यह तकनीक किसी विज्ञान कथा से कम नहीं लगती—बीजिंग की एक प्रयोगशाला में वैज्ञानिकों ने एक ऐसी चिप विकसित की है जो एक मधुमक्खी को दूर से नियंत्रित कर सकती है। बीजिंग इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी द्वारा विकसित यह उपकरण केवल 74 मिलीग्राम वज़नी है, और इसे मधुमक्खी की पीठ पर लगाया जाता है। तीन बाल जैसी पतली सुइयों के ज़रिए यह चिप मधुमक्खी के मस्तिष्क के ऑप्टिकल लोब में इलेक्ट्रॉनिक सिग्नल भेजती है, जिससे उसकी उड़ान को नियंत्रित किया जा सकता है। इसकी सफलता दर 90 प्रतिशत बताई गई है। लेकिन जब विज्ञान जीवित शरीरों को मशीनों से जोड़ने लगे, तो सवाल सिर्फ तकनीकी नहीं रह जाते—वे नैतिक और रणनीतिक भी हो जाते हैं।
सरकारी दस्तावेजों में इसे आपदा राहत और पर्यावरण निगरानी जैसी शांतिपूर्ण गतिविधियों के लिए कारगर बताया गया है। उदाहरण के लिए, भूकंप या इमारत गिरने जैसी परिस्थितियों में, जहां इंसानों या बड़े ड्रोन का पहुंचना मुश्किल हो, यह ‘साइबोर्ग’ मधुमक्खियाँ बचाव कार्यों में सहायता कर सकती हैं। उनकी प्राकृतिक संरचना और आकार उन्हें किसी भी दरार या छोटे स्थान में आसानी से प्रवेश करने योग्य बनाती है। 2014 में म्यांमार में इसी तरह के एक प्रयोग में साइबोर्ग तिलचट्टों का उपयोग किया गया था, लेकिन वे भारी और कम प्रभावी थे। अब यह तकनीक कहीं अधिक सटीक, हल्की और व्यावहारिक बन चुकी है।
खेती और पर्यावरण विज्ञान में भी इसका संभावित उपयोग काफी व्यापक है। वैज्ञानिकों का मानना है कि ये मधुमक्खियाँ प्रदूषण स्तर की निगरानी कर सकती हैं, पारिस्थितिक परिवर्तनों को ट्रैक कर सकती हैं, या फिर कृत्रिम परागण में मददगार साबित हो सकती हैं। अगर इनकी पीठ पर माइक्रो-सेंसर लगाए जाएँ, तो हर मधुमक्खी एक चलता-फिरता डेटा स्टेशन बन सकती है। ऐसे में पर्यावरण प्रबंधन और कृषि निगरानी में इनका योगदान अनमोल हो सकता है। लेकिन हर संभावना के साथ एक आशंका भी जुड़ी होती है।
सबसे बड़ा खतरा यह नहीं है कि यह तकनीक काम करती है—बल्कि यह है कि इसका उपयोग कैसे और किन उद्देश्यों के लिए किया जाएगा। शोधपत्र में ‘गोपनीय निगरानी’ (covert reconnaissance) का ज़िक्र किया गया है। चीन की सिविल-मिलिट्री फ्यूज़न नीति में यह एक सामान्य बात है कि जो तकनीक नागरिक उपयोग के लिए बनती है, उसे जल्दी ही सैन्य क्षेत्र में भी शामिल कर लिया जाता है। इन साइबोर्ग मधुमक्खियों को कैमरा, माइक्रोफोन या सेंसर से लैस कर खुफिया निगरानी में लगाया जा सकता है—खासकर शहरी संघर्षों, आतंकवाद रोधी अभियानों या सीमावर्ती इलाकों में। और चूंकि ये दिखने में एकदम सामान्य कीड़े लगते हैं, इन्हें पकड़ना या ट्रैक करना लगभग असंभव होगा। और फिर बात वहाँ पहुँचती है जहाँ यह तकनीक सबसे डरावनी हो सकती है—जैविक हथियारों के क्षेत्र में। भले ही अभी ऐसा कोई दावा नहीं किया गया हो, लेकिन चीन की सेना जैव प्रौद्योगिकी को एक ‘नए युद्धक्षेत्र’ के रूप में देखती है। यदि भविष्य में ये साइबोर्ग कीट विषाणु या जैविक रसायन ले जाने में सक्षम हो जाते हैं, तो इसका दुरुपयोग भयानक हो सकता है। अमेरिका पहले ही ‘ब्रेन-कंट्रोल’ हथियारों के शोध के लिए चीनी संस्थानों पर प्रतिबंध लगा चुका है।
नैतिकता का पहलू भी उतना ही गंभीर है। पहले से ही खतरे में चल रही मधुमक्खी आबादी पर इस तकनीक का असर क्या होगा? क्या उनके जीवन चक्र, प्रवृत्तियाँ और पारिस्थितिकी में हस्तक्षेप उनके अस्तित्व को और संकट में डाल देगा? और जब ये कीट निगरानी उपकरण बन जाएँ, तो व्यक्तिगत गोपनीयता का क्या होगा? क्या हम एक ऐसे युग में प्रवेश कर रहे हैं जहाँ हर कीड़ा एक जासूस बन सकता है?
दुनिया के अन्य देश भी यह सब देख रहे हैं। अमेरिका, जापान और सिंगापुर में भी इस दिशा में शोध हो रहा है, लेकिन चीन की सैन्य-नागरिक एकता नीति उसे गति और बढ़त देती है। अगर जल्दी ही कोई अंतरराष्ट्रीय मानक नहीं बनाए गए, तो यह भविष्य चीन की प्रयोगशालाओं में गढ़ा जाएगा, और बाकी दुनिया सिर्फ प्रतिक्रिया देती रह जाएगी। आज यह मधुमक्खी सिर्फ एक चिप नहीं ढो रही है—बल्कि वह उन सवालों का भार लेकर उड़ रही है जिनका जवाब हमें अब देना ही होगा। क्या हम जीवन को मशीन में बदलकर विज्ञान को नैतिकता से ऊपर रख सकते हैं? या फिर हर नवाचार के साथ हमें अपनी जवाबदेही भी तय करनी होगी?
रिया गोयल कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
निजी हैं और कल्ट करंट का इससे सहमत होना अनिवार्य नहीं है।