हम दो ही पैदा हुए थे, अम्मा के.
अम्मा अब नहीं है. चली गई है भगवान के पास, दूर...बहुत दूर.
पिता हैं.
मां के न रहने पर बिखरते जा रहे हैं. शरीर धोखा दे रहा है.
वसीयत कर दी है पिता ने - मेरे और बड़े भैया के नाम. हम दोनों को बराबर दिया है, न एक पैसा कम न एक पैसा ज्यादा.
हम दोनों ने अपने-अपने हिस्से सहेजकर रख लिए हैं.
पिता अब बहुत ज्यादा बीमार हैं. इलाज चल रहा है पिछले पन्द्रह दिनों से. ठीक ही नहीं हो रहे हैं. मेरे पास ही रहते हैं. आज बड़े भैया आए हैं गांव से उन्हें देखने.
आज ही डाक्टर के पास ले जाना है. आज की ही डेट दी है डाक्टर ने. मैं डाक्टर की पर्ची ढूंढ रहा हूं. पूरा घर छान मारा है. कहीं नहीं मिल रही है डाक्टर की पर्ची.
”कहां रख दी थी जो नहीं मिल रही.”
”पता नहीं भैया, रखी तो संभाल कर थी. कहीं ऐसा तो नहीं, कामवाली ने झाड़ू लगाते समय कूड़े के साथ बुहार दी हो.”
”फिर संभालकर रखना कहां हुआ?” भैया ने अपनी लाल -लाल आंखे दिखाईं. ”अच्छा बताओ वसीयत कहां रखी है?”
”भैया, वह तो बैंक में रखी है, लॉकर में, सुऱिक्षत.” मैं बेशर्मों की तरह खिलखिला पड़ता हूं.