नया तेल, नया खेल
संदीप कुमार
| 01 Dec 2025 |
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बेलेम, ब्राजील में चल रहे कॉप-30 के मंच पर जब दुनिया भर के नीति-निर्माता इस गुणा-भाग में उलझे थे कि ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए किसकी जेब से कितना पैसा निकलेगा, तब भारत ने एक बेबाक हुंकार भरी। केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने स्पष्ट शब्दों में विकसित देशों को आईना दिखाते हुए कहा— 'वादे पूरे करने का वक्त आ गया है।' उन्होंने दो टूक कहा कि विकसित देशों को अपने 'नेट ज़ीरो' लक्ष्यों को मौजूदा समय-सीमा से बहुत पहले हासिल करना होगा और जलवायु वित्तपोषण के नाम पर अरबों नहीं, बल्कि खरबों डॉलर की मदद देनी होगी।
यही नहीं, भारत ने साफ कर दिया कि जलवायु तकनीक सस्ती और सुलभ होनी चाहिए, जिस पर बौद्धिक संपदा की बेड़ियाँ न जकड़ी हों। भारत की यह आक्रामकता अकारण नहीं है। नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में भारत ने 500 गीगावाट की स्थापित बिजली क्षमता को पार कर लिया है, जिसमें आधे से अधिक हिस्सा स्वच्छ ऊर्जा का है।
हालांकि, जलवायु परिवर्तन की यह वैश्विक चर्चा अब केवल कार्बन उत्सर्जन और वित्त पोषण तक सीमित नहीं रही है। अब सबका ध्यान उस अदृश्य मगर निर्णायक पहलू की ओर मुड़ गया है जो इस स्वच्छ ऊर्जा क्रांति की धड़कन है—वे खनिज, जिनसे भविष्य की ऊर्जा चलनी है। भारत के लिए, जो अभी भी लिथियम, कोबाल्ट, निकल और 'रेयर अर्थ एलिमेंट्स' के लिए आयात पर भारी निर्भरता रखता है, यह एक रणनीतिक और निर्णायक मोड़ है।
इसी साल, यानी 2025 में, नई दिल्ली ने 'राष्ट्रीय महत्वपूर्ण खनिज मिशन' का आगाज किया है। इसका तर्क सीधा और सरल है: अगर आपके पास बैटरी, सोलर पैनल, विंड टर्बाइन और हाइड्रोजन इलेक्ट्रोलाइजर बनाने के बुनियादी 'ब्लॉक' ही नहीं होंगे, तो भारत की कम कार्बन उत्सर्जन वाली महत्वाकांक्षाएं आपूर्ति की असुरक्षा में दम तोड़ देंगी। दांव बहुत बड़ा है। विश्व व्यापार संगठन के आंकड़े बताते हैं कि ऊर्जा से जुड़े महत्वपूर्ण खनिजों का व्यापार जो वर्ष 2000 में 53 अरब डॉलर था, वह 2022 में बढ़कर 378 अरब डॉलर हो गया है।
विडंबना यह है कि भारत अभी भी कम से कम दस आवश्यक खनिजों के लिए शत-प्रतिशत आयात पर निर्भर है, जिनमें लिथियम और कोबाल्ट जैसे महत्वपूर्ण तत्व शामिल हैं। इस परिदृश्य में, कॉप-30 ने भारत को एक कूटनीतिक अवसर प्रदान किया है कि वह घरेलू औद्योगीकरण को खनिजों की बहुपक्षीय आपूर्ति शृंखला से जोड़े, और केवल एक खरीदार की भूमिका से ऊपर उठकर वैश्विक नियमों का सह-निर्माता बने।
घरेलू स्तर पर भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने अपने कदम तेज कर दिए हैं और महत्वपूर्ण खनिजों की खोज परियोजनाओं की संख्या 118 से बढ़ाकर 196 कर दी है। लेकिन असली खेल सीमाओं के बाहर हो रहा है। भारत अब अपने पारंपरिक आपूर्तिकर्ताओं से आगे बढ़कर ब्राजील, अर्जेंटीना, नामीबिया, जिम्बाब्वे और ऑस्ट्रेलिया के साथ नए रिश्ते जोड़ रहा है। 'ऑल्टमिन-ब्राजील' परियोजना इसका एक सटीक उदाहरण है, जो स्पोड्यूमीन अयस्क को रिफाइन कर सालाना 32,000 टन लिथियम कार्बोनेट में बदलेगी। यह 'मिनरल्स सिक्योरिटी पार्टनरशिप' के तहत सूचीबद्ध होने वाला पहला भारतीय प्रोजेक्ट है, जो दर्शाता है कि भारत अब केवल 'कमोडिटी' खरीदने में नहीं, बल्कि साझा औद्योगिक क्षमता विकसित करने में विश्वास रखता है।
काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर के विश्लेषकों का मानना है कि चूंकि भारत के पास प्रमुख लिथियम-आयन बैटरी खनिजों के भंडार सीमित हैं, इसलिए स्थानीय प्रसंस्करण क्षमता का निर्माण करना समय की मांग है। नीतिगत स्तर पर, भारत सरकार 1,200 अन्वेषण परियोजनाओं को फास्ट-ट्रैक करने और 'ग्रीन मैन्युफैक्चरिंग' के लिए पीएलआई योजनाओं से जुड़े खनिज-प्रसंस्करण पार्क बनाने की दिशा में काम कर रही है। जलवायु नीति का यह 'खनिज आयाम' अब आर्थिक प्रतिस्पर्धा की कसौटी बन रहा है। जैसे-जैसे स्वच्छ ऊर्जा की ओर संक्रमण तेज हो रहा है, देश लिथियम, कोबाल्ट और निकल के भंडारों को सुरक्षित करने की होड़ में हैं। विश्लेषक चेतावनी दे रहे हैं कि ये खनिज 'नया तेल' बन सकते हैं। इसलिए नहीं कि इनके दाम अस्थिर हैं, बल्कि इसलिए कि अगर इनकी सप्लाई चेन पर पकड़ नहीं बनाई गई, तो दुनिया में फिर से वैसी ही भू-राजनीतिक असमानता पैदा हो सकती है।
भू-आर्थिक दृष्टि से देखें तो भारत के पास बाजार का आकार और सही समय, दोनों का संयोजन है। 2030 तक ऊर्जा की मांग में सालाना 3% की वृद्धि और 500 गीगावाट गैर-जीवाश्म क्षमता का लक्ष्य—इन दोनों को साधने के लिए खनिजों की आपूर्ति अनिवार्य है। चीन अभी भी इस बाजार का बेताज बादशाह है, जिसके पास दुर्लभ खनिजों की प्रोसेसिंग का 90 प्रतिशत हिस्सा है। ऐसे में भारत द्वारा ब्राजील, अफ्रीका और इंडो-पैसिफिक में पैर पसारना लंबी अवधि की 'डी-रिस्किंग' रणनीति है।
आंकड़े बताते हैं कि भारत की खनिज कूटनीति अब धीमी गति से नहीं चल सकती। 2025 से 2030 के बीच, देश में लिथियम और कोबाल्ट की मांग दो सौ गुना से अधिक बढ़ने वाली है, जबकि निकल का उपयोग लगभग छह गुना हो जाएगा। यह रुझान खनिजों को उसी स्थान पर खड़ा कर रहा है जहाँ कभी तेल हुआ करता था—शक्ति की एक रणनीतिक मुद्रा।
ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे ग्लोबल साउथ के अन्य देशों से सीखते हुए, भारत को भी केवल कच्चे माल के निर्यात से आगे बढ़कर स्थानीय स्तर पर मूल्य संवर्धन पर जोर देना होगा। हालांकि, संरचनात्मक बाधाएं अभी भी मौजूद हैं। भारत की घरेलू रिफाइनिंग क्षमता सीमित है, और तकनीकी साझेदारी को तेज करने की जरूरत है। इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस का सुझाव है कि 'मिड-स्ट्रीम' निर्भरता से बचने के लिए भारत को संयुक्त अनुसंधान और तकनीकी लाइसेंस हासिल करने होंगे।
साथ ही, आगामी 'राष्ट्रीय खनिज नीति 2025' में यह सुनिश्चित करना होगा कि स्वायत्तता की यह दौड़ पर्यावरण की कीमत पर न हो। कॉप-30 में 'ग्लोबल मिनरल्स इक्विटी' की वकालत करते हुए पारदर्शिता और श्रम अधिकारों को शामिल करना भारत को नैतिक बढ़त दिला सकता है।
अंततः, कॉप-30 में भारत की सक्रियता केवल संसाधन जुटाने के लिए नहीं है, बल्कि यह मूल्य-शृंखलाओं को फिर से परिभाषित करने की कवायद है। भारत अब एक मूक खरीदार या 'नीति प्रतिभागी' बनकर नहीं रहना चाहता, बल्कि वह तकनीकी साझेदारी और निवेश के माध्यम से उभरती हुई वैश्विक खनिज व्यवस्था का 'नियम-निर्माता' और वास्तुकार बनना चाहता है। ऊर्जा के नए विश्व क्रम में भारत की यह करवट अपरिहार्य भी है और आवश्यक भी।
मनीष वैद, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन में जूनियर फ़ेलो हैं, जिनकी शोध रुचियां रणनीतिक ऊर्जा विषयों और हरित (ग्रीन) ऊर्जा से संबंधित हैं। उनका यह आलेख, जो मूलतः RT में प्रकाशित हुआ था, साभार प्रस्तुत है।