सोशल मीडिया की आभाषी दुनिया की भी रवायत वास्तविक दुनिया के ही बरअक्स होती है. एक उदासी सा माहौल, शोक, संवेदना और अतीत की यादों में डूबी यह दुनिया अपने अग्रेजी मीडियम के नायक के अब ना होने की स्याह खबर से दुःखी थी. इरफान खान 54 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गये.
सिनेमा के रूपहले पर्दे पर उनके द्वारा बोला गया पहला डॉयलॉग था – बस बस 10 लाइन हो गया. यह फिल्म थी सलाम बॉम्बे. जिसे 1988 में मीरा नायर ने बनाया था और इसने दुनिया में धूम मचायी थी, लेकिन यह डॉयलाग बोलने वाले 18-20 साल के उस अदाकार पर तब शायद किसी ने ध्यान नहीं दिया था. वह दृश्य था - सड़क किनारे बैठकर लोगों की चिट्टियाँ लिखने वाले एक लड़के का. इरफान ने तब ही कहा था- बस –बस 10 लाइन. लेकिन इरफान अपनी जिंदगी की लड़ाई भी दस लाइनों से कम में ही खत्म कर दी. उन्होंने अपनी बीमारी से जूझते हुए 2018 में ही कहा था- उन्हें यकींन हो गया है कि वे जिंदगी हार चुके हैं, लेकिन वह लड़ते रहे और लड़ते रहे और आखिर तक लड़ते रहे, जब तक कि जिंदगी ने साथ ना छोड़ा.
1967 में जयपुर में जन्मे इरफ़ान ख़ान का बचपन एक छोटे से क़स्बे टोंक में गुज़रा. शहर छोटा था पर सपने बड़े थे. नसीरुद्दीन शाह की फ़िल्में देखकर इरफान का झुकाव सिनेमा की ओर हुआ था. राज्य सभा टीवी को दिए एक इंटरव्यू में लड़कपन का एक क़िस्सा सुनाते हुए इरफ़ान ने बताया था, "मिथुन चक्रवर्ती की फ़िल्म मृग्या आई थी. तो किसी ने कहा तेरा चेहरा मिथुन से मिलता है. बस अपने को लगा कि मैं भी फ़िल्मों में काम कर सकता हूँ. कई दिनों तक मैं मिथुन जैसा हेयरस्टाइल बनाकर घूमता रहा."
लेकिन आगे चलकर यही इरफ़ान ख़ुद एक ट्रेंडसेटर बन गये. एक ओर जहाँ उन्होंने ख़ुद को हिंदी सिनेमा के सबसे प्रतिभावान एक्टर्स की लिस्ट में स्थापित किया वहीं हॉलीवुड में लाइफ़ ऑफ़ पाई, द नेमसेक, द स्लमडॉग मिलियनेयर, द माइटी हार्ट, द अमेज़िंग स्पाइडरमैन जैसी फ़िल्में की. इरफ़ान अपने आप में प्रतिभा की खान थे - ख़ासकर शाहरुख़, आमिर और सलमान- तीनों ख़ानों से घिरे बॉलीवुड में.
चाहे आँखों से अभिनय करने की उनकी अदा हो, संवाद बोलने की अपनी सहजता, रोमाटिंक रोल से लेकर बीहड़ का डाकू बनने की उनकी क्षमता- ऐसा ख़ूबसूरत तालमेल कम ही देखने को मिलता है.
पान सिंह तोमर में डकैत का रोल और उसमें जिस तरह वो मासूमियत, भोलेपन, दर्द, तिरस्कार और बग़ावत का पुट एक साथ लेकर लाते हैं.
जब सिस्टम से हताश और बंदूक़ उठा चुका पान सिंह बोलता है कि बीहड़ में बाग़ी होते हैं, डकैत तो मिलते हैं पार्लियामेंट में... तो थिएटर में पड़ने वाली ताली सिर्फ़ इस संवाद पर नहीं थी, अपनी एक्टिंग से इरफ़ान हमें ये यक़ीन दिलाते हैं कि उन्हीं की बात सही है. 2012 में इस फ़िल्म के लिए इरफ़ान ख़ान को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.
या फिर हैदर में कश्मीर में रूहदार का वो रोल जो कहता है- झेलम भी मैं, चिनार भी मैं, शिया भी मैं, सुन्नी भी मैं और पंडित भी. वो असल में है और आपकी हमारी ही ज़मीर की आवाज़ है.
जब फ़िल्म जज़्बा में वो ऐश्वर्या से कहते हैं कि 'मोहब्बत है इसीलिए तो जाने दिया, ज़िद्द होती तो बाहों में होती' तो आपको यक़ीन होता है कि इससे दिलकश आशिक़ी हो ही नहीं सकती.
कहने का मतलब कि इरफ़ान ख़ान की ख़ासियत यही थी कि जिस रोल में वो पर्दे पर दिखते रहे, सिनेमा में बैठी जनता को लगता रहा कि इससे बेहतर इस किरदार को कोई कर ही नहीं सकता था. ऐसी इंडस्ट्री में जहाँ टाइपकास्ट हो जाना या कर दिया जाना एक नियम सा है, इरफ़ान उन सारे नियमों को तोड़ते रहे.
कामयाबी की इस चमक के पीछे सालों की गुमनामी, संघर्ष और टीवी पर छोटे-मोटे रोल करने का संघर्ष रहा. कई दूसरे लोगों के तरह नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा (एनएसडी) में पढ़ाई के बाद उन्होंने मुंबई का रुख़ किया लेकिन वहाँ फ़िल्मों में छोटे मोटे रोल के अलावा उन्हें कुछ नहीं मिला.
एक डॉक्टर की मौत और कमला की मौत में वो पंकज कपूर के साथ छोटे से रोल में थे. साथ-साथ वो टीवी पर काम करने लगे. जिन लोगों को याद हो वो कहकशां, लाल घास पे नीले घोड़े, भारत एक खोज, बनेगी अपनी बात, में दिखे.
लोगों ने उन्हें शायद टीवी के पर्दे पर नोटिस किया हो चंद्रकांता में बद्रीनाथ के रोल में.
लेकिन ये कहना ग़लत नहीं होगा कि उनके हुनर को पहचानने का काम अंग्रेज़ी फ़िल्मकार आसिफ़ कपाड़िया ने किया 2001 की फ़िल्म वॉरियर में जो बाफ़्टा तक गई.
स्लमडॉग मिलियनेयर में उनका रोल बहुत बड़ा नहीं था पर उन्होंने कहा था- कभी-कभी कोई रोल आप इसलिए करते हैं कि क्योंकि आपको पता है कि ये आपको बहुत कुछ सिखाकर जाने वाला है.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी उनका क़द कितना ऊँचा है कि इसका ज़िक्र असीम छोबड़ा की लिखी किताब -इरफ़ान ख़ान द मैन, द ड्रीमर में मिलता है. हुआ कुछ यूँ कि जब 2010 में इरफ़ान ख़ान न्यूयॉर्क में एक रेस्तरां में थे और सामने वाली टेबल उन्होंने हॉलीवुड एक्टर मार्क रफलो को देखा.
इरफ़ान एक फ़ैन की तरह उनसे मिलना चाहते थे पर झिझक रहे थे क्योंकि वो बहुत बड़ा नाम थे. इतने में मार्क ख़ुद सीट से उठकर आए और इरफ़ान से बोले मैंने आपका काम देखा है स्लमडॉग में और बहुत उम्दा काम किया!
अजीब इत्तेफ़ाक़ है कि जब नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ ड्रामा में इरफ़ान पढ़ाई कर रहे थे तभी उन्हें उनकी पहली अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म मिल गई थी. मीरा नायर ने उन्हें सलाम बॉम्बे में एक बड़े रोल के लिए चुना, वो बॉम्बे आकर वर्कशॉप में शामिल हुए और दो दिन पहले उनसे कहा गया कि वो फ़िल्म का हिस्सा नहीं हैं. वो रात भर रोते रहे. बदले में उन्हें छोटा से रोल दे दिया गया. लेकिन इसका क़र्ज़ मीरा नायर ने 18 साल बाद इरफ़ान ख़ान को द नेमसेक में अशोक गांगुली का रोल देकर चुकाया.
इस रोल को देखकर शर्मिला टैगोर ने इरफ़ान ख़ान को मैसेज किया था- अपने माँ-बाप को शुक्रिया कहना आपको जन्म देने के लिए.
इत्तेफ़ाक़ है कि तीन दिन पहले ही उन्हें जन्म देने वाली माँ सईदा बेगम की मौत हो गई और अब इरफ़ान भी अलविदा कह गए.
उनकी आख़िरी फ़िल्म 'अंग्रेज़ी मीडियम' जो पिछले महीने ही रिलीज़ हुई है. राजस्थान के एक छोटे से क़स्बे के रहने वाले चंपक बंसल (इरफ़ान) और उसके सपनों की कहानी- बिल्कुल इरफान के असल ज़िंदगी की तरह है.
हिंदी सिनेमा और दुनिया के सिनेमा को अपने अभिनय से सजाने संवारने वाले, अपनी फ़िल्मों से ये बताने वाले कि हर जज़्बात ग़लत या सही, ब्लैक या व्हाइट नहीं होता.. इनके बीच के महीन फ़र्क़ को समझाने वाले, दर्शकों को सैकड़ों बार हंसाने और रुलाने वाले... इरफ़ान को वाक़ई तहेदिल से शुक्रिया.