एक ज़माने में चंद्रमा सिर्फ़ वैज्ञानिक जिज्ञासा या अमेरिका-रूस के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई का प्रतीक था। आज 21वीं सदी में यह धरती से दूर, लेकिन वैश्विक सत्ता संघर्ष का एक जीवंत अखाड़ा बन चुका है। नासा और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का आर्टेमिस कार्यक्रम चाँद पर इंसानी बस्तियाँ बसाने की दिशा में बड़ा कदम है, लेकिन इसके पीछे सिर्फ़ विज्ञान नहीं, बल्कि वही पुरानी भू-राजनीतिक होड़ है। अमेरिका और उसके सहयोगी चाहते हैं कि भविष्य के अंतरिक्ष के नियम, संसाधनों पर अधिकार और यहाँ तक कि चंद्रमा से मंगल तक के रास्ते उनके नियंत्रण में हों।
चीन और भारत: नए खिलाड़ी, नई चुनौतियाँ
इस दौड़ में अब सिर्फ़ अमेरिका या रूस नहीं, बल्कि एशिया के दो बड़े देश भी शामिल हैं। चीन ने चांग-ई मिशन से चंद्रमा पर अपनी मज़बूत मौजूदगी दर्ज की है। उसका लक्ष्य 2030 तक चाँद पर स्थायी आधार बनाने का है। वहीं, भारत ने चंद्रयान-3 की सफलता से दिखाया कि वह भी इस रेस में एक गंभीर खिलाड़ी है। ISRO की यह उपलब्धि सिर्फ़ वैज्ञानिक नहीं, बल्कि रणनीतिक भी है, क्योंकि अब अंतरिक्ष में भारत की आवाज़ को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
चंद्रमा अब सिर्फ़ "लैंडिंग" नहीं, "लॉन्चपैड" है
शीत युद्ध के दौर में चंद्रमा पर पहुँचना ही लक्ष्य था, लेकिन आज यह भविष्य के अंतरिक्ष मिशनों के लिए एक स्ट्रैटेजिक हब बन चुका है। अमेरिका का आर्टेमिस प्रोग्राम चाँद पर ऐसा ढाँचा खड़ा करना चाहता है, जो मंगल तक के सफर में पड़ाव का काम करे। इसी तरह, चीन और रूस मिलकर लूनर रिसर्च स्टेशन बना रहे हैं। जो देश पहले यहाँ अपनी जड़ें जमाएगा, वही भविष्य के अंतरिक्ष नियम तय करेगा।
संसाधनों की लड़ाई: हीलियम-3 से लेकर पानी तक
चंद्रमा की मिट्टी में हीलियम-3 जैसे दुर्लभ तत्व, कीमती खनिज और जमे हुए पानी के भंडार हैं, जो भविष्य की ऊर्जा ज़रूरतों और अंतरिक्ष यात्राओं के लिए अहम हैं। अमेरिका पहले ही आर्टेमिस अकॉर्ड्स के ज़रिए अपने सहयोगियों के साथ इन संसाधनों के दोहने के नियम बना रहा है। लेकिन चीन और रूस इन्हें मानने से इनकार कर चुके हैं। यह टकराव साफ़ दिखाता है कि चंद्रमा अब सिर्फ़ "विज्ञान की प्रयोगशाला" नहीं, बल्कि "आर्थिक और सैन्य महत्व" का क्षेत्र बन चुका है।
कानूनी अंधेरा: कौन तय करेगा नियम?
1967 की बाह्य अंतरिक्ष संधि कहती है कि कोई भी देश चंद्रमा पर अपना झंडा नहीं गाड़ सकता, लेकिन यह निजी कंपनियों या संसाधनों के इस्तेमाल पर चुप है। अमेरिका, चीन और भारत जैसे देश इसी ग्रे एरिया का फ़ायदा उठाना चाहते हैं। जो देश पहले चंद्रमा पर पहुँचकर वहाँ का ढाँचा खड़ा करेगा, वही भविष्य के नियम लिखेगा।
भारत के लिए मौका
चंद्रयान-3 की सफलता ने भारत को इस दौड़ में एक विश्वसनीय भागीदार बना दिया है। अब वक्त है तकनीकी आत्मनिर्भरता बढ़ाने और अंतरराष्ट्रीय साझेदारियों में सक्रिय भूमिका निभाने का। अगर भारत इस मौके का फ़ायदा उठाता है, तो वह न सिर्फ़ अंतरिक्ष में, बल्कि वैश्विक राजनीति में भी अपनी ताकत बढ़ा सकता है।
निष्कर्ष: नई दुनिया की नई लड़ाई
चंद्रमा अब कविताओं या रोमांच की जगह नहीं, बल्कि ताकत के नए समीकरणों का केंद्र है। यहाँ जीत सिर्फ़ अंतरिक्ष में नहीं, बल्कि धरती पर भी वैश्विक नेतृत्व की राह तय करेगी। जैसे-जैसे देश चाँद पर "बसने" की तैयारी कर रहे हैं, यह स्पष्ट होता जा रहा है कि अगला विश्व युद्ध नहीं, लेकिन अगली महाशक्ति की लड़ाई अंतरिक्ष में लड़ी जाएगी।
श्रेया गुप्ता कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
निजी हैं और कल्ट करंट का इससे सहमत होना अनिवार्य नहीं है।