अपने अपने राम
संदीप कुमार
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15 Oct 2020 |
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राम सबके हैं और सब राम के हैं यह कोई राजनीतिक बयान नहीं है. इसके पीछे एक लंबा इतिहास और परंपरा है. जहां राम आपको अलग अलग रूप और चरित्र में दिखाई देते हैं. ऋषि मुनियों ,संत महात्माओं ,कवि महाकवियों से लेकर वर्तमान दौर में राजनेताओं तक ने सबने अपने अपने हिसाब से "राम को साधा है. राम सबको जोड़ते हैं ,इसीलिए राम सबको अपने से लगते हैं. वर्तमान में जो राम बताये या दिखाए जा रहे हैं ,क्या राम सिर्फ यही हैं ? शायद नहीं ! हम किस राम को चित्रित कर रहे हैं और अपनी वर्तमान तथा भावी पीढ़ी के लिए कौन सा राम देना चाहेंगे ,सोचने की नितांत आवश्यकता है."राम सबके हैं कि शुरुआत अगर हम ऋषि वाल्मीकि के ‘रामायण’ ग्रंथ से करें तो उनका एक रूप हमें दिखाई देता है. यदि वाल्मीकि के लिखे दूसरे ग्रन्थ ‘योगवसिष्ठ’ को देखें तो वहां राम दूसरे रूप में दिखाई पड़ते हैं. राम के ये रूप गोस्वामी तुलसी दास की चौपाई हरि अनंत हरि कथा अनंता ,कहहिं सुनहीं बहु विधि सब संता या जाँकि रहे भावना जैसी ,प्रभु मूरत देखि तिन्ह तैसी ".आधुनिक या टेलीविजन के दौर में जब रामानंद सागर इन्हीं राम के चरित्र को "रामायण धारावाहिक में पिरो रहे थे , बार बार ,राम पर लिखे विविध ग्रंथों की बात कही थी ,लेकिन वह धारावाहिक वाल्मीकि और तुलसी दास की रामायण और राम चरित मानस की सीमाओं में बंधकर ही दिखाई दिया. राम को आधार बनाकर करीब 1000 से अधिक ग्रन्थ विविध भाषाओं में लिखे जा चुके हैं. दक्षिण भारत में महाकवि कम्बन द्वारा रचित ‘कम्बन रामायणम’ में वे ईश्वरीय अवतार हैं तो उत्तर भारत में गोस्वामी तुलसी दास की रामचरित मानस में मर्यादा पुरुषोत्तम ,घर-घर का बड़ा और आज्ञाकारी बेटा, आदर्श राजा और आदर्श पति बन गए.1800 ईसवीं के आस-पास उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के मुल्ला मसीह ने फारसी भाषा में करीब 5000 छंदों में रामायण को छंदबद्ध किया. पुराणों में भी राम को लेकर अलग-अलग कथाएं लिखी गयी हैं. आनंद रामायण (1600 ईसवीं) और संगीत रघुनन्दन जैसी रामकथाएं भी अस्तित्व में आती हैं, जिनमें विवाह के पूर्व ही राम रासलीला हुए करते दिखाई देते हैं.जैन संप्रदाय के ग्रंथ ‘पउमचरियं’ में तो ऐसी रामकथा आती है जहां राम की आठ हज़ार और लक्ष्मण की 16000 पत्नियां बताई जाती हैं. लक्ष्मणाध्वरि जैसे 17वीं सदी के श्रृंगारिक कवि ‘रामविहारकाव्यम्’ के 11वें सर्ग में राम-सीता की जलक्रीड़ा और मदिरापान तक का वर्णन करने लगते हैं. इसी तरह आधुनिक युग में हम नए राम को रच रहे हैं.
पौराणिक कथाओं जिनमें बहुतों का कोई आधार नहीं है के अंधानुकरण, ऐतिहासीकरण और राजनीतिकरण का ऐसा दौर शुरू हो गया है कि राम और रामकथा का पूरा स्वरूप ही बदला बदला नजर आने लगा है.सीता की अग्निपरीक्षा लेने और लोकोपवाद के चलते उनका त्याग करने वाले राम नारी वादियों को खटकते हैं ,शंबूक शूद्र का कथित वध करने वाले राम वामपंथियों और दलित चिंतकों को नहीं भाते . हिंदू वादी राजनीति के दौर में अचानक ही राम को ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का राजनीतिक प्रतीक बना दिया गया. राम भारत की आत्मा हैं ,और शायद यही वजह है कि आस्था ही नहीं सामाजिक ,राजनीतिक और संघर्ष के दौर में भी "राम याद किये गए हैं - जय श्रीराम ", "राम राम या सीता राम" जैसे नारे देश की अनेक परिस्थितियों को दर्शाते हैं . सामंतवादी व्यवस्था से टकराव के रूप में राम राम आम आदमी द्वारा आम आदमी को अभिवादन के रूप में प्रचलित हुआ तो , जमींदारी प्रथा के खिलाफ संघर्ष का नारा देने के लिए अवध में सीता राम का नारा गूंजा जिसने जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी को वहां लाकर खड़ा कर दिया.अयोध्या में "राम जन्म भूमि पर मंदिर निर्माण के भूमि पूजन का उत्सव जो हुआ वह भी ऐसा ही एक सन्दर्भ है जो आने वाले समय में किस रूप में भुनाया जाएगा यह हमें देखना है. ऐसे में राजनीति के राम और राम से जुड़े नारों की बारीकियों समझने की जरूरत बढ़ जाती है. बिहार, उत्तर प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक राम-राम को अभिवादन के रूप में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है. लेकिन इस अभिवादन का प्रयोग आम जनता एक दूसरे को अभिवादन करने के लिए करती रही है. सामंतों ,जमींदारों ,ब्राह्मणों को अभिवादन करने के लिए तब भी अलग शब्दों का प्रयोग होता था और आज भी वे शब्द सुने जाते हैं. चरण स्पर्श ,प्रणाम ,घणी खम्मा, हुकम, मालिक ऐसे कई शब्द हैं जो क्षत्रिय और ब्राहणों को अभिवादन के लिए प्रयोग किये जाते रहे हैं."राम राम का यह नारा हमारे समाज में तभी से ही वर्ग विभेद को दर्शाता आ रहा है. यह वर्ग विभेद ,कार्ल मार्क्स के वर्ग संघर्ष की अवधारणा लिखने से पहले भी भारतीय समाज में मौजूद रहा है. भक्ति काल में अनेक संतों कबीर, नानक और रैदास की वाणी में भी हमें ऐसे ही आत्माराम रूपी ‘राम’ के दर्शन होते हैं. उनके ग्रंथों ,रचनाओं में भी इसकी झलक दिखाई भी पड़ती है, लेकिन वह उतनी स्पष्ट नहीं जितनी मार्क्स ने सामाजिक या वैज्ञानिक अवधारणाओं से स्पष्ट की. हमारे देश में आज राजनीतिक पार्टियों द्वारा पिछड़ा वर्ग,अन्य पिछड़ा वर्ग, दलित, महा दलित का वर्गीकरण कर वोट बैंक बनाने की जो कवायदें की जा रही हैं, यदि देखें तो वर्षों पहले इस एक अभिवादन "राम राम में भी वही रूप दिखाई देता है. इस अभिवादन को कालांतर में सबने अपने अपने तरीके से साधने का उपक्रम किया और आज भी वे प्रयास जारी हैं.गांधी के "महात्मा बनने की कड़ी भी "राम से ही जुडी है. राजनीति में इस "राम नाम की महिमा की शुरुआत हम अवध के एक उदाहरण से ही करते हैं . अवध राम की जन्मभूमि और कर्मभूमि दोनों है और वे वहां के राजा थे और हर राजनीतिक पार्टी ,सत्ता में आने के बाद अपने शासन को "राम राज्य की तरह चलाने का दावा करती है.अवध की इसी भूमि से 1920 के आस पास एक किसान आंदोलन खड़ा हुआ था. यह आंदोलन जमीदारों या ठाकुरों के खिलाफ था जो किसानों से जबरिया और मनमानी लगान वसूलते थे. देश में कई किसान आंदोलन हुए लेकिन इस आंदोलन का जिक्र इसलिए किया जा रहा है कि ,इसमें किसानों को एकजुट करने के लिए जो नारा दिया गया था वह था "सीता राम. इस नारे ने "राम "की ताकत का एहसास न सिर्फ अवध के जमींदारों को कराया ,अपितु देश में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष कर रहे गांधी और नेहरू ने भी इसकी आवाज सुनी. यह वही अवध है जहां 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान भी किसानों ने अंग्रेजों की सत्ता ओर सेनाओं के खिलाफ जमकर संघर्ष किया था. किसानों के इस संघर्ष से डरे अंग्रेजों ने उक्त स्वतंत्रता संग्राम को विफल करने के बाद जमीदारों, तालुकेदारों, रजवाड़ों को अपना प्रशासनिक आधार बनाया और उन्हें किसानों से निपटने की खुली छूट दे दी.इसके बाद शुरु हुए दौर में ,भारी लगान, बेदखली, नजराने व हारी -बेगारी के साथ दमन व अपमान भी बढ़ा.जब गांधी देश में असहयोग आंदोलन की नीव रख रहे थे ,उस समय अवध में किसान आंदोलन की रणनीति बन रही थी.उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के रूरे ग्राम में ‘किसान सभा’ का गठन किया गया और नारा दिया गया "सीता राम ". बाबा रामचंद्र, जो महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण थे तथा फिजी में गुलाम भारतीय गिरमिटिया मजदूरों को संगठित कर उनके लिए संघर्ष करने का अनुभव लेकर भारत लौटे थे ने आंदोलन को नई धार दी.किसानों को एक सूत्र में पिरोने और इकठ्ठा करने के लिए सीताराम का नारा लगाया जाता था.इस नारे से यह स्पष्ट हो जाता था कि अब किसानों को इकठ्ठा होना है.एक गांव का किसान आवाज लगाता जो हर गांव के जरिए आगे बढ़ती जाती थी.यह नारा कुछ उसी तरह से गूंजता था जैसे राजस्थान के आदिवासी इलाकों में भीलों द्वारा ढोल बजाकर एक जुट होने का संकेत दिया जाता है.अकेले इस नारे से ही कुछ ही क्षणों में हजारों किसान इकठ्ठा हो जाते थे.इस नारे का प्रभाव ऐसा हुआ कि इलाहाबाद में बाबा रामचंदर से मिलने के बाद आंदोलन से प्रभावित होकर पंडित नेहरु पैदल रूरे गांव आए थे.यहां पर उन्होंने किसानों को संबोधित भी किया था.इस आंदोलन में ब्रिटिश सरकार का दमन चक्र भी चला ,लेकिन अंततः उन्हें अवध रेंट ऐक्ट-1868 में संशोधन करना पड़ा.भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जैसे जैसे गांधी की सक्रियता बढ़ी उन्होंने भी "राम को साधा और राम के साथ ईश्वर ,अल्लाह को जोड़कर इस दायरे में उस वर्ग को भी शामिल कर लिया जो हिन्दू नहीं थे ,लेकिन अंग्रेजों के खिलाफ संघर्षरत थे.राम ने गाँधी को नेता से महात्मा बना दिया.विभाजन के दौर में देश भर में हुए हिन्दू मुस्लिम दंगों या उसके बाद के धार्मिक दंगों में "राम कभी नारा नहीं बने.लेकिन अयोध्या में जब मंदिर निर्माण का आंदोलन शुरु हुआ तो राम फिर से एक नारे के रूप में प्रयोग किये गए.‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के नाम पर जब देश में नयी राजनीतिक जमीन तैयार करने का आंदोलन शुरु हुआ तो ,हिन्दू समाज को जागृत करने के लिए "जय श्रीराम का नारा चलन में आ गया.इस नारे ने "राम राम को ही नहीं बदला अपितु "राम की मर्यादा पुरुषोत्तम की छवि को धनुर्धर योद्धा के रूप में बदल दिया.वे राम ,अब लंका पर सेतु बनाने के लिए सागर की प्रार्थना करने की मुद्रा में नहीं धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाये ,उसके जल को सुखा देने वाली मुद्रा में आ गए.करुणामूर्ति और दयालु राम को भय बिन होत न प्रीत कहकर प्रचारित किया जाने लगा."राम अब श्रद्धा से ज्यादा संघर्ष औरआवेग के प्रतीक बन गए.इस नारे से कितना सांस्कृतिक उत्थान हुआ या हिन्दू समाज में किस प्रकार की जागृति आयी यह अलग विषय है.लेकिन एक बात जो स्पष्ट रूप से दिखाई देती है वह यह कि इसने हिन्दू मतदाताओं में ध्रुवीकरण का कार्य जरूर किया है.मतदाताओं का एक ऐसा वर्ग जरूर तैयार हुआ है जो अपने रोजगार ,बुनियादी सुविधाओं तथा अन्य मुद्दों से ज्यादा महत्व इस ध्रुवीकरण को देता है.आजादी के आंदोलन के दौर में राम का सहारा ,अंग्रेजों के खिलाफ ,आम आदमी के संघर्ष को एकजुट करने के लिए किया गया था.लेकिन अब एक अलग वर्ग निर्माण करने के लिए किया जा रहा है. इस रणनीति को अंजाम देने वालों के अपने तर्क हैं और उन तर्कों को वर्तमान की एक कहावत से बार बार जोड़ा जाता है (every thing fair in love and war ) या राजनीति में सबकुछ जायज है ! लेकिन ऐसा कहने वाले ऐतिहासिक ग्रन्थ "महाभारत की चौसर भूल जाते हैं ,जो सबकुछ जायज के फार्मूले पर चलकर महायुद्ध की मंजिल पर पंहुचा."जय श्रीराम के नारे ने देश में सत्ता के समीकरण बदल दिए.और देश के राजनेताओं को इस बात का एहसास अच्छी तरह से हो गया है कि ,"राम के बिना उनका कोई काम नहीं होने वाला है.और इस बात का नजारा राम मंदिर भूमि पूजन समारोह के दिन दिखा भी.जिन नेताओं को राम विरोधी कह कर राजनीतिक युद्ध के विपक्षी पाले में धकेला गया था ,सबने राम सबके हैं के रूपों का वर्णन किया.अयोध्या में राम मंदिर बन रहा है तो छत्तीसगढ़ सरकार ने उनकी माता कौशल्या जी के मंदिर निर्माण तथा राम वन गमन मार्ग के विकास की योजना घोषित कर दी.मध्य प्रदेश की सियासी जंग 15 साल बाद जीतने के बाद जब सत्ता की कमान कमलनाथ ने संभाली तो साधु-संतों का दिल जीतने के लिए प्रदेश में 'अध्यात्म विभाग' का गठन करने की घोषणा कर दी.इस विभाग में धर्म से जुड़े कामों, तीर्थ दर्शन, धार्मिक यात्रा और धार्मिक स्थलों का सौंदर्यीकरण जैसे कार्यों को मिला दिया.अयोध्या में राम मंदिर की तैयारियों के बीच कमलनाथ ,राम भक्त "हनुमान की साधना करने लगे. यानी कोई "राम को छोड़ने के मूड में नहीं दिखता और यह भी नहीं चाहता कि "राम के नाम पर जो ध्रुवीकरण 1990 और उसके बाद हुआ था वह अब किसी पार्टी विशेष की मक्तेदारी के लिए छोड़ दिया जाय.उस दौर में मंडल बनाम कमंडल की बात करने वाले नेताओं ने भी पाले बदल लिए.मंडल की वकालत करने वाले आज कई विशिष्ट नेता जिनको वे कमंडल वाला कहते थे के साथ बैठकर सत्ता का सुख भोग रहे हैं.दिल्ली में हुए विधानसभा चुनावों में जब भारतीय जनता पार्टी ने जय श्रीराम का नारा दिया तो अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी द्वारा "बजरंग बली की जय का नारा देकर उसका जवाब देना भी इस बात को दर्शाता है कि , कोई भी पार्टी अब धर्म निरपेक्ष की छवि का जोखिम नहीं उठाना चाहती.भारतीय जनता पार्टी आज सत्ता में बैठी है ,लिहाजा मंदिर निर्माण का सारा श्रेय वह अपने तक ही निहित रखना चाहती है. तो कांग्रेस की तरफ से यह सवाल भी उछाले गए कि ,राम जन्म भूमि से सम्बंधित सभी बड़े निर्णय तो राजीव गांधी की सरकार के दौर में हुए हैं.राम सबके हैं.तो फिर टकराव किस बात है ? दरअसल टकराव इसलिए है कि हम जैसे लोगों के बीच इस पर सहमति नहीं है.हम ,राम को अलग-अलग विरोधाभासी रूपों में बनाकर रखना ही चाहते हैं.तो नई पीढ़ियां उस राम को कैसे समझें ? धर्म, भक्ति, श्रद्धा और साहित्य से लेकर इतिहास और राजनीति तक हमने अपने अपने राम बाँट दिए.राजनीति को छोड़ हम जब तक राम को उनके चरित्र को समझने का प्रयास नहीं करेंगे ,विवादों का क्रम ऐसे ही चलता रहेगा.