परिवार एक स्थायी एवं सार्वभौमिक संस्था है,परन्तु प्रत्येक स्थान पर इसके स्वरूप में भिन्नता पायी जाती है जैेसा कि भारतीय गांवों में संयुक्त परिवार या एकल परिवार की. निश्चिततौर पर परिवार के अभाव में हम समाज की कल्पना नहीं कर सकते हैं. एकल परिवारों का सिद्धांत प्रायः कुछ दशक पहले ही जन-समुदाय में तीव्रता के साथ मुखर हुआ है,अगर आजादी से पहले और आजादी के कुछ दशक बाद के समय पर नजर डाला जाए तो पता चलेगा कि भारतीय परिवारों की संरचना एक आदर्श रूप में थी, जैसे ही औद्योगीकरण का युग आगे बढ़ता गया,वैसे ही एकल परिवारों की संख्या भी दिनों दिन बढ़ती चली गई. प्रायः संयुक्त परिवार में सभी परिवारिक सदस्य मिलकर ही रहते हैं और घर के समस्त कार्यों में सम्मिलित रूप से सहयोग करते हैं, साथ ही सम्मिलित उत्पादन और सम्मिलित उपभोग भी करते हैं, यही एक आदर्श परिवार की अवधारणा भी है.
भारत सरकार की हाल ही मे जारी आकलन रिपोर्ट के अनुसार बर्ष 2001 की जनगणना में कुल परिवारों की संख्या 19.31 करोड़ थी,इनमें से 9.98 करोड़ यानी 51.7 प्रतिशत एकल परिवार थे. बर्ष 2011 में यह अनुपात बढ़कर 52.1 प्रतिशत तक पहुंच गया और एकल परिवारों की संख्या बढ़कर 12.97 हो गई. बर्ष 2011 में देश में कुल परिवारों की संख्या 24.88 करोड़ हो गई थी. ऐसे आई गिरावट, 2001 में शहरी एकल परिवार 54.3 प्रतिशत थे, जो अब महज 52.3 प्रतिशत रह गए हैं. इसके विपरीत ग्रामीण इलाकों में एकल परिवारों की संख्या 50.7 प्रतिशत से बढ़कर 52.1 प्रतिशत हो गई. इस बीच संयुक्त परिवारों में यह गिरावट 19.1 प्रतिशत से 16.1 प्रतिशत दर्ज की गई. इंडियन इंस्टिट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंस के एक वरिष्ठ समाजशास्त्री के अनुसार शहरी इलाकों में आने वाले अधिकांश लेबर क्लास लोगों को एक साथ रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है,जबकि ग्रामीण इलाकों में संयुक्त परिवारों को टूटना सामाजीकरण की एक सामान्य सी प्रक्रिया है. प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ,आखिर क्यों लगातार एकल परिवारों की संख्या तीव्र गति से बढ़ते जा रहे हैं ? वर्ष 1990 के बाद वैश्वीकरण का प्रभाव समाज पर विशेष रूप से पडा़ है, साथ ही शहरीकरण के बढ़ने के कारण एकल परिवार बनते गए लेकिन यह कहना गलत नही होगा कि शहरीकरण से एकल परिवार का ज्यादा जन्म नहीं हुआ है,संयुक्त परिवार के टूटने के पीछे समाजशास्त्रियों का मानना है कि पुरुष प्रधान समाज आज भी अपनी पारंपरिक मानसिकता से ऊपर नहीं उठ सका है और महिलाओं को दोयम दर्जे का इंसान ही मानता आ रहा है.
सीमोन दबोबा ने अपने पुस्तक "द सेकंण्ड सेक्स" में ठीक ही कहा है कि महिला पैदा नही होती बल्कि समाज मे उसका निर्माण होता है,अर्थात् सामाजिक मानसिकता ही उसे महिला बनाता है,इसीलिए पुरुष समाज आज भी अपनी प्रधानता का झूठा दंभ भरता नजर आ रहा है, वह महिलाओं को बराबरी का दर्जा प्रदान नहीं कर पा रहा है. आज पति और पत्नी के झगड़े इसी बाबत लगातार संयुक्त परिवार पर प्रहार करते जा रहे हैं, स्त्री और पुरुष के बीच स्पेस का न होना और बच्चों का सामाजिकरण से दूर जाना ही, एकल परिवार को निर्मित करता है.
