ट्रंप के टीपीपी समझौता रद्द करने से चीन की बल्ले-बल्ले

जलज वर्मा

 |   24 Jan 2017 |   8
Culttoday

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप सत्ता की बागडोर संभालते ही अपने चुनावी वादे में से एक ट्रांस पैसिफिक पार्टनशिप (टीपीपी) समझौते को रद कर दिया. ट्रंप के इस फैसले से चीन की बल्ले-बल्ले हो गई है. ज्ञात हो कि इस समझौते पर 12 देशों ने फरवरी 2016 में हस्ताक्षर किए थे. इन 12 देशों के पास दुनिया की अर्थव्यवस्था का 40 फ़ीसदी हिस्सा है. ट्रंप का मानना है कि टीपीपी अमेरिका के लिए एक आपदा की तरह है. अमेरिकी राष्ट्रपति बयान के अनुसार, वह इसके बदले द्विपक्षीय व्यापार पर ज़्यादा जोर देंगे. वह अमेरिका में नौकरी और इंडस्ट्री को बढ़ावा देने पर काम करेंगे.

इस समझौते को ओबामा प्रशासन ने लागू किया था और उन्होंने कहा था कि यह समझौता एशिया में अमेरिकी नेतृत्व को औपचारिक रूप देने के समान है. चीन को घेरने के लिए ओबामा प्रशासन ने टीपीपी को ज़मीन पर उतारा था. एशिया-प्रशांत के लिए टीपीपी एक अहम डील थी. 21वीं सदी के व्यापार समझौतों में टीपीपी की भूमिका काफी प्रभावी थी.

टीपीपी महज व्यापार समझौता नहीं था. यह एशिया में ओबामा प्रशासन की सामरिक नीति की धुरी थी. इस संबंध में ओबामा सरकार के रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर का कहना था, ''इससे व्यापार को गति मिलेगी. टीपीपी से एशिया-प्रशांत में वॉशिगंटन की मौजूदगी बढ़ेगी और अमेरिकी मूल्यों को बढ़ावा मिलेगा.''

जब इस समझौते को लागू किया गया था तो एशिया-प्रशांत में इसे आर्थिक हथियार के रूप में पेश किया गया था. ज़ाहिर है इस समझौते को लागू करते वक़्त ओबामा प्रशासन की नज़र में चीन था. पिछले साल नवंबर में चीन की सरकारी न्यूज़ एजेंसी शिन्हुआ ने टीपीपी के बारे कहा था कि यह ओबामा प्रशासन का इस इलाके में प्रभुत्व कायम करने का हथियार है. इस समझौते को ख़त्म करने के बाद दुनिया पर असर पड़ना लाजिमी है.

इस समझौते को ख़त्म करने के बाद बीजिंग एशियाई सरकारों को प्रोत्साहित करेगा कि वे चीनी विश्वसनीयता और अमेरिकी वादों में तुलना करें. बीजिंग का कहना है कि अमेरिका एशिया में धाक जमाता है जबकि चीन एशिया में एक स्थायी शक्ति है.सिंगापुर के प्रधानमंत्री पिछले साल अगस्त में अमेरिका के आधिकारिक दौरे पर गए थे. उन्होंने तब दो टूक कहा था कि अमेरिका की साख उसके पार्टनर देशों के साथ टीपीपी के कारण दांव पर लगी है.

सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली लूंग ने कहा था, ''हम सभी कई आपत्तियों को दरकिनार करते हुए और कई राजनीतिक कीमतों को चुकाने के बाद साथ आए थे. यदि इस समझौते को ख़त्म किया जाता है तो यह हमारी अधूरी यात्रा होगी और लोग आहत महसूस करेंगे. यह हमारी ठोस साझेदारी थी.' ट्रंप ने आने के बाद टीपीपी तोड़कर एक संदेश दिया है कि उनकी एशिया में दिलचस्पी नहीं है. टीपीपी के ज़रिए ओबामा ने दिखाया था कि एशिया में अमेरिका की मज़बूत मौजूदगी रहेगी. टीपीपी को तोड़ने के बाद एशिया में नेतृत्व को लेकर एक किस्म की शून्यता आएगी और चीन इसे भरने के लिए तैयार बैठा है. पिछले साल पेरू की राजधानी लिमा में एशिया-पैसिफिक इकनॉमिक कोऑपरेशन (एपीईसी) की बैठक हुई थी. इसमें जुटे नेताओं से चीनी राष्ट्रपति ने कहा था कि यह ठोस साझेदारी का वक़्त है. उन्होंने कहा था कि चीन अपना दरवाज़ा बंद नहीं करने जा रहा है बल्कि इसे और खोलेगा.

ज़ाहिर है, चीन एशिया में अपना प्रभुत्व बढ़ा रहा है लेकिन ट्रंप ने आते ही उसे समेटना शुरू कर दिया है. इसी के मद्देनज़र चीन ने एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक की स्थापना कराई है. टीपीपी को रद्द करना चीन के हित में है. ऐसा इसलिए नहीं है कि अमेरिकी समर्थित व्यापार समझौता ख़त्म हो गया है या एशिया केंद्रित रणनीति से अमेरिका पीछे हट गया है. टीपीपी के ख़त्म होने से ट्रंप और अमेरिकी इरादों को लेकर अनिश्चितता बढ़ेगी. ट्रंप बार-बार कह रहे हैं कि 'अमेरिका फर्स्ट'. क्या अमेरिका अब अंतर्राष्ट्रीयवाद की नीति से क़दम पीछे खींच रहा है?

ज़ाहिर है टीपीपी रद्द करने से ऐसा ही संदेश गया है. ट्रंप को लेकर एशिया में अमेरिका की साख पर भरोसा कम होगा.


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