हाल-ए-पाकिस्तानः वर्दी में लोकतंत्र
संदीप कुमार
| 01 Dec 2025 |
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पाकिस्तानी संसद में हाल ही में पारित 27वां संविधान संशोधन देश के नाज़ुक लोकतंत्र पर सेना के प्रभुत्व को और ज़्यादा मज़बूत करेगा। संविधान में ये नवीनतम संशोधन फील्ड मार्शल और सेनाध्यक्ष सैयद आसिम मुनीर को अभूतपूर्व शक्ति और कानूनी छूट प्रदान करता है। हकीक़त तो ये है कि इस संविधान संशोधन के पारित होने के बाद ये स्पष्ट हो गया है कि सेना ने एक बार फिर राष्ट्र और नागरिक नेतृत्व को मात दे दी है। सरकार को ही नहीं, इस संशोधन ने न्यायपालिका सहित प्रमुख लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमज़ोर कर दिया है। ये संशोधन 1973 के संविधान को पलटने और सत्ता के संतुलन को सेना के पक्ष में मोड़ने की एक और कोशिश है। इससे नागरिक नेतृत्व की भूमिका और कमज़ोर होगी जबकि पहले से ही मज़बूत सेना के पास असीमित शक्तियां आ जाएंगी। इस संशोधन के बाद सत्ता परिवर्तन की सूरत में भी मुनीर की शक्तियों में कोई कमी नहीं आएगी। आसिम मुनीर को अब कोई भी कानून छू नहीं सकता, उन्हें आधिकारिक तौर पर दूसरी सभी सैन्य शाखाओं यानी पाकिस्तानी नेवी और एयरफोर्स के प्रमुखों से ऊपर रख दिया गया है।
बिना तख्तापलट किए ही सत्ता पर कब्ज़ा
पाकिस्तान के संविधान के अनुच्छेद 243 को फिर से लिखकर एक नया सर्वोच्च सैन्य पद सृजित किया गया है। ये पद है चीफ ऑफ डिफेंस फोर्सेज़ (सीडीएफ) का। खास बात ये है कि मौजूदा सेनाध्यक्ष यानी आसिम मुनीर खुद ही इस पद पर आसीन हो जाएंगे। संविधान संशोधन के मुताबिक इस नए पद की स्थापना के बाद, चेयरमैन ज्वाइंट चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी (सीजेसीएससी) के अध्यक्ष का पद ख़त्म माना जाएगा। इस पद का उद्देश्य तीनों सेनाओं के बीच समन्वय स्थापित करना था। 27 नवंबर 2025 को, जब मौजूदा वर्तमान सीजेसीएससी रिटायर होंगे, तब फील्ड मार्शल मुनीर, सेना प्रमुख के रूप में, सीडीएफ की भूमिका भी संभालेंगे और औपचारिक रूप से सभी सेवा शाखाओं को अपने अधीन कर लेंगे। इसका अर्थ ये होगा कि सेना अब पूरे सैन्य ढांचे पर उस तरह से हावी हो जाएगी, जैसा पाकिस्तान के इतिहास में पहले कभी नहीं देखा गया। इस बदलाव के बाद पाकिस्तानी वायुसेना और नौसेना के थल सेना प्रमुख के अधीन होने का खतरा है। हालांकि, इससे असंतोष भड़क सकता है और तीनों सेनाओं के बीच प्रतिद्वंद्विता बढ़ सकती है।
अगर ये संविधान संशोधन सिर्फ सैन्य कमान श्रृंखला में बदलाव तक ही सीमित रहता, तब भी गनीमत रहती लेकिन ये देश के परमाणु हथियारों पर नागरिक नेतृत्व की निगरानी को भी कमज़ोर करेगा। पाकिस्तान के परमाणु बलों की निगरानी के लिए राष्ट्रीय सामरिक कमान के कमांडर (सीएनएससी) का एक नया पद सृजित किया जाएगा। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री, सेना प्रमुख/सीडीएफ की सलाह से सेना के जनरलों में से किसी एक को सीएनएससी नियुक्त करेंगे। सैद्धांतिक तौर पर भले ही ये लगे कि, इसमें प्रधानमंत्री की भी भूमिका रहेगी, लेकिन अगर व्यावहारिक अर्थ में बात करें तो आसिम मुनीर और भावी सेना प्रमुख ही पाकिस्तान के परमाणु बलों के प्रभारी अधिकारी का चयन स्वयं करेंगे। ये कमांडर फिर सेना की कमान श्रृंखला के माध्यम से मुनीर को ही रिपोर्ट करेगा। इससे राष्ट्रीय कमान प्राधिकरण (एनसीए) का नियंत्रण कमज़ोर हो सकता है। एनसीए का गठन परमाणु कार्यक्रम संबंधी निर्णय लेने में असैन्य नेताओं और सभी सेना प्रमुखों को शामिल करने के लिए किया गया था। वर्तमान एनसीए प्रणाली में, रणनीतिक निर्णय, विशेष रूप से परमाणु हथियारों के उपयोग से संबंधित फैसले लेने के लिए, सामूहिक सुझाव की ज़रूरत होती है और ये सब काम प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में होता है। हालिया संविधान संशोधन परमाणु कमान को सेना द्वारा चुने गए एक जनरल के अधीन कर देगा, जिससे रावलपिंडी स्थित सेना के जनरल हेडक्वार्टर (जीएचक्यू) पर कड़ा नियंत्रण स्थापित हो जाएगा।
कानून से भी ऊपर हो गए मुनीर
इसके अलावा, चिंताजनक बात ये है कि एक अभूतपूर्व कदम के तहत, एक 'लोकतांत्रिक' देश में नेताओं और अधिकारियों को जवाबदेह ना ठहराने से शीर्ष सैन्य अफसरों को व्यापक व्यक्तिगत विशेषाधिकार मिल गए हैं। अब वो कानून से ऊपर हो गए हैं, किसी कोर्ट में उनपर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। ये संशोधन पांच सितारा रैंक तक पहुंचे किसी भी अफसर को आजीवन संवैधानिक संरक्षण प्रदान करता है। पांच सितारा रैंक में फील्ड मार्शल (थल सेना), मार्शल ऑफ द एयर फोर्स (वायुसेना), या एडमिरल ऑफ द फ्लीट (नौसेना) जैसे पद आते हैं। पाकिस्तान में इन रैंकों का इस्तेमाल कम ही होता रहा है, लेकिन मई 2025 में भारत के साथ एक सैन्य संघर्ष के बाद आसिम मुनीर का जल्दबाजी में फील्ड मार्शल के पद पर प्रमोशन कर दिया गया। अनुच्छेद 243 में किया गया नवीनतम संशोधन संविधान में मुनीर की पदोन्नति को सुनिश्चित करने और उनका का दर्जा आजीवन सुनिश्चित करने के लिए उठाया गया कदम है। नए संशोधन के प्रावधानों के तहत, एक पांच सितारा रैंक का अधिकारी 'जीवन भर पद, विशेषाधिकार और वर्दी धारण करेगा'। उस पर सिर्फ महाभियोग के तहत ही कार्रवाई की जा सकती है। आसान शब्दों में कहें तो, कानूनी तौर पर, आसिम मुनीर दोषमुक्त और कोर्ट की पहुंच से दूर होंगे। इसकी वजह ये है कि कोई भी अदालत या भविष्य की नागरिक सरकार संसद में दो-तिहाई बहुमत के बिना पांच सितारा रैंक के अफसर पर किसी अपराध का आरोप नहीं लगा सकती या उसे पद से नहीं हटा सकती। इसी तरह, नौसेना और वायु सेना प्रमुखों को भी, फील्ड मार्शल मुनीर की तरह, मई 2025 में चलाए गए ऑपरेशन बनयान अल मार्सूस में उनकी भूमिका के लिए एक स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसिजर(एसओपी) दी गई है। वे भी चार सितारा जनरलों के रूप में आजीवन खाकी वर्दी पहनेंगे और उन्हें भी किसी भी तरह की कानूनी कार्रवाई से छूट हासिल होगी।
इस संविधान संशोधन को लेकर एक चिंताजनक बात ये भी है कि, इससे पाकिस्तान में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और कमज़ोर होगी। शाहबाज़ शरीफ सरकार के कार्यकाल की शुरुआत से ही अदालतों की स्वायत्तता को कमज़ोर करने की कोशिश की गई और ये सिलसिला अब तक जारी है। ये संशोधन संवैधानिक मामलों को निपटाने के लिए एक नए संघीय संवैधानिक न्यायालय (FCC) की स्थापना करता है, जिससे संविधान की सबसे बड़ी कानूनी संस्था के रूप में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका कमज़ोर हो जाती है। पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का दर्जा नई संघीय संवैधानिक अदालत के चीफ जस्टिस से जूनियर का होगा। संघीय संवैधानिक अदालत के मुख्य न्यायाधीश 68 साल की उम्र तक अपने पद पर रह सकेंगे, जबकि पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस की रिटायरमेंट की उम्र 65 साल है। न्यायपालिका की आज़ादी को धीरे-धीरे कम कर देना आसिम मुनीर और इस्लामाबाद में शहबाज़ शरीफ के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार की एक उल्लेखनीय उपलब्धि रही है। हालांकि, ये हो सकता है कि भविष्य में इस उपलब्धि को लोकतंत्र के लिए एक बड़ी नाकामी माना जाएगा।
पाकिस्तान में अदालतों के अधिकार कम करने का सिलसिला 2024 में शुरू हुआ, तब संसद ने विवादास्पद 26वां संशोधन पारित किया। इस संशोधन के ज़रिए न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया में बदलाव किया और सुप्रीम कोर्ट की किसी भी मामले में स्वत: संज्ञान लेकर सुनवाई करने की शक्ति को ख़त्म कर दिया गया। एक समय ऐसा भी था, जब 2008 में जनरल मुशर्रफ को सत्ता से हटाने में अदालतों ने सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी, लेकिन प्रस्तावित बदलावों के बाद पाकिस्तान की न्यायपालिका पूरी तरह से राजनीतिक हो जाएगी और कार्यपालिका के नियंत्रण में आ जाएगी। परोक्ष रूप से न्यायपालिका अब सैन्य प्रतिष्ठान के नियंत्रण में होगी। पाकिस्तान का सर्वोच्च न्यायालय अब अपने पहले के शक्तिशाली रूप की कमज़ोर छाया मात्र रह गया है। फिलहाल पाकिस्तानी की खुशकिस्मती ये है कि मुनीर और शाहबाज़ शरीफ ने मुख्य न्यायाधीश याह्या अफरीदी को अपने तय कार्यकाल तक पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश के पद पर बनाए रखने का फैसला किया है। उसके बाद, पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश का पद वो जस्टिस संभालेंगे, जो संघीय संवैधानिक न्यायालय और पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय में से वरिष्ठ होंगे।
नाना और मां के ‘बलिदान’ को भूले बिलावल
सबसे दुखद बात ये है कि पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व ने सेना और आसिम मुनीर को मज़बूत करने वाले इन संवैधानिक संशोधनों पर सहमति जताकर झुकने का काम किया है। ये इस बात का स्पष्ट संकेत है कि, पिछले तीन साल में पाकिस्तान की लोकतांत्रिक संस्थाएं कितनी कमज़ोर और शक्तिहीन हो गई हैं। शाहबाज़ सरकार ने प्रमुख राजनीतिक दलों की लगभग चुप्पी के माहौल में सीनेट में ये संशोधन पेश किया। सीनेट में सांकेतिक विरोध और थोड़े बहुत हंगामे और नाराज़गी के बीच ये संशोधन दो-तिहाई बहुमत से पारित भी हो गया। मुस्लिम लीग-(नवाज़) और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) सत्तारूढ़ गठबंधन के हिस्से के रूप में इस संशोधन के सूत्रधार थे। हैरानी की बात ये है कि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ऐतिहासिक रूप से अलग-अलग समयों पर सैन्य प्रभुत्व के आलोचक रही है। ज़ुल्फिकार अली भुट्टो और उनकी बेटी बेनज़ीर भुट्टो ने इस विरोध की कीमत अपनी जान देकर चुकाई। वही पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी आज तकनीकी दलीलों और राष्ट्रवादी बयानबाज़ी के ज़रिए सेना को मज़बूत करने वाले इस संविधान संशोधन को सही ठहरा रही है। ऐसा लगता है पीपीपी के नेता बिलावल भुट्टो इस संशोधन की वजह से पाकिस्तान को होने वाले दीर्घकालिक नुकसान पर विचार करने के बजाय मुनीर की कृपादृष्टि बनाए रखने पर ज़्यादा ध्यान दे रहे हैं। पाकिस्तान की 'हाइब्रिड' व्यवस्था अब इस हद तक बिगड़ चुकी है कि नागरिक सरकार के दख़ल का पता भी नहीं चलता।
आसिम मुनीर की सत्ता की जो भूख दिख रही है, उस प्रवृत्ति की तुलना 1980 के दशक में जनरल ज़िया-उल-हक़ और 2000 के दशक के शुरुआती वर्षों में जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ जैसे सैन्य शासकों से की जा सकती है। तीनों में कई स्पष्ट समानताएं हैं। ज़िया-उल-हक़ और मुशर्रफ़, दोनों ने संसद और अदालतों को दरकिनार कर दिया, अपना हुक्मनामा चलाया और फिर अपने प्रभुत्व को संस्थागत बनाने के लिए संवैधानिक संशोधनों का सहारा लिया। ज़िया के शासनकाल के दौरान आठवां संशोधन हुआ, जबकि मुशर्रफ़ के समय सत्रहवें संशोधन को अंजाम दिया। मुनीर की तरह ही, उन्होंने कई साल तक सत्ता अपने हाथों में केंद्रित रखी। इन सब समानताओं के बावजूद, मुनीर के दृष्टिकोण में कुछ बड़े अंतर भी हैं। अपने पूर्ववर्तियों यानी ज़िया-उल-हक़ और परवेज़ मुशर्रफ़ की तरह मुनीर ने ना तो पूरी तरह से मार्शल लॉ लागू किया है, और ना ही उन्होंने अब तक राष्ट्रपति पद जैसे किसी औपचारिक नागरिक पद को ग्रहण किया है। इसकी बजाए, मुनीर पर्दे के पीछे से सत्ता को अपने हिसाब से चला रहे हैं, और दुनिया को दिखाने के लिए नागरिक नेतृत्व वाली व्यवस्था को काम करने दे रहे हैं।
मुनीर को देश में सत्ता मिली, विदेश में सम्मान
मुनीर ने एक आज्ञाकारी सरकार का फ़ायदा उठाकर सेना को मज़बूत बनाने वाले कानून पारित किए हैं। इससे उन्हें दो प्रत्यक्ष फायदे मिलते हैं। पहला फायदा तो ये है कि मुनीर तख्तापलट से होने वाली अंतर्राष्ट्रीय बदनामी से बच जाते हैं, और दूसरा लाभ ये है कि रोज़मर्रा के शासन की थकान का सामना किए बिना वो अपने लक्ष्यों को आसानी से हासिल कर ले रहे हैं। दिखावे के लिए ही सही, लेकिन मुनीर कम से कम नाममात्र के लिए ही एक संवैधानिक ढांचे के अधीन रहते हुए काम कर रहे हैं। हालांकि, वो जब चाहें, नीतियों को अपने हिसाब से बदल रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि मुनीर ना अपना दर्जा ऐसा बना लिया है, जो उन्हें भविष्य में कई तरीके से फायदा पहुंचाएगा। फील्ड मार्शल के तौर पर हालिया संवैधानिक संशोधन के बाद अब कानून भी उन्हें नहीं छू सकता। ऐसा दर्जा ना तो ज़िया-उल-हक़ को मिला और ना ही मुशर्रफ़ को। कम से कम इतने स्पष्ट रूप से उन्हें ये विशेषाधिकार नहीं मिले। पिछले तीन सालों में, मुनीर ने अपनी सत्ता मज़बूत करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद का हर हथकंडा अपनाया। जहां ज़रूरत हुई, वहां चालाकी से काम लिया। कई मौकों पर वो सरकार के लिए काम करते दिखे। इमरान ख़ान की पार्टी पीटीआई के नेतृत्व वाले राजनीतिक विपक्ष को बेअसर करने में सेना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सरकार ने भी बदले में मुनीर को तोहफा दिया। न्यायिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगा दिया गया है। विधायिका को भी एक तरह से सेना के अधीन कर दिया गया है। मुनीर को अपने कार्यकाल और विरासत की गारंटी दे दी गई है। ये सैन्य प्रतिष्ठान द्वारा किया गया एक ऐसा तख्तापलट है, जो इस्लामाबाद की सड़कों पर टैंक तैनात किए बिना या कुख्यात 111वीं इन्फैंट्री ब्रिगेड को सक्रिय किए बिना ही हासिल किया गया है।
पिछले तीन साल में, पाकिस्तान में लोकतांत्रिक पतन अभूतपूर्व स्तर पर पहुंच गया है। विवादास्पद संवैधानिक संशोधनों के पारित होने, न्यायपालिका के कमज़ोर होने, मानवाधिकारों के व्यापक उल्लंघन, राष्ट्रीय चुनावों में धांधली, नागरिकों और राजनीतिक विपक्ष के ख़िलाफ़ अत्यधिक बल प्रयोग ने पाकिस्तान में लोकतंत्र को बहुत कमज़ोर कर दिया है। फिर भी, दिलचस्प बात ये है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र के ख़ात्मे पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया उदासीन रही है। पश्चिमी देश पाकिस्तान के मामले में हल्की-फुल्की कूटनीतिक फुसफुसाहट तक ही सीमित रह गए हैं। आमतौर पर ये पश्चिमी देश लोकतांत्रिक मानदंडों के समर्थन में मुखर रहते हैं। हैरानी की बात ये है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र को कमज़ोर करने वाली सेना की स्वीकृति पश्चिमी देशों की राजधानियों में बढ़ रही है, खासकर वॉशिंगटन से तो पाकिस्तानी सेना और आसिम मुनीर को समर्थन मिल रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने मुनीर की खुलकर प्रशंसा की है, उन्हें अपना 'पसंदीदा फील्ड मार्शल' बताया, और आधिकारिक तौर पर व्हाइट हाउस में उनका स्वागत किया। हालांकि, एक वास्तविकता ये भी रही है कि पाकिस्तान में सैन्य शासन को अमेरिका हमेशा से बढ़ावा देता रहा है। इसकी एक बड़ी वजह ये है कि सैन्य शासक से डील करने में अमेरिका को आसानी होती है। सैन्य शासकों से अमेरिका अपने मनमुताबिक नीतियां बनवा लेता है। अमेरिका की इस स्वीकृति ने मुनीर के आत्मविश्वास को और मज़बूत किया है। माना जा रहा है कि अमेरिका द्वारा पीठ थपथपाने के बाद मुनीर साहसिक घरेलू कदम उठाएंगे। आस-पड़ोस में, विशेषकर भारत और अफगानिस्तान के प्रति, और ज़्यादा आक्रामक रुख़ अपनाएंगे।
मुनीर को मज़बूत करने वाला ये संविधान संशोधन पाकिस्तान की लोकतांत्रिक साख पर एक गंभीर चोट है। पाकिस्तान में मुनीर का गज़ब का दबदबा बना हुई है, क्योंकि वे अभी भी एपॉलेट पहने हुए हैं। एपॉलेट यानी सेना की वर्दी में लगी वो पट्टी, जिसमें रैंक दिखाने वाले स्टार लगे होते हैं। एक ज़माने में न्यायपालिका पाकिस्तान में प्रतिरोध का प्रतीक थी, उसे भी कानूनों में बदलाव के ज़रिए चुप करा दिया गया है। पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के पास संविधान के मूल ढांचे के उल्लंघन की स्थिति में संविधान की अंतिम व्याख्याकार के रूप काम करने की ताक़त थी, लेकिन अब इस शक्ति को भी कमज़ोर कर दिया गया है। खास बात ये है कि, संविधान में संशोधन करने का संसद को पूर्ण अधिकार नहीं है। संसद ने सेना के दबाव में अपनी ईमानदारी से समझौता किया है, संसदीय सत्ता का मज़ाक उड़ाया है, जबकि मुख्यधारा के राजनीतिक दलों ने या तो स्वेच्छा से मौन स्वीकृति देकर या खुद को शक्तिहीन होने देकर अपरिपक्वता का सबूत दिया है। सत्ता प्रतिष्ठान ने अपनी विशेषाधिकार प्राप्त स्थिति को नियंत्रित और संरक्षित करने के लिए लोकतंत्र की बुनियाद को कमज़ोर किया है। उसने राजनीतिक और सैन्य अभिजात वर्ग के बीच सहजीवी संरक्षक-ग्राहक संबंध का इस्तेमाल, दबाव और प्रोत्साहन के ज़रिए किया है।
पाकिस्तान में सेना के सामने सरेंडर क्यों करते हैं सियासतदान?
हालांकि, पाकिस्तान में सेना के सामने नागरिक संस्थाओं का सरेंडर हैरान नहीं करता, लेकिन एक व्यक्ति और एक संस्था में सत्ता का अति-केंद्रीकरण देश को दीर्घकालिक अस्थिरता की ओर धकेलता है। वैसे भी, पाकिस्तान के इतिहास में इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि जब संस्थागत संतुलन बिगड़ता है, तो आखिरकार किसी न किसी रूप में प्रतिक्रिया भड़कती है। फिर चाहे वो सेना के भीतर से हो, सड़कों पर हो, या अनपेक्षित संकटों के माध्यम से हो। हालांकि, पारदर्शिता और समावेशिता के अभाव वाले माहौल में मुनीर के प्रभुत्व को फिलहाल कोई चुनौती मिलती नहीं दिखती।
कुल मिलाकर, एक तरफ पाकिस्तान के आम लोग संविधान की खाल ओढ़े मार्शल लॉ में अपने लोकतांत्रिक अधिकारों में कटौती होते देख रहे हैं, वहीं पाकिस्तान मुस्लिम लीन ने सेना से समझौता कर लाहौर में मरियम नवाज़ और इस्लामाबाद में शाहबाज़ शरीफ के नेतृत्व वाली अपनी सरकारों की निरंतरता सुनिश्चित की है। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने भी भ्रष्टाचार के अनगिनत मामलों में घिरे आसिफ अली ज़रदारी के लिए छूट हासिल की है। हालांकि, इमरान खान पाकिस्तान की राजनीति में एक लोकप्रिय शख्सियत बने हुए हैं, फिर भी उन्हें और पीटीआई को अभी भी बहुत कम रियायत मिली हुई है। मुनीर द्वारा खुद को सत्ता में लाना अब कोई नई बात नहीं है, लेकिन विश्लेषकों के मुताबिक, ऑपरेशन बनयान अल मरसूस के बाद मुनीर को आम जनता से जो सद्भावना और समर्थन मिला था, वो कम हो गया है। वैसे भी पाकिस्तानी जनता का एक बड़ा तबका असीम मुनीर से नाराज़ है, विशेषरूप से इमरान खान के समर्थकों को लगता है कि उनके नेता को सेना के कहने पर ही जेल भेजा गया।
भारतीय दृष्टिकोण से भी देखें तो, पाकिस्तानी राजनीति, विदेश नीति और रणनीतिक हितों पर सैन्य प्रतिष्ठान के मज़बूत होने से नुकसान ही होगा। मई 2025 में भारत-पाकिस्तान के बीच हुए संघर्ष के बाद से ही दोनों देशों के संबंध तनावपूर्ण बने हुए हैं। सत्ता पर सेना की पकड़ से तनाव और बढ़ेगा। वॉशिंगटन और रावलपिंडी के बीच बढ़ते सुधरते संबंधों के साथ ही, पाकिस्तानी सेना में राष्ट्रवाद का उत्साह चरम पर है। इसके अलावा, भारत भी पाकिस्तान के प्रति अपने सख्त रुख़ को बरकरार रखेगा। पाकिस्तान की सैन्य सत्ता के साथ भारत किसी तरह का संबंध नहीं रखना चाहता। 12 नवंबर 2025 को दिल्ली में हुए लाल किले पर हुए हालिया आतंकी हमले ने रिश्तों में अविश्वास को और गहरा कर दिया है। इस हमले को कश्मीरी कट्टरपंथी तत्वों ने अंजाम दिया, और भारत का मानना है कि इसमें पाकिस्तान का भी हाथ है। इस हमले के बाद पहले से ही तनावपूर्ण भारत-पाकिस्तान के संबंध और भी अस्थिर हो गए हैं। इनमें किसी तरह के सुधार की गुंजाइश नहीं दिखती।
राजीव सिन्हा कैबिनेट सचिवालय में पूर्व विशेष सचिव और ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन में डिस्टिंग्विश्ड फेलो हैं। वे भारत के पड़ोसी देशों और सुरक्षा मुद्दों के एक्सपर्ट हैं। साथ ही सरल शर्मा पहले एनएससीएस में काम करते थे। वो अभी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में सिक्योरिटी स्टडीज़ में पीएचडी कर रहे हैं। हम यह आलेख ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन का आभार व्यक्त करते हुए पुनः प्रकाशित कर रहे हैं।