वनस्पति उपासना यानि पेड़-पौधों की पूजा हमारे संस्कृति का मुख्य अंग है. यह पद्धति अकारण नहीं शुरू हुई है. पेड़ों से हमें आक्सीजन, भोजन और जल तीनों मिलता है और इन्हीं से हमारा जीवन चलता है. ऐतरेय और कौषितकि ब्राह्मण ग्रंथ में प्राणौ वै वनस्पति:. (ऐतरेय 2.4, कौषितकि 12.7) कहा गया है. जहां वनस्पतियों से हमारे जीवन को संचालित करने वाले तत्व मिलते हैं, वहीं वनस्पतियां ऐसे तत्वों को भी समाप्त करती हैं, जो हमारे जीवन को नुकसान पहुंचाते हैं. इसीलिये वनस्पतियों को पृथ्वी पर शिव का प्रतिनिधि माना जाता हैं, जो कि कार्बनडाइ आक्साइड का हलाहल पीकर हमें जीवन अमृत आक्सीजन देती हैं. शुक्लयजुर्वेद का एक उदाहरण है- नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्य:. क्षेत्राणां पतये नम:. वनानां पतये नम:. वृक्षाणां पतये नम:. ओषधीनां पतये नम:. कक्षाणां पतये नम:. (यजुर्वेद 16.17.18). इसमें शिव को वृक्ष, वन, औषधियों इत्यादि का स्वामी का कहा गया है. देवताओं को उनके गुणानुरूप जीवों और पदार्थों का स्वामी नियुक्त किया गया है. यदि शिव वनस्पतियों के स्वामी कहे गये हैं तो इसका मतलब यह हुआ कि वनस्पतियों का गुण भी शिव जैसा होना चाहिये. शिव का शिवत्व बहुत व्यापक है. शिव का मलतब होता है सुंदर और वनस्पतियां भी पृथ्वी का श्रृंगार करती हैं. सुंदरता बढ़ाती हैं. इस तरह से वनस्पतियों का व्यवहार उनको शिव का प्रतिनिधि साबित कर देता है. वहीं दूसरी ओर शिव विश्वपूज्य व सर्वपूज्य इसलिये हुये क्योंकि उन्होने विष पीकर संसार की रक्षा की और अमृत अन्य के लिये छोड़ दिया. विष पीकर अमृत छोड़ देना भी शिवत्व है. हमारे पर्यावरण में वनस्पतियों की भूमिका शिव सरीखी है. वनस्पतियां भी कार्बन डाइ आक्साइड जैसे विष को ग्रहण कर हमारे लिये आक्सीजन जैसी अमृत छोड़ देती हैं. यह बताने की आवश्कता नहीं है कि आक्सीजन के बिना जीवन की परिकल्पना नहीं की जा सकती. एक बात और समझने की है, ओषधियां भी पेड़-पौधों से ही मिलती हैं. ओषधियों के बारे में हमारे ग्रंथों में कहा गया है कि इनका जन्म देव के रौद्र रूप से हुआ है, इसलिये ओषधियां दोषों और विकारों को समाप्त करने में सक्षम है. यह भी शिव का ही गुण हैं. सरल सी बात है कि वही शिव का जो स्वभाव है, वनस्पतियां का भाव है. ऐसे विचार कीजिये कि हमारे आस पास कितने ही शिव हैं.
वेदों में पर्वत, जल, वायु, वर्षा और अग्नि को पर्यावरण का शोधक कहा है और इन सभी पर्यावरण शोधकों का मूल तो वनस्पतियां ही हैं. वनस्पतियों के कम होने से सबसे पहला प्रभाव आक्सीजन के स्तर पर पड़ता है. वेदों में दो प्रकार के वायु की चर्चा है प्राणवायु और अपान वायु. प्राणवायु से जीवन का संचार होता है और अपानवायु से सारीरिक दोषों का निवारण होता है. उदाहरण देखें- आ वात वाहि भेषजं वि वात वाहि यद् रप:. त्वं हि विश्व भेषज देवानां दूत ईयसे. (अथर्ववेद 4.13.3). वायु को विश्वभेषज कहा गया है. यानि की वल्र्ड डाक्टर. अथर्ववेद में वायु और सूर्य को रक्षक के रूप में वंदना की गई है. उदाहरण देखें-युवं वायो सविता च भुवनानि रक्षय:. (अथर्ववेद 4,24,3). अथर्ववेद शुद्घ वायु को औषधि मानता है. ताजी हवा शरीर में प्रवेश करते ही हम तरोताजा हो जाते हैं. बहुत से रोग बहुत से कष्टï ऐसे ही कट जाते हैं. लेकिन जब हमने पेड़-पौधों के महत्व को नकार दिया और हमें संकट से बचाने वाली वनस्पतियों के लिये हम संकट बने तो पर्यावरण का तंत्र खराब हो गया. हम आज जहर पीने को मजबूर हैं. वेदों में प्रदूषण के कारकों को क्रव्याद यानि जीव को सुखाकर निर्जीव करने वाला कहा गया है. उदाहरण देखें- ये पर्वता: सोमपृष्ठा: आप:. वात: पर्जन्य आदग्निनस्ते क्रव्यादमशीशमन. (अथर्ववेद 3.21.10). तो वहीं यह भी कहा गया है कि यह वनस्पतियों के अभाव में पनपते हैं. जहां आज हम उत्सर्जन कम करने पर जोर दे रहे हैं तो वहीं वेदों ने शोधन बढ़ाने पर जोर दिया है. अथर्ववेद में तमाम ऐसे वनस्पतियों की सूची मिलती है जोकि पर्यावरण के शोध के रूप में काम करते हैं. इसमें अश्वत्थ (पीपल),कुष्ठ (कठ), भद्र और चीपुत्र (देवदार और चीड़), प्लक्ष (पिलखन और पाकड़), न्यग्रौध (बड़), खदिर (खैर), उदुम्बर (गूलर), अपामार्ग (चिरचिरा), और गुग्गुल (गूगल) हैं. अथर्ववेद में कहा गया है कि इन वृक्षों से वायु शुद्घ होती है और पर्यावरण का संतुलन सही बना रहता है. हमारे प्राचीन साहित्य में वृक्षारोपण को बल दिया गया है. अब तक हमने कई प्रथायें सुनी हैं कि पुत्र होने पर वहां एक वृक्ष रोपा जाता है. जबकि हम नहीं जानते कि मस्त्य पुराण में 'दशपुत्रसमोद्रुम:' कहकर वृक्षों का महत्व बताया गया है. दशपुत्रसमोद्रुम: का मतलब है, एक वृक्ष दश पुत्रों के समान है. ऐसा उदाहरण विश्व के अन्य साहित्यकोश से या संस्कृति से नहीं मिल सकता.
(लेखक टेक्नोवेदिक मिशन न्यास के संस्थापक व अध्यक्ष हैं)