कोलकाता की ठंडी होती रविवार की शाम ने कल एक अनोखा दृश्य देखा—जब रंगकर्मी ने उषा गांगुली मंच पर एंतोन चेखव की अमर कृति “तीन बहने” को जीवन-श्वासों की नई लय से भर दिया। अभिनय की दुनिया में उभरते नवांकुरों को तराशने और उन्हें मंच का आत्मविश्वास देने की दिशा में रंगकर्मी की पहल ‘रॉ रिहर्सल’ ने इस प्रस्तुति को केवल नाटक नहीं रहने दिया—यह मानवीय लिप्सा, टूटती उम्मीदों और समय के धीमे बहाव का ऐसा पारदर्शी दर्पण बन गया, जिसमें दर्शक स्वयं का प्रतिबिंब देखते-देखते भीतर तक उतरते चले गए।
धीमी पर गहरी लय में बहता मंचन
अनिरुद्ध सरकार के संयमित और सूक्ष्म निर्देशन में नाटक किसी धीमी धुन-सा आगे बढ़ा—मानो किसी दूरस्थ स्टेशन पर रुकी हुई पुरानी ट्रेन, जिसकी खिड़कियों से टिमटिमाती रोशनियां उम्मीद और इंतज़ार दोनों को एक साथ बयान कर रही हों।
ओल्गा, माशा और इरीना—तीन बहनें—अपने ही धूसर जीवन के गलियारों में आकांक्षाओं को थामने की जद्दोजहद में खोती-बिखरती रहीं। उनका मॉस्को लौटने का साझा स्वप्न किसी दूर दिखाई देने वाले तारे-सा था—सुंदर, उजला, पर पकड़ में न आने वाला।
अभिनय—जो शब्दों से आगे का संसार रचता है
ओल्गा के रूप में मिलन कुमारी पांडा ने संयम, थकान और भीतर टूटते साहस को ऐसी निपुणता से जिया कि उनके चेहरे की हर झिलमिलाहट कहानी बनने लगी। तो श्रृष्टि शुक्ला की माशा—अधूरी प्रेमकथा से उपजा विद्रोह, भीतर पलता तूफ़ान, और चेहरे पर बसी निश्छल पीड़ा—उन्होंने मंच की धड़कनों को मानो अपने भीतर पिरो लिया। जबकि ऋतिका अग्रवाल की इरीना में सपनों की निष्कपट चमक और जीवन की कठोर सच्चाइयों के बीच का संघर्ष अत्यंत सजीव हो उठा—उनका हर भाव एक नई परत खोलता गया। अन्य कलाकार— श्रीश दत्ता (आंद्रे), दीपान्विता सरकार (नताशा), अरिंदम सिंह (सोल्योनी), राज रॉय (शेबुतिकिन), वर्धनम डागा (तुझेन्बाख)—सभी ने चेखव के संसार को इतनी सहजता से जीवंत किया कि लगा मानो दर्शक-दीर्घा और मंच के बीच की दूरी समाप्त ही हो गई हो।
विशेष उल्लेखनीय अभिनय रहा ऊर्जास प्रत्युष का, जिन्होंने फिदौतिक के भूमिका में उस क्षण को—जब उनके जीवन की सारी संपदा आग में जलकर राख हो जाती है—इतनी मार्मिकता से रचा कि दर्शकों की सांसें वहीं थम-सी गईं। उनकी बदहवासी और हताशा मंच पर नहीं, दर्शकों के मन में उतरती चली गई।
वहीं समीर अली, रुद्रनील पैक, शुभम तिग्रानिया और अन्य कलाकारों ने अपने छोटे किंतु महत्वपूर्ण पात्रों से नाटक की बुनावट को और दृढ़ किया—मानो हर तंतु अपनी जगह पर चमकता हुआ।