डोनाल्ड ट्रंप की जनवरी 2025 में राष्ट्रपति के रूप में वापसी ने फिर से यह सवाल खड़ा कर दिया है कि अमेरिका आज के बदलते विश्व में किस दिशा में जा रहा है। उनकी विदेश नीति अब भी "अमेरिका फर्स्ट" सोच से प्रेरित है, लेकिन इसमें अब और अधिक अनिश्चितता, व्यक्तिगत फैसले, और नाटकीय बयानों की भरमार है। ईरान-इजराइल संघर्ष और कनाडा के साथ व्यापार तनाव ने यह साफ कर दिया है कि ट्रंप का तरीका जितना प्रभावशाली हो सकता है, उतना ही खतरनाक भी। लेकिन जब कूटनीति एक शो बन जाए, तो क्या दुनिया ऐसी नीति के साथ सुरक्षित रह सकती है?
जून 2025 में जब इजराइल ने ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले किए, तो शुरुआत में ट्रंप ने खुद को इस संघर्ष से दूर रखा। उन्होंने "हमेशा के युद्धों" से बचने की बात कही। लेकिन कुछ ही दिन बाद अमेरिका ने ईरान पर हवाई हमले किए। ट्रंप ने दावा किया कि उन्होंने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को "नष्ट" कर दिया है, जबकि खुफिया रिपोर्टें बताती हैं कि इससे ईरान की परमाणु योजना बस कुछ महीनों के लिए टली है। सवाल यह है कि क्या यह ताकत दिखाने की कोशिश थी, या सिर्फ एक राजनीतिक स्टंट? जब एक वैश्विक ताकत की नीति रोज़ बदलती हो, तो दुनिया उस पर कैसे भरोसा करे?
बाद में घोषित "12 डे वॉर" का संघर्ष विराम भी उतना ही अचानक था जितना ट्रंप का फैसला। यहां तक कि उनकी खुद की टीम को भी इसकी जानकारी पहले नहीं थी। ईरान और इजराइल दोनों ने एक-दूसरे पर विराम उल्लंघन के आरोप लगाए। ट्रंप की दो हफ्तों की "डेडलाइन" जिसमें उन्होंने या तो ईरान के झुकने या अमेरिका के फैसले की बात कही, ज़्यादा चुनावी नारे जैसी लगती है, नीति जैसी नहीं। क्या ऐसी अस्थिरता से गलत फैसले नहीं होंगे? क्या अमेरिका खुद को उस समय संभाल पाएगा, जब दुश्मन उसकी गंभीरता पर शक करने लगें?
अमेरिका के भीतर भी ट्रंप के इन फैसलों ने पार्टी में मतभेद पैदा कर दिए हैं। कुछ रिपब्लिकन नेता उनके सैन्य रवैये के समर्थक हैं, लेकिन "मेक अमेरिका ग्रेट अगेन" विचारधारा के कई लोग युद्ध-विरोधी हैं। डेमोक्रेट नेताओं ने ट्रंप पर कांग्रेस को दरकिनार करने और संविधान का उल्लंघन करने का आरोप लगाया। विदेशों में भी कतर जैसे देशों ने इन हमलों की निंदा की, और यूरोपीय देश गहरी चिंता में हैं। अगर अमेरिकी नेतृत्व पर भरोसा कम हो जाए, तो क्या वैश्विक नेतृत्व की ज़िम्मेदारी किसी और पर आ जाएगी?
कनाडा के साथ व्यापारिक तनाव भी कम नहीं है। G7 समिट के दौरान ट्रंप ने कनाडाई प्रधानमंत्री मार्क कार्नी के साथ बातचीत की, लेकिन उसकी नींव ट्रंप की टैरिफ धमकियों पर टिकी थी। एक समझौते की उम्मीद ज़रूर बनी, लेकिन यह रिश्ता अब तनाव से भरा है। सवाल यह है कि अगर अमेरिका अपने सबसे भरोसेमंद मित्रों को भी दबाव में रखेगा, तो साझेदारी का असली मतलब क्या रह जाएगा?
चीन और रूस ने इस स्थिति का फायदा उठाना शुरू कर दिया है। चीन मध्य पूर्व में खुद को मध्यस्थ के रूप में पेश कर रहा है, वहीं रूस यूक्रेन और क्षेत्रीय राजनीति में चुपचाप अपनी पकड़ बनाए हुए है। क्या अमेरिका अपने सहयोगियों को दूर करके इन विरोधियों से मुकाबला कर सकता है?
स्पष्ट है कि दुनिया के नेता अब ट्रंप की शैली को समझकर उसके अनुसार खुद को ढाल रहे हैं। कोई जैसे कैनेडा या यूके, व्यावहारिक तरीके से बातचीत कर रहे हैं, तो कोई जैसे ईरान, चीन और रूस, रणनीतिक संयम बरत रहे हैं। सवाल है—क्या एक अनिश्चित अमेरिका के साथ दुनिया टिक सकती है? और क्या नेता की अनिश्चितता, विश्व शांति के लिए जोखिम बन रही है?
रिया गोयल कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
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