जल-संघर्षः भारत का जल संकट व वैश्विक जोखिम

संदीप कुमार

 |  01 Aug 2025 |   5
Culttoday

भारत एक गहरे जल संकट की ओर तेजी से अग्रसर है, जो उसकी आर्थिक प्रगति और सामाजिक स्थिरता के लिए गंभीर खतरा बन चुका है। यह संकट केवल पर्यावरणीय नहीं, बल्कि एक बहुआयामी चुनौती है जो नीतिगत ढांचे, जलवायु परिवर्तन, संसाधनों के अनियंत्रित दोहन और शासन की विफलताओं के कारण उत्पन्न हुआ है।
दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी वाले इस देश के पास केवल 4 प्रतिशत ताजे जल संसाधन हैं। केंद्रीय जल आयोग (CWC) के आंकड़ों के अनुसार, भारत में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 1951 में 5,177 घन मीटर थी, जो 2021 में घटकर 1,486 घन मीटर रह गई है। जल शक्ति मंत्रालय का अनुमान है कि यह संख्या 2040 तक 1,400 घन मीटर से भी नीचे जा सकती है, जिससे भारत 'जल-संकटग्रस्त' देश बन जाएगा। यदि यही प्रवृत्ति जारी रही, तो भारत 2030 तक 'जल-अभावग्रस्त' श्रेणी में आ सकता है।
भारत में जल संकट का एक प्रमुख कारण भूमिगत जल का अत्यधिक और अनियंत्रित दोहन है। भारत हर वर्ष लगभग 251 अरब घन मीटर भूजल निकालता है, जो कि विश्व में सर्वाधिक है और वैश्विक भूजल दोहन का लगभग 25 प्रतिशत हिस्सा है। केंद्रीय भूजल बोर्ड (CGWB) की 2023 की रिपोर्ट बताती है कि भारत के 6,965 भूजल आकलन खंडों में से 17 प्रतिशत 'अति-दोहन' की श्रेणी में आते हैं। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और कर्नाटक जैसे राज्यों में जल स्तर प्रति वर्ष 1 मीटर से अधिक की दर से गिर रहा है, जो एक गंभीर चेतावनी है।
भारत में भूमिगत जल के अति-दोहन को अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी नीतियों द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है। बिजली, उर्वरक और न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) आधारित फसल खरीद प्रणाली ने धान और गेहूं जैसी जल-गहन फसलों को बढ़ावा दिया है, भले ही ये फसलें पर्यावरणीय दृष्टि से उस क्षेत्र के लिए उपयुक्त न हों। इससे न केवल जल संकट बढ़ा है, बल्कि क्षेत्रीय पारिस्थितिकी तंत्र भी प्रभावित हुआ है।
जल संकट को और भी गंभीर बनाता है अवैध और अनियंत्रित रेत खनन, जो अक्सर चर्चा से बाहर रह जाता है। रेत खनन नदियों की आकृति को बिगाड़ता है, जल प्रवाह को कम करता है और भूजल पुनर्भरण की प्रक्रिया को बाधित करता है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों में नदियों की गहराई कई मीटर तक बढ़ गई है, जिससे वाष्पीकरण में वृद्धि और जल पुनर्भरण में कमी आई है। यह सब मिलकर जल संकट को और गहरा बनाता है।
भारत की कृषि क्षेत्र लगभग 78 प्रतिशत ताजे जल का उपभोग करता है। सरकार की खरीद नीतियों और बिजली सब्सिडी ने धान और गन्ना जैसी फसलों की खेती को प्रोत्साहित किया है, भले ही ये फसलें क्षेत्रीय जलवायु और पारिस्थितिकी के अनुकूल न हों। फसल विविधता की कमी और जल-कुशल सिंचाई तकनीकों को न अपनाने से जल संसाधनों पर अत्यधिक दबाव बना है। इससे न केवल जल की बर्बादी होती है, बल्कि किसानों की आय और क्षेत्रीय जल सन्तुलन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
शहरीकरण और औद्योगीकरण के विस्तार ने जल संकट को और विकराल बना दिया है। तेजी से बढ़ती जनसंख्या और औद्योगिक मांग ने जल की मांग को आपूर्ति से कहीं आगे पहुंचा दिया है। शहरी जल वितरण प्रणाली पुरानी, अव्यवस्थित और लीकेज से भरी हुई है। पाइपलाइनों में रिसाव, अवैध कनेक्शन और अव्यवस्थित सीवरेज व्यवस्था जल संकट को और बढ़ाते हैं। अधिकांश नगरों में नियमित और सुरक्षित पेयजल आपूर्ति अभी भी एक सपना ही बनी हुई है।
भारत के जल ढांचे, विशेषकर बड़े बांध और नहरें, 20वीं सदी के मध्य में बनाए गए थे, जब जलवायु अपेक्षाकृत स्थिर थी। लेकिन अब जब मानसून की अनिश्चितता, बाढ़ और सूखा एक साथ देखे जा रहे हैं, तो ये ढांचे अप्रासंगिक सिद्ध हो रहे हैं। वर्षा के असमान वितरण से बांधों की बाढ़-नियंत्रण क्षमता सीमित हो गई है। लंबे सूखे के समय जल प्रबंधन की खामियाँ उजागर होती हैं। 2021 का 'डैम सेफ्टी एक्ट' एक सराहनीय कदम है, लेकिन भारत के 70 प्रतिशत बांध 25 साल से पुराने हैं और उन्हें तत्काल निरीक्षण, मरम्मत और आधुनिकीकरण की आवश्यकता है।
भारत वैश्विक मंचों पर जलवायु न्याय की बात तो करता है, लेकिन जल संकट शायद ही कभी संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (UNFCCC) जैसी वार्ताओं में प्राथमिकता पाता है। इससे भारत उन अवसरों को खो देता है जहाँ वह जल-केंद्रित वित्तीय सहायता, जल-स्मार्ट कृषि या ट्रांसबाउंड्री नदी जोखिम जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर वैश्विक समर्थन प्राप्त कर सकता है।
1950 से 2020 तक भारत में मानसूनी वर्षा में 10 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है, लेकिन असली समस्या वर्षा की असमानता है। अब वर्षा कम समय में अत्यधिक मात्रा में होती है, जिससे बाढ़ तो आती है लेकिन भूजल रिचार्ज नहीं हो पाता। 'गीले दौर में सूखे अंतराल' की घटनाएं 50 प्रतिशत बढ़ गई हैं, जिससे खेती की योजना और सिंचाई की मांग गड़बड़ा जाती है।
जल की मात्रा के साथ-साथ उसकी गुणवत्ता भी दिन-ब-दिन खराब होती जा रही है। अपशिष्ट जल, रासायनिक कचरा और औद्योगिक प्रदूषण ने 70 प्रतिशत सतही जल को अनुपयोगी बना दिया है। शहरों में बोतलबंद पानी और निजी टैंकरों का व्यापार ₹24,000 करोड़ से अधिक का हो गया है, जो अमीर-गरीब के बीच गहरी असमानता पैदा कर रहा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, भारत में 16.3 करोड़ लोग स्वच्छ पेयजल से वंचित हैं और 21 करोड़ लोग बुनियादी स्वच्छता से। हर साल लगभग 3.8 करोड़ लोग जलजनित बीमारियों से प्रभावित होते हैं। सिर्फ दस्त से ही बच्चों की मृत्यु दर का 10 प्रतिशत हिस्सा होता है। बिहार, पश्चिम बंगाल और असम में भूजल में आर्सेनिक की उपस्थिति कैंसर और अन्य दीर्घकालिक बीमारियों को जन्म दे रही है।
आईआईटी की रिपोर्ट के अनुसार, यमुना और मीठी जैसी नदियों और शहरी कचरा स्थलों के पास भूजल में माइक्रोप्लास्टिक कणों की उपस्थिति चिंताजनक स्तर पर पहुंच चुकी है। यह खतरा अभी तक नीतियों में प्राथमिकता नहीं पा सका है, जबकि इसके दीर्घकालिक प्रभाव गंभीर हो सकते हैं।
भारत का जल संकट अब केवल एक पर्यावरणीय मुद्दा नहीं है। यह अब एक बहुआयामी संकट बन चुका है, जो देश की वित्तीय योजना, सार्वजनिक स्वास्थ्य, राष्ट्रीय सुरक्षा, व्यापार नीति और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति से गहराई से जुड़ा हुआ है। इसका समाधान केवल अवसंरचना निर्माण से नहीं, बल्कि नीति सुधार, वैज्ञानिक नवाचार, कानूनी प्रतिबद्धता और शासन की जवाबदेही से ही संभव है।
कृषि क्षेत्र में व्यापक सुधारों की आवश्यकता है। सरकार को जल-गहन फसलों से हटकर मोटे अनाज, दालों और तिलहन की ओर किसानों को प्रोत्साहित करना चाहिए। तमिलनाडु में सिस्टम ऑफ राइस इंटेंसिफिकेशन (SRI) और पंजाब में राइस की डायरेक्ट सीडिंग जैसी तकनीकों ने दिखाया है कि जल उपयोग को कम करके भी उपज को बरकरार रखा जा सकता है। किसानों को जल-कुशल सिंचाई प्रणालियों की जानकारी और सहायता दी जानी चाहिए।
शहरी जल प्रबंधन में भी क्रांतिकारी परिवर्तन की आवश्यकता है। स्मार्ट मीटरिंग, पाइप रिसाव की रोकथाम, अपशिष्ट जल के पुनर्चक्रण और वर्षा जल संचयन को शहरी नियोजन में शामिल करना चाहिए। हरित बुनियादी ढांचे के माध्यम से पुनर्भरण और जल संचयन को बढ़ावा देना आवश्यक है।
भारत के पास अब तक कोई बाध्यकारी राष्ट्रीय जल नीति नहीं है। संविधान के अनुसार जल राज्यों का विषय है, जिससे नीतियों में समन्वय की कमी रहती है। 2020 की ड्राफ्ट जल नीति अभी भी समीक्षा में है, जबकि कई राज्य अब भी जल-गहन फसलों को बढ़ावा दे रहे हैं और जल संरक्षण के लिए बहुत कम प्रोत्साहन देते हैं।
जल संकट से जुड़ी बीमा और वित्तीय योजनाएं भी लगभग अनुपस्थित हैं। जबकि कृषि बीमा को कुछ हद तक राज्य समर्थन प्राप्त है, उद्योगों के लिए जल संकट से जुड़ी हानि की भरपाई का कोई तंत्र विकसित नहीं हो पाया है। विश्व आर्थिक मंच (WEF) पहले ही जल संकट को वैश्विक व्यापार निरंतरता के पांच शीर्ष जोखिमों में गिन चुका है, लेकिन भारत की वित्तीय व्यवस्था अभी भी इस जोखिम की गणना या मूल्य निर्धारण करने में असमर्थ है।
जल जीवन मिशन, जिसे 2019 में शुरू किया गया था, का उद्देश्य 2024 तक सभी ग्रामीण घरों में नल से जल पहुँचाना है। जुलाई 2025 तक 72% ग्रामीण घरों में पाइप जल पहुँच चुका है, जो 2019 में केवल 16% था। हालांकि, पूर्वी और मध्य भारत के कई राज्य अभी भी पीछे हैं। समुद्री जल शुद्धिकरण (डीसैलीनेशन) को अंतिम उपाय के रूप में अपनाया जा रहा है। चेन्नई में दो डी-सैलीनेशन संयंत्र चालू हैं, और 400 मिलियन लीटर प्रतिदिन की अतिरिक्त क्षमता की योजना है। लेकिन यह प्रक्रिया ऊर्जा-गहन, महंगी (₹70–₹90 प्रति किलोलीटर) और समुद्री पारिस्थितिकीय तंत्र के लिए हानिकारक है।
वर्ल्ड बैंक द्वारा समर्थित अटल भूजल योजना सात राज्यों के 8,300 से अधिक ग्राम पंचायतों में भागीदारी आधारित भूजल प्रबंधन को प्रोत्साहित कर रही है। इस योजना ने सामुदायिक जल बजट और एक्वीफर मैपिंग के माध्यम से भूजल स्तर में प्रारंभिक सुधार दिखाए हैं।
भारत का जल संकट अब चेतावनी नहीं, बल्कि वास्तविकता बन चुका है। इसे हल करने के लिए भारत को बहुआयामी, दीर्घकालिक और समावेशी रणनीति अपनानी होगी। केवल अवसंरचना नहीं, बल्कि शासन सुधार, वैज्ञानिक नवाचार, कानूनी मजबूती और वित्तीय पुनर्विनियोजन की आवश्यकता है। तभी जल-संघर्ष को नियंत्रित कर भारत अपने भविष्य को सुरक्षित रख पाएगा। 


धनिष्ठा डे एक जिज्ञासु पत्रकार हैं, जो वर्तमान में कल्ट करंट में अपना योगदान दे रही हैं।


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