जब शुभांशु शुक्ला अंतरिक्ष से ज़मीन पर वापस लौटे, तो सिर्फ़ एक भारतीय वैज्ञानिक ही धरती पर नहीं उतरा — उनके साथ करोड़ों भारतीय युवाओं के सपने भी एक नए भरोसे के साथ उतरे। कुछ साल पहले तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि एक छोटे कस्बे से निकला नौजवान अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) पर जाकर न सिर्फ़ प्रयोग करेगा बल्कि वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय में भारत की पहचान को एक नई ऊँचाई देगा। पर शुभांशु ने ये कर दिखाया — और ये सिर्फ़ उनका व्यक्तिगत मिशन नहीं था, बल्कि भारत की बढ़ती अंतरिक्ष ताक़त की एक झलक भी थी।
ISS पर अपने 180 दिनों के मिशन में शुभांशु ने माइक्रो-ग्रैविटी में ह्यूमन फिज़ियोलॉजी, बायो-नैनो टेक्नोलॉजी और स्पेस फार्मिंग पर जो प्रयोग किए, उन्हें नासा और ESA जैसी अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने भी अभूतपूर्व माना। उनके डेटा से पृथ्वी पर नई दवाइयों के विकास, भोजन उत्पादन और पर्यावरण प्रबंधन तक में नई संभावनाएँ खुल सकती हैं। इस मिशन ने दिखा दिया कि अब भारत अंतरिक्ष स्टेशन पर सिर्फ़ पर्यवेक्षक या यात्री नहीं भेज रहा, बल्कि cutting-edge रिसर्च में बराबरी से भागीदारी कर रहा है।
इस सफलता का मतलब सिर्फ़ एक फ्लैग लगाना या “पहला भारतीय” बनना नहीं है — असल कमाल यह है कि शुभांशु जैसे युवा वैज्ञानिक अब अंतरिक्ष अन्वेषण के उस दौर में पहुँच चुके हैं जहाँ उनकी रिसर्च पूरी मानव जाति के लिए मायने रखती है। यही वजह है कि जब उनका स्पेस कैप्सूल कज़ाकिस्तान के बर्फ़ीले मैदानों में उतरा तो ISRO से लेकर Gaganyaan मिशन तक हर कोई इसे भारत के लिए एक symbolic जीत मान रहा था।
शुभांशु की ये कामयाबी उस भरोसे को भी मज़बूत करती है जो पिछले दशक में ISRO ने तैयार किया है। मंगलयान, चंद्रयान-3, आदित्य L1 जैसे मिशन पहले ही भारत को “सस्ता लेकिन सटीक” स्पेस रिसर्च पावर बना चुके हैं। अब इंसानी उपस्थिति और इंसानी रिसर्च से भारत इस फील्ड में एक नई छलांग लगा रहा है। Gaganyaan मिशन, जो जल्द ही भारत के अपने Astronaut Corps के साथ उड़ान भरेगा, शुभांशु जैसे रोल मॉडल्स से ही ऊर्जा पाता है।
पर इससे भी बड़ी बात ये है कि ऐसे मिशन भारत के स्कूल-कॉलेजों में बैठी उन आँखों में चमक पैदा करते हैं जिनके लिए अभी तक स्पेस साइंस कोई दूर की चीज़ थी। गाँव-कस्बों के बच्चे अब यूट्यूब पर शुभांशु के इंटरव्यू देखते हैं, उनके experiments पढ़ते हैं और खुद से सवाल करते हैं — “अगर वो कर सकता है तो मैं क्यों नहीं?” यही असली ‘मेक इन इंडिया स्पेस ड्रीम’ है — जो किसी तकनीक या सैटेलाइट से नहीं, बल्कि लाखों बच्चों के दिल में लगने वाली इस चिंगारी से साकार होगा।
आज भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में शामिल हो गया है जो इंसानी अंतरिक्ष उड़ान में भी योगदान दे सकते हैं। इसका सीधा असर हमारी STEM यानी साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथ्स एजुकेशन पर पड़ेगा। स्कूलों में Space Science Clubs खुल रहे हैं, यूनिवर्सिटीज में स्पेस मेडिसिन और माइक्रो-ग्रैविटी बायोलॉजी जैसे कोर्स शुरू हो रहे हैं — ये सब शुभांशु जैसे मिशनों से ही संभव है।
शुभांशु शुक्ला की वापसी हमें ये याद दिलाती है कि अंतरिक्ष में पहुँचने का असली मतलब सिर्फ़ Rocket Launch या Technology Showcase नहीं होता — असली उपलब्धि तब होती है जब कोई वैज्ञानिक अंतरिक्ष में जाकर उन सवालों के जवाब लाता है जिनसे धरती पर करोड़ों लोगों की ज़िंदगी बदल सकती है।
आख़िर में सवाल यही है — क्या शुभांशु शुक्ला की यह उड़ान किसी एक वैज्ञानिक की उपलब्धि बनकर रह जाएगी या फिर यह हमारे स्कूलों, कॉलेजों और मोहल्लों में नए शुभांशुओं को जन्म देगी? जवाब हमारे हाथ में है। और शायद अंतरिक्ष में भी!
श्रेया गुप्ता कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
निजी हैं और कल्ट करंट का इससे सहमत होना अनिवार्य नहीं है।