लिहाजा, महिला सशक्तिकरण का दौर जब से अपनी गति पकड़ा है,एकल परिवार में भरपूर वृद्धि हुई है, प्रायः सशक्तिकरण का अर्थ आज एक खुलापन तथा अपनी मर्यादाओं को ताक पर रखकर पुरुषों की बराबरी करना माना जा रहा है, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि सशक्तिकरण का अर्थ महिलाओं को आर्थिक मजबूती प्रदान करने के साथ उनको शिक्षा स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराना है और एक गरिमापूर्ण जीवन प्रदान करना है जिससे वो अपने निर्णय स्वय ले सके और वे अपने परिवार को सुगठित कर सदैव स्थाई बनाए रख सकें. सशक्तिकरण का अर्थ स्त्री की तुलना पुरुष और पुरुष की तुलना स्त्री से कदापि नहीं है क्योंकि दोनों की अपनी अलग-अलग सीमाएं निर्धारित की गई है, संयुक्त परिवारों के नष्ट होने का एक प्रमुख कारण यह है कि आज कोई भी व्यक्ति रच मात्र का भी त्याग करना नहीं चाहता है,सभी प्राप्ति की इच्छा से लबालब रहते हैं.
उत्तर आधुनिक युग में त्याग की भावना विलुप्त सी हो गई है,इसी कारण से भाई- भाई तथा पिता-पुत्र और सास-बहु ,पति-पत्नी के बीच क्लेश का भाव रहता हैे,जिसमे पारिवारिक सदस्य संयुक्त रूप से नहीं रह पाते हैं और अपनी अलग-अलग कुटी बनाकर रहना उचित समझते हैं. आज हम उत्तरआधुनिक युग की पराकाष्ठा पर जा पहुंचे हैं. महान उत्तरआधुनिक चिंतकों ज्ञां बोड्रिलार्ड,जैमेसन,जैक्स देरिदा,मिशेल फूको आदि सब ने यही कहा है कि आज का युग पूर्णतः उपभोक्तावादी युग है जिसमें दिखावा,सौंदर्य तथा एमिटेशन, झूठ बिकता है तथा जहां मनुष्य स्वभाव से सुखवादी और उपभोक्तावादी होता है,अतः वह सुख की प्राप्ति हेतु धन को अधिक से अधिक अर्जित करने में वह अनैतिकता का मार्ग तैयार कर लेता है और वह अपना समय परिवार के लिए रच मात्र भी नहीं निकाल पाता. इस कारण पारिवारिक संपर्क से दूरी होने के कारण पारिवारिक एकता प्रभावित होती रहती है.
आज संयुक्त परिवार अपनी अंतिम अवस्था की प्राप्ति का इंतजार कर रहा है, समाज में एक बहुत ही रहस्यमय परंपरा चली आ रही है,जैसा कि सास और बहू का संबंध है, ये आज भी इस कदर नहीं स्थापित हो सके हैं कि संयुक्त परिवार को मजबूती प्रदान किया जा सके. आज भी सास अपनी बहू को बेटी का स्थान नहीं दे सकी है और बहू भी अपनी सास को मां का स्थान देने में असमर्थता ही जाहिर कर रही है, यहां स्थान से तात्पर्य ममता और प्रेम से है. सास को चाहिए कि वह अपने बहु को बेटी जैसा ही स्नेह प्रदान करें साथ ही बहु रूप में स्वीकार न कर बेटी रूप में स्वीकार करना उचित समझना चाहिए तो वहीं बेटी को चाहिए कि अपने सास और श्वसुर को मां-बाप की तरह ही अपना ले. इस प्रकार परिवार, एक सुंदर संयुक्त परिवार बन जाएगा, इसी बाबत हिंदी फिल्मों में भी सास-बहू का रिश्ता मां और बेटी के रूप में दिखाया जाता है, यहां तक कि एक धारावाहिक भी चलाया गया था जो कि "सास भी कभी बहू थी" यह सब मानसिकता को बदलने बाबत और संयुक्त परिवार की मजबूती के लिए प्रयास किया जा रहा था.
संयुक्त परिवार को बचाने के लिए स्त्री की भूमिका को सुधारना होगा. जब तक स्त्री की भूमिका का सुधार नहीं होगा, तब तक संयुक्त परिवार घट़ता ही रहेगा. सर्वप्रथम स्त्री के विवाह के बाद उसका नए वातावरण में स्वागत होना अनिवार्य करना चाहिए,यहां तक कि यह स्वागत मात्र दो-चार दिन तक सीमित रहने से कुछ नहीं होगा, यह स्वागत जीवन पर्यंत चलना चाहिए क्योंकि पति ने अपना घर नहीं छोड़ा है बल्कि पत्नी को अपना घर छोड़ना पड़ा है और वह दूसरे घर को अपनाती है. इस प्रकार पति-पत्नी मिलकर एक गृहस्ती बनाते हैं तथा स्त्री सम्मान से ही संयुक्त परिवार जीवित रह सकेंगे. आज संयुक्त परिवार में देखा जाता है कि आपसी उदासीनता और महिलाओं के कार्यों को तरजीह न देना तथा पुरुषों का अपना कार्य को ही सर्वोत्तम और सर्वोत्कृष्ट बताना, यह महिलाओं की उपेक्षा को दर्शाता है. पुरुष और महिलाओं के कार्यों की तुलना नहीं की जा सकती है, महिलाओं को गृहस्वामीनी इसीलिए कहा जाता है, क्योंकि वह अपने परिवार और घर को बड़े ही सरलता से चलाती रही है. लेकिन पुरुष मानसिकता महिलाओं को सम्मान देने की बजाय अपने कार्यों की तुलना कर झूठा दंभ का प्रदर्शन करना रहा है , तो वही दूसरी ओर जहां महिलाएं कामकाजी होती है वहां तो उनको प्रायः दो कार्यों को निपटाना होता है, एक तो,बाहर कार्यस्थल पर, दूसरा ,घर का कार्य भार. अगर घर में पारिवारिक सहयोग नहीं मिलेगा तो संयुक्त परिवार का खंडन होना तो तय है इसलिए आवश्यकता है कि पुरुष को प्रधानता बाली मानसिकता का तिलांजलि देकर महिलाओं के कार्यों का सम्मान और सहयोग करना उचित होगा. परंपराओं की बेड़ियों में जकड़े रहना उचित नहीं है परंपराओं का आधुनिकीकरण करना अत्यावश्यक है,तभी वास्तव में बढ़ते एकल परिवार पर रोक लगाया जा सकेगा. संयुक्त परिवार के टूटने का अंतिम प्रमुख कारण आज समाज में हो रही वुजुर्गो की उपेक्षा भी है,दिन-प्रतिदिन के बदलते परिदृश्य में लोग अपनी विरासत को संभालने में असफल प्रतीत हो रहे हैं, प्रखर समाजशास्त्रियों का मानना है कि बुजुर्गों की उपेक्षा कर मनुष्य आज संयुक्त परिवार से अलग हो रहा है. बुजुर्गों के न रहने से सामाजिक मूल्य के अस्तित्व तितर -वितर होते जा रहे हैं. इस कारण उनका संयुक्त परिवार में रह पाना मुनासिब नहीं हो पा रहा है और एकल परिवार की संख्या लगातार बढ़ते जा रहे हैं,आज प्रत्येक मनुष्य प्राप्ति का ग्राहक है उसके जीवन से त्याग विलुप्त हो चुका है, वह अधिक से अधिक प्राप्त करना चाहता है,आज मनुष्य की अपनी ख्वाहिशे पूरी करने की तमन्ना एकल परिवार को बढ़ावा देती चली जा रही है. आज संयुक्त परिवार के बिखरने से न केवल बच्चों से दादी-दादा का प्यार दूर हो रहा है बल्कि बच्चों को हम संस्कारों से भी विमुख करते जा रहे हैं.
अगर कुछ दशक पहले की रिपोर्ट देखी जाए तो एकल परिवार न के बराबर थे लेकिन आज वर्ष 2019 में एकल परिवारों की संख्या इतनी अधिक बढ़ चुकी है कि मानो समाज से संयुक्त परिवार का तमगा ही छीन गया हो,उत्तर उदारीकरण के साथ ही समाज में इतनी तीव्र गति से बिखराव प्रारंभ हुआ,जिसका कारण लोगों का परिवार के साथ समय का न व्यतीत कर पाना भी है. साथ ही परिवार में सुख-दुख में साथ न दे पाना. आज संयुक्त परिवार के साथ, उत्तरउदारीकरण के समय में कदमताल कर पाना असंभव प्रतीत होने के कारण लोग एकल परिवार का रुख अख्तियार करना ज्यादा पसंद कर रहे हैं. महिलाओं की सुरक्षा के लिए आज उनको उचित स्थान दिलाने के लिए महिला मोर्चा संगठन तथा महिलाओं के विविध स्वरुप की आवश्यकता क्यों पड़ रही है. इस बात पर समाज को आवश्यक विचार करना चाहिए,साथ ही इस बात पर विचार करना चाहिए कि आखिर हम क्यों स्त्री को मनुष्य के रूप में स्वीकार नही कर पा रहे है?
नतीजतन, अगर बढ़ते एकल परिवारों की संख्या में कमी लाना है तो कुछ विशेष बातो पर अमल करने की दरकार होगी. सर्वप्रथम आज सुख के स्थान पर आनंद को तरजीह देना होगा. साथ ही, घर के सभी सदस्य एक-दूसरे से हर तरह के विषयों पर शांतिपूर्ण तरीके से वार्तालाप पर अधिक ध्यान देना होगा तथा परिवार के किसी भी सदस्य पर अपने विचारों को न थोपने पर भी ध्यान देना होगा. घर परिवार में खुशी का माहौल रहे इस बाबत सभी को अपने स्तर पर प्रयास करना होगा, घर की अर्थव्यवस्था में सभी एक-दूसरे का बराबर सहयोग करना और कुल की परंपरा, रिवाजों को सह्रदयता से पालन करना होगा, संपत्ति और पूंजी का सभी पारिवारिक सदस्यों में बराबर का अधिकार समझना होगा,तभी वास्तव में बढ़ते एकल परिवारों की संख्या मे कमी लाया जा सकेगा.