रूसी दांव, अमेरिकी चाल भारत से दोस्ती की 'अग्निपरीक्षा'
संदीप कुमार
| 01 Dec 2025 |
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सर्दियों की दस्तक के साथ ही मॉस्को की फिजाओं में एक अलग तरह की कूटनीतिक सरगर्मी महसूस की जा रही है। 17 नवंबर को जब रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने अपने भारतीय समकक्ष डॉ. एस. जयशंकर का स्वागत किया, तो वह मुलाकात महज एक औपचारिक रस्म अदायगी नहीं थी, और न ही यह शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक के हाशिए पर हुई कोई सामान्य बातचीत थी। कूटनीतिक गलियारों में इस बात की सुगबुगाहट बहुत स्पष्ट है कि दोनों दिग्गज दरअसल उस विशाल शतरंज की बिसात बिछा रहे थे, जिस पर अगले महीने दुनिया के दो सबसे ताकतवर नेताओं में से एक, व्लादिमीर पुतिन और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुलाकात होनी है। यह बैठक दिसंबर के पहले हफ्ते में नई दिल्ली में होने वाले उस महा-आयोजन की प्रस्तावना है, जिस पर न केवल एशिया, बल्कि पूरी पश्चिमी दुनिया की बाज जैसी निगाहें टिकी हुई हैं।
यह दौर सामान्य नहीं है। यह वह दौर है जब भू-राजनीतिक समीकरण हर रोज अपनी केंचुली बदल रहे हैं। एक तरफ मॉस्को है, जो पश्चिमी प्रतिबंधों के अभूतपूर्व किलेबंदी को भेदकर अपने पुराने मित्र के साथ रिश्तों को नया आयाम देना चाहता है, और दूसरी तरफ वाशिंगटन डीसी में सत्ता परिवर्तन के बाद एक नया और आक्रामक अमेरिका खड़ा है। राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का आगामी भारत दौरा कई मायनों में ऐतिहासिक और संवेदनशील है। यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से यह पहला मौका होगा जब पुतिन भारतीय सरजमीं पर कदम रखेंगे। यह यात्रा एक ऐसे नाजुक मोड़ पर हो रही है, जब सात समंदर पार व्हाइट हाउस में बैठे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत की 'रणनीतिक स्वायत्तता' को अपनी शर्तों पर तोड़ने के लिए आमादा नजर आ रहे हैं। बाहरी दबावों के इस बवंडर के बीच, मॉस्को और नई दिल्ली का यह मिलन केवल द्विपक्षीय वार्ता नहीं, बल्कि एक भू-राजनीतिक घोषणापत्र है कि पुरानी दोस्ती को अमेरिका की दखलअंदाजी या धमकियों से डिगाया नहीं जा सकता।
दिसंबर के इस कूटनीतिक महाकुंभ की पटकथा 7 नवंबर को ही लिखी जाने लगी थी, जब जयशंकर ने नई दिल्ली में रूस के उप-विदेश मंत्री आंद्रेई रुडेनको के साथ मैराथन बैठक की थी। कूटनीति में संकेतों का बड़ा महत्व होता है। उस बैठक के बाद रूसी विदेश मंत्रालय द्वारा जारी बयान और बाद में क्रेमलिन के प्रवक्ता दिमित्री पेस्कोव की टिप्पणी कि 'हम पुतिन की यात्रा की सक्रिय तैयारी कर रहे हैं', इस बात का परिचायक है कि मॉस्को इस यात्रा को लेकर किस हद तक गंभीर है। पेस्कोव का यह रहस्यमयी अंदाज में कहना कि 'समझौतों की घोषणा उचित समय पर की जाएगी', यह इशारा करता है कि पर्दे के पीछे कुछ बड़े समझौतों की इबारत लिखी जा चुकी है, जो दुनिया को चौंका सकती है।
आगामी 4 और 5 दिसंबर 2025 को नई दिल्ली में होने वाला 'रूस-इंडिया फोरम' और 23वाँ शिखर सम्मेलन केवल हाथ मिलाने और फोटो खिंचवाने का मंच नहीं होगा। इसके एजेंडे की गहराई को समझना आवश्यक है। रॉसकांग्रेस और रूस के उद्योग एवं वाणिज्य उपमंत्री अलेक्सी ग्रूज़देव के बयानों का विश्लेषण करें तो साफ पता चलता है कि रूस अब केवल हथियारों और कच्चे तेल का विक्रेता बनकर नहीं रहना चाहता। पश्चिमी बाजारों के दरवाजे बंद होने के बाद, रूस भारत को एक दीर्घकालिक आर्थिक साझेदार के रूप में देख रहा है। वे भारतीय बाज़ार में अपनी भारी मशीनरी, तकनीकी उत्पाद और यहाँ तक कि कृषि उत्पादों को उतारना चाहते हैं। बदले में, वे भारत से केवल पैसा नहीं, बल्कि डिजिटल सेवाएँ, फार्मास्युटिकल्स और सबसे महत्वपूर्ण—मानव संसाधन चाहते हैं।
इस शिखर सम्मेलन का सबसे दिलचस्प और दूरगामी पहलू 'श्रम गतिशीलता समझौता' (लेबर मