कोरोना वायरस और ICU

संदीप कुमार

 |   24 Apr 2020 |   371
Culttoday

जब भी कोई मेडिकल इमर्जेंसी होती है तो एक मशीन गंभीर रूप से बीमार लोगों की ज़िंदगी बचा लेती है. और वह इंटेसिव केयर यूनिट्स. आज दुनिया भर के अस्पताल इसका इस्तेमाल करते हैं और कोरोना वायरस से फैली कोविड-19 की महामारी के इलाज में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है. लेकिन आज से 68 साल पहले ये मशीनें वजूद में नहीं थी.

1952 के अगस्त महीने में कोरोना वायरस जैसी ही एक महामारी फैली थी जिसमें हज़ारों लोगों की मौत श्वसन तंत्र के नाकाम हो जाने की वजह से हो गई थी. वो बीमारी थी पोलियो. डेनमार्क के कोपेनहेगन में 500 बिस्तरों वाले ब्लेगडैम हॉस्पिटल में डॉक्टर और नर्स मरीज़ों की बाढ़ से इस कदर लाचार हो गए थे कि वे उनकी मदद नहीं कर पा रहे थे. इन मरीज़ों में ज़्यादातर बच्चे थे. उस ज़माने में पोलियो एक गंभीर वायरल इंफेक्शथा जिसका कोई इलाज नहीं था.

कई लोग तो बिना किसी लक्षण के ही इस वायरस से संक्रमित हो रहे थे. कुछ मामलों में ये वायरस रीढ़ में मौजूद नर्व्स (तंत्रिकाओं) और मस्तिष्क की तली पर हमला कर रहा था. इससे मरीज़ को लकवा मारने का ख़तरा था, ख़ासकर पैरों में.

साइंस जर्नल 'नेचर' में छपे एक लेख के मुताबिक़, "ब्लेगडैम हॉस्पिटल में हर रोज़ पोलियो से संक्रमित 50 लोग आ रहे थे. उनमें छह से 12 लोगों को रोज़ श्वसन तंत्र की नाकामी की समस्या का सामना करना पड़ रहा था."

"महामारी के पहले हफ़्ते में ज़्यादातर जो मरीज़ आ रहे थे, उनमें 87 फ़ीसदी पोलियो संक्रमण की उस अवस्था में थे जब ये वायरस संक्रमित व्यक्ति के दिमाग पर हमला कर रहा था या फिर उस नर्व (तंत्रिका) पर जिससे शरीर सांसों पर नियंत्रण रखता है. इन मरीज़ों में आधे से ज़्यादा बच्चे थे."

लेकिन एक डॉक्टर ने इस समस्या का हल निकाल दिया और आधुनिक मेडिकल साइंस के इंतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय लिख दिया.

डैनिश डॉक्टर बजॉर्न आजे इब्सेन वैसे तो पेशे से अनीस्थीसिया विशेषज्ञ थे और उन्होंने अपने करियर का लंबा समय अमरीका के बोस्टन में गुजारा था. अपने देश के स्वास्थ्य संकट को देखते हुए इसका हल निकाला और हज़ारों लोगों की ज़िंदगियां बचा लीं. स्विटज़रलैंड के सबसे बड़े अस्पतालों में से एक में कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की देखरेख कर रहे डॉक्टर फिलिप जेंट बताते हैं, "जिन मरीज़ों के महत्वपूर्ण अंग काम करना बंद कर देते हैं और उन्हें जीवन रक्षक प्रणाली के सपोर्ट की ज़रूरत होती है. ये इसलिए ज़रूरी हैं क्योंकि मरीज़ की जान को ख़तरा होता है."  "आईसीयू में मरीज़ की स्थिति पर क़रीबी नज़र रखी जा सकती है और इलाज को ज़रूरत के मुताबिक़ बदला जा सकता है. मरीज़ का ख़ास ख्याल केवल आईसीयू में ही रखा जा सकता है. अस्पताल के इस हिस्से में प्रति मरीज़ डॉक्टरों और नर्सों का अनुपात सबसे ज़्यादा होता है. आईसीयू में भर्ती मरीज़ों को देखने वाले डॉक्टर उच्च योग्यता रखने वाले होते हैं."

शायद इसीलिए आईसीयू को इंटेसिव मेडिसिन भी कहा जाता है. इंटेसिव केयर यूनिट्स की अहमियत सिर्फ़ इसलिए नहीं है कि यहां मरीज़ों का ख़ास ख्याल रखा जाता है और हाई स्टैंडर्ड का हाइजीन मेनटेन किया जाता है. किडनी, दिल और श्वसन तंत्र के नाकाम होने की सूरत में इन मशीनों की उपलब्धता बेहद अहम हो जाती है.

लेकिन डेनमार्क में जब पोलियो की महामारी फैली थी तो कोपेनहेगन में केवल एक रेस्पिरेटर था और वो भी लोहे का बना हुआ. इसके अलावा छह एक्सटर्नल रेस्पिरेटर्स भी थे. साल 1953 में प्रकाशित एक लेख में ब्लेगडैम हॉस्पिटल के चीफ़ हेनरी साई एलेक्ज़ेंडर लासेन ने लिखा था, "बेशक महामारी के हमले के वक़्त ये मशीन पूरी तरह से नाकाफी थी. लेकिन हमें इसी में काम चलाना था. हम रास्ता खोज रहे थे. हम नहीं चाहते थे कि ऐसी नौबत आए जब हमें ये तय करना पड़े कि किस मरीज़ का इलाज रेस्पिरेटर से किया जाए और किस का नहीं."

डॉक्टर हेनरी उस ज़माने में जिस नैतिक दुविधा से गुजर रहे थे, कोरोना संकट के समय आज भी कई डॉक्टरों उन्हीं हालात से रूबरू होना पड़ रहा है.

ब्लेगडैम हॉस्पिटल के लिए डॉक्टर इब्सेन ने एक ऐसा सिस्टम डेवलप किया जिससे अस्पताल की समस्या हल हो गई. नई मशीन पर पहली बार इलाज पाने वाली उनकी मरीज़ थीं 12 साल की एक लड़की. उसका नाम विवी था. पोलियो वायरस की वजह से हुए पक्षाघात के कारण विवी मरने के कगार पर थी.

इस मेडिकल केस के बारे में डॉक्टर इब्सेन का इंटरव्यू करने वाले एक दूसरे अनीस्थीसिया विशेषज्ञ प्रेबेन बर्थेल्सन का कहना था, "हर कोई ये उम्मीद कर रहा था कि विवी मर जाएगी. लेकिन डॉक्टर इब्सेन ने पारंपरिक तरीके वाले इलाज को लेकर क्रांतिकारी बदलाव का प्रस्ताव दिया."

"डॉक्टर इब्सेन ने कहा कि पोलियो के मरीज़ों का उसी तरह से इलाज होना चाहिए, जैसे सर्जरी पेशेंट्स का होता है. उनका विचार था कि मरीज़ के फेफड़ों में हवा सीधे पहुंचा दी जाए ताकि उसका शरीर आराम कर सके और फिर वो धीरे-धीरे खुद सांस लेने लगे."

डॉक्टर इब्सेन ने ट्रैकियोस्टमी के इस्तेमाल का भी सुझाव दिया. इस मेडिकल प्रक्रिया के तहत मरीज के गर्दन में एक छेद कर दिया जाता है. इस छेद से रबर ट्यूब के जरिए मरीज़ के फेफड़ों तक ऑक्सिजन की सप्लाई दी जाती है.

उस ज़माने में ऑपरेशन के दौरान तो ट्रैकियोस्टमी का इस्तेमाल तो किया जाता था लेकिन हॉस्पिटल वार्ड में इसके इस्तेमाल के बारे में शायद ही किसी ने सोचा हो.

ब्लेगडैम हॉस्पिटल के चीफ़ डॉक्टर हेनरी को इस बात पर यकीन नहीं था कि डॉक्टर इब्सेन का तरीका काम करेगा. लेकिन हालात इतने गंभीर थे कि उन्होंने इसकी मंजूरी दे दी. चमत्कार तब हुआ जब डॉक्टर इब्सेन के तरीके से विवी की जान बच गई.

लेकिन इसमें भी एक अड़चन थी. फेफड़े में रबर ट्यूब के जरिये हवा पहुंचाने का तरीका मशीन नहीं था. इसे हाथ से चलाना पड़ता था. किसी डॉक्टर या नर्स को प्रेशर नॉब या बैग की मदद से हवा का दबाव बनाना पड़ता था. डॉक्टर हेनरी को इसके लिए कई मेडिकल स्टाफ़ की शिफ्टों में ड्यूटी लगानी पड़ी.

1953 में ब्लेगडैम हॉस्पिटल में स्थाई रूप से एक इंटेसिव केयर यूनिट वॉर्ड की स्थापना की गई और आगे चलकर बाक़ी दुनिया ने भी उसे अपना लिया.

आज जब कोविड-19 की महामारी के समय सारी दुनिया आईसीयू बेड्स और मैकेनिकल वेंटिलेटर्स के लिए परेशान हो रही है क्योंकि कोरोना वायरस से संक्रमित ज़रूरमंद लोगों को मेडिकल सुविधाएं मुहैया कराना मुश्किल हो रहा है.कम ही लोग ये जानते हैं कि 68 साल पहले तकरीबन इन्हीं हालात में एक डैनिश अनीस्थीसिया विशेषज्ञ ने इस मुश्किल चुनौती का हल निकाला था.

 


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