पुस्तक समीक्षाः दीवार पर टंगे नाम
जलज वर्मा
| 02 Jan 2020 |
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बर्फ की तासीर गर्म होती है लेकिन स्पर्श तो शीतल ही होता है. ये दोनों विपरीत गुण उसे पूर्णता को प्राप्त कराते हैं. जीवन में विलोम प्रतिगामी नहीं होता, यह बात संजय सिन्हा की सद्य प्रकाशित उपन्यास ‘एक लड़की और इंदिरा गांधी’ भी प्रमाणित करती है.
नौकरीपेशा निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की सामाजिक स्थितियां, वंदिशों, संघर्षों-संबंधों की एक अलग क्यारी होती है, जिसकी गतिशीलता तथा परिवर्तनशील यथार्थ विभिन्न रूपों में सामने आ कर यथार्थवाद का एक नया पर्यावरण सृजित करते हैं. दरअसल, उपन्यास ‘एक लड़की और इंदिरा गांधी’ की कहानी आपातकाल के दौर में शुरू होती है, लेकिन इस दौरान उपन्यास के किरदार सुनयना और उसके भाई नंदू उर्फ आनंद द्वारा भोगे हुए सच का अनुभव बाद के वर्षों में भी उनकी जिंदगी की परिपाटी बदल देती है. नौकरी के लिए लोकल ट्रेन 12 अप से जाना और 11 डाउन से आने की दास्तां के साथ उपन्यास में संजय सिन्हा ने करोड़ों मध्यवर्गीय परिवारों द्वारा विलोम दिशा में बहती धारा में पतवार मजबूती से थामे रखने की जीजीविषा को दर्शाया है.
एक भरे-पुरे परिवार के संबंधों के झरोखे से फुदकते स्नेह से लेकर संबंधों की दरार से झांकती तल्खियों तक को लेखक ने बड़ी तारतम्यता से उकेरा है, जो कही पाठक के मन पर बोझ तो नहीं डालती, लेकिन उसे यह अपने घर की कहानी सी लगती है और अपनापन का अहसास कराती है.
यह उपन्यास में मुख्यरूप से एक किशोरी सुनयना के युवा उच्छवास और बच्चे नंदू की बालमन के सोच-संकोच और कल्पनाओं तथा उसके जीवन पर पड़ते प्रभाव-निहितार्थ को लेकर बुना गया है.
कस्बाई माहौल के शरारती स्वभाव किशोरी सुनयना के साथ उसके पूरे परिवार के जीवन ढर्रे को बदलत देता है, दीवार पर लिखे महज दो शब्द ‘सुनयना-अनूप’ ने ठोस घरातल पर जैसे सुराख बना दी हो और इस सुराख में सुनयना के सपने, इच्छाएं समा गयी हों और सुनयना के इस हाल के चश्मदीद भाई नंदू कैसे जज्ब करता है और कलांतर में यहीं दो शब्द उसके जीवन में कैसे नासूर बन जाते हैं.... यह दास्तां आज भी सभी सुनयना और सभी नंदू के लिए ठीक वैसा ही है जैसे 40 साल पहले था.
राजनीति सदैव से समाज के हर वर्ग को आकर्षित –अचंभित करती आई है. इमरजेंसी के दौर ने न केवल राजनीति, प्रशासनिक हलकों में उथल-पुथल मचाया, बल्कि आम लोगों की जिंदगी और उनके भविष्य भी अछूता नहीं रहने दिया. उपन्यास इमरजेंसी के दौर में एक परिवार के कहानी पर केंद्रित है लेकिन इमरजेंसी के दौर की घटनाएं, इस परिवार की पारिवारिक घटनाओं के समानांतर चलती रहती है.... चाहे वह बड़ी दादी के दसवां के दिन कुछ आंदोलनकारियों द्वारा मुर्दा बन गाड़ी लेकर दिल्ली जाने का प्रयास हो या फिर इंदिरा गांधी के तानाशाही रवैये और फैसलों को साहसी मानने का मध्यवर्गीय सोच वाली सुनयना हो या फिर इंदिरा द्वारा उत्पन्न किये गये व्यवधान को दूर करने के लिए नेतृत्व करते जेपी हों, जो नंदू की भी हर समस्या को दूर कर उसे कठिन परिस्थितियों से उबार लेते हैं. इसी ताने-बाने के बीच सुनयना इंदिरा बनना चाहती है तो नंदू के लिए जेपी आदर्श बन जाते हैं. लेकिन दीवार पर लिखे दो शब्द – सुनयना और अनूप, नंदू के दिल दिमाग पर ऐसे चस्पा हो गये हैं कि भविष्य में व रोमा-आनंद के नाम के कल्पना मात्र से घबड़ा जाता है औऱ इस कठिन परिस्थिति में भी जेपी की सीख उसे उबरने की ताकत देती है और हकीकत आनंद-मनप्रीत के रूप में सामने तो आती है लेकिन यह दीवार पर कहीं टंगा नहीं होता. कोई भी घटना जब इतिहास बनती है, तो अपने पीछे दास्तानों की एक लंबी श्रृखला छोड़ जाती है..... इमरजेंसी ऐसी ही राजनीतिक और इतिहास का दौर था.... लेखक ने इस उपन्यास के सहारे इतिहास और साहित्य दोनों का सृजन किया है, वह भी संतुलन बरकरार रखते हुए. उपन्यास में संयुक्त परिवार के जीवन संघर्ष है तो वहीं एक मध्यवर्गीय परिवार की अपनी जदोजहद भी है और इन्हीं संघर्षों और जद्दोजहद के बीच, राजनीतिक उथल-पुथल के बीच अपने लिए आदर्श तथा प्रेरणा चुनते सुनयना और नंदू जैसे किरदार भी हैं, जो एक जीवंत समाज की घड़कन को दर्शाते हैं. कुल मिला कर उपन्यास ‘एक लड़की और इंदिरा गांधी’ न केवल पठनीय है बल्कि यह ऐतिहासिक और साहित्यिक आख्यान का दस्तावेज भी है.
पुस्तक का नामः एक लड़की और इंदिरा गांधी
लेखकः संजय सिन्हा
प्रकाशकः आईवीनिब कम्यूनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड
कीमतः 345/- रुपये मात्र
पेजः 187