विश्व स्तर पर तेजी से विस्तार हुआ है। जब दुनिया के विभिन्न हिस्सों में मुसलमानों से जुड़े हिंसक हमलों और कट्टरपंथी गतिविधियों की खबरें आती हैं, तो गैर-मुस्लिम समुदायों के बीच मुसलमानों के प्रति नकारात्मक धारणाएं बढ़ती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि दुनिया के कई देशों में मुसलमानों के खिलाफ भेदभाव, सामाजिक बहिष्कार और हिंसा की घटनाएं बढ़ जाती हैं। यह स्थिति न केवल पश्चिमी देशों में बल्कि भारत जैसे देशों में भी देखी जाती है, जहां मुसलमानों के प्रति साम्प्रदायिकता और विभाजन की राजनीति होती है।
9/11 के आतंकवादी हमलों के बाद से अमेरिका और यूरोप में इस्लामोफोबिया का उभार हुआ है। मुसलमानों को आतंकवाद से जोड़कर देखा जाने लगा, और उनके खिलाफ भेदभाव और घृणा अपराधों में वृद्धि हुई। मुस्लिम आव्रजकों के खिलाफ सख्त नीतियों को लागू किया गया, और कई देशों में मस्जिदों पर हमले हुए। इन घटनाओं ने मुस्लिम समुदायों को अलग-थलग कर दिया और उनके प्रति सामाजिक सद्भावना को नष्ट कर दिया।
अति-रूढ़िवादी विचारधाराओं ने कई मुस्लिम देशों में राजनीति और मजहब को आपस में मिला दिया है, जिससे हिंसक सत्ता संघर्ष और अस्थिरता उत्पन्न हुई है। कुछ कट्टरपंथी समूह इस्लाम का इस्तेमाल राजनीतिक लाभ के लिए करते हैं, जिससे सामाजिक और सांस्कृतिक विभाजन बढ़ता है। इसका नतीजा यह होता है कि इन देशों में स्थायी संघर्ष और अस्थिरता बनी रहती है, जिससे दुनिया के अन्य हिस्सों में भी मुसलमानों के प्रति नकारात्मक धारणाएं गहराती हैं।
ईरान और सऊदी अरब जैसे देशों में मजहब का राजनीति पर गहरा प्रभाव है। इन देशों में शरिया कानून के कठोर पालन और मजहबी नेतृत्व की अत्यधिक शक्ति ने वैश्विक समाज में इस्लाम को एक रूढ़िवादी और कठोर मजहब के रूप में देखा जाता है। मजहबी स्वतंत्रता की कमी और विरोधियों के प्रति कठोर दमन ने इस छवि को और मजबूत किया है।
अगर भारत की बात करें तो यहां भी इस्लामी रूढ़िवाद और कट्टरपंथी विचारधाराओं के प्रभाव ने कई सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मुद्दों को जन्म दिया है। हालांकि, यह ध्यान देना जरूरी है कि भारत एक बहुलतावादी और विविधतापूर्ण समाज है, जिसमें मुस्लिम समुदाय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। भारत के मुसलमानों ने देश की प्रगति और संस्कृति में कई महत्वपूर्ण योगदान दिए हैं, लेकिन कट्टरपंथी विचारधाराओं के प्रभाव के कारण भारत में भी मुसलमानों की छवि प्रभावित हुई है। यह स्थिति केवल भारत में ही नहीं, बल्कि वैश्विक परिप्रेक्ष्य में मुस्लिम समुदाय को लेकर बन रही नकारात्मक धारणाओं से भी जुड़ी हुई है।
भारत में कुछ मौलानाओं और कट्टरपंथी मजहबी नेताओं द्वारा प्रसारित कठोर और रूढ़िवादी इस्लामी विचारधाराएं भारतीय मुसलमानों की छवि को प्रभावित करती हैं। ये विचारधाराएं महिलाओं की शिक्षा, आधुनिकता, और मुस्लिम समुदाय की मुख्यधारा में सहभागिता को कम करने की प्रवृत्ति रखती हैं। उदाहरण के लिए, तीन तलाक जैसे मुद्दों पर इस्लामी कट्टरपंथियों का विरोध आधुनिक सुधारों के प्रति उनके नकारात्मक दृष्टिकोण को दिखाता है। भारतीय समाज में यह धारणा बनी है कि मुस्लिम समुदाय में आधुनिकता के प्रति अस्वीकार्यता अधिक है, और यह उनके मुख्यधारा से कटने का एक बड़ा कारण है।
भारत में तीन तलाक की प्रथा को समाप्त करने के लिए सरकार ने 2019 में एक कानून पारित किया, जिसका कई रूढ़िवादी मुस्लिम संगठनों और नेताओं ने विरोध किया। उनका तर्क था कि यह इस्लामिक परंपराओं का उल्लंघन है, जबकि यह कदम महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए आवश्यक था। इसी प्रकार, समान नागरिक संहिता पर चल रही बहस में भी कट्टरपंथी इस्लामी नेता किसी भी प्रकार के सुधार का विरोध करते हैं। इससे भारतीय मुसलमानों की प्रगतिशीलता पर सवाल उठते हैं और उनकी छवि को नुकसान होता है।
भारत में आतंकवाद और मुस्लिम युवाओं के कट्टरपंथ की ओर झुकाव ने भी मुसलमानों की छवि को नुकसान पहुंचाया है। कुछ इस्लामी कट्टरपंथी संगठनों ने भारतीय मुसलमानों के बीच जिहादी विचारधारा का प्रसार करने की कोशिश की है, जो न केवल भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा है, बल्कि भारतीय मुसलमानों की एक नकारात्मक छवि भी गढ़ता है। आईएसआईएस और अल-कायदा जैसे अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों ने भारतीय मुस्लिम युवाओं को भी कट्टरपंथी बनाने का प्रयास किया है।
भारत में कई आतंकवादी हमलों के पीछे कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों का हाथ रहा है, जैसे 2008 का मुंबई हमला, जिसमें पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा शामिल था। इस तरह के हमलों ने भारत में मुसलमानों के प्रति नकारात्मक धारणाओं को जन्म दिया है। इसके अलावा, कुछ भारतीय मुस्लिम युवाओं के आईएसआईएस और अन्य आतंकवादी संगठनों से जुड़ने के प्रयास भी इस छवि को मजबूत करते हैं कि इस्लाम के नाम पर हिंसा और आतंकवाद बढ़ रहा है।
भारत में इस्लाम के नाम पर मजहबी कठमुल्लापन ने सामाजिक सद्भाव को भी कमजोर किया है। कट्टरपंथी विचारधाराएं भारतीय समाज में साम्प्रदायिक तनाव को बढ़ावा देती हैं। मजहबी संगठनों द्वारा किए गए उकसावेपूर्ण बयान और नीतियों के खिलाफ उठाए गए कदमों का विरोध, जैसे कि स्कूलों में लड़कियों के हिजाब पहनने को लेकर विवाद, इस्लामी रूढ़िवाद को और अधिक बढ़ावा देते हैं। इससे मुसलमानों के खिलाफ संदेह और भेदभाव की भावना बढ़ती है और उनका सामाजिक अलगाव बढ़ता है।
2022 में कर्नाटक में हिजाब पहनने को लेकर विवाद शुरू हुआ, जिसमें मुस्लिम लड़कियों को स्कूल और कॉलेजों में हिजाब पहनने पर रोक लगाई गई थी। इस मुद्दे ने पूरे भारत में एक बड़ा विवाद खड़ा कर दिया। कट्टरपंथी मौलाना और संगठनों ने इसे मजहबी स्वतंत्रता पर हमला बताया, जबकि विरोधियों ने इसे आधुनिकता और शिक्षा से जोड़कर देखा। इस विवाद ने भारतीय समाज में मुसलमानों के प्रति एक नकारात्मक दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया, जहां कट्टरपंथ को उनकी पहचान के साथ जोड़ा जाने लगा।
वैश्विक स्तर पर बढ़ रहे इस्लामोफोबिया का असर भारत में भी देखने को मिलता है। कई कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों की गतिविधियों और आतंकी हमलों के कारण भारत में मुसलमानों के प्रति नकारात्मक धारणाएं बढ़ी हैं। मुसलमानों के प्रति भेदभाव, सामाजिक बहिष्कार, और हिंसात्मक घटनाएं भी इस्लामोफोबिया को बढ़ावा देती हैं। इसके परिणामस्वरूप, मुस्लिम समुदाय को अक्सर अलग-थलग महसूस होता है, और वे सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक रूप से हाशिये पर चले जाते हैं।
हाल के वर्षों में भारत में मॉब लिंचिंग की घटनाओं में वृद्धि हुई है, जहां मुस्लिम समुदाय के लोगों को कथित गोरक्षा या मजहबी कारणों से निशाना बनाया गया है। इसके अलावा, सीएए-एनआरसी विरोध प्रदर्शनों के दौरान मुसलमानों को 'देश-विरोधी' और 'आतंकवादी' के रूप में देखा गया, जिससे उनकी स्थिति और कठिन हो गई। इन घटनाओं ने भारत में मुसलमानों के प्रति भेदभाव और घृणा को और गहराया है।
वैश्विक स्तर पर मुस्लिम देशों में हो रहे संघर्षों और कट्टरपंथी विचारधाराओं का प्रभाव भारत में भी देखा जाता है। जैसे कि सऊदी अरब, ईरान, और तालिबान के शासन वाले अफगानिस्तान की नीतियों ने भारतीय मुसलमानों के बीच भी इस्लामी कट्टरपंथ को प्रोत्साहित किया है। इसके अलावा, कुछ भारतीय मुसलमान वैश्विक इस्लामी आंदोलनों से प्रभावित होकर कट्टरपंथी संगठनों में शामिल होने का प्रयास करते हैं, जिससे उनकी छवि और नकारात्मक होती है।
2021 में अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में लौटने के बाद, कुछ भारतीय मुस्लिम संगठनों ने इसे इस्लामी शासन की जीत के रूप में देखा। हालांकि, तालिबान के अत्याचारों और उनके द्वारा महिलाओं के अधिकारों के हनन ने भारतीय समाज में भी इस घटना की व्यापक निंदा की। यह घटना भारतीय मुसलमानों के भीतर भी एक बहस को जन्म देती है कि क्या कट्टरपंथी इस्लामी विचारधाराएं इस्लाम की सही प्रतिनिधि हैं।
भारत में इस्लामी रूढ़िवाद और कट्टरपंथी विचारधाराओं ने न केवल भारतीय मुसलमानों की छवि को प्रभावित किया है, बल्कि सामाजिक सद्भाव और राष्ट्रीय एकता के लिए भी चुनौतियां पैदा की हैं। कुछ मौलानाओं द्वारा प्रचारित अति-रूढ़िवादी विचारधारा ने मुसलमानों को आधुनिकता, विज्ञान और समाज के मुख्यधारा से दूर करने की प्रवृत्ति बढ़ाई है। इसके साथ ही, आतंकी हमलों, कट्टरपंथी संगठनों के प्रभाव, और वैश्विक इस्लामिक आंदोलनों का असर भारतीय समाज में मुसलमानों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण को गहराता है।
हालांकि, यह भी महत्वपूर्ण है कि भारतीय मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा हिस्सा प्रगतिशील और आधुनिकता का समर्थन करता है। हालांकि मजहबी पाखंड और अंधविश्वास के खिलाफ लड़ाई केवल इस्लामिक समाज की नहीं है, यह एक वैश्विक समस्या है, जिसे सभी समाजों को मिलकर हल करना होगा। नीत्शे और इब्न रश्द जैसे दार्शनिकों ने जिन खतरों की ओर इशारा किया था, वे आज भी प्रासंगिक हैं।
मुसलमानों को अपने मजहब की वास्तविक शिक्षाओं की ओर लौटना होगा और कट्टरपंथी विचारधाराओं को अस्वीकार करना होगा। इसके लिए मुस्लिम समाज के भीतर से ही आवाजें उठनी चाहिए, जो तार्किकता, विज्ञान और ज्ञान के आधार पर समाज का निर्माण करें। इसके अलावा, इस्लामी शिक्षाओं की सही व्याख्या और प्रसार के लिए शिक्षित मौलानाओं और मजहबी नेताओं की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। वैश्विक शांति और मुस्लिम समुदाय की सकारात्मक छवि को स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है कि मुस्लिम समाज आंतरिक सुधारों पर जोर दे, और अंधविश्वास और पाखंड के खिलाफ जागरूकता फैलाए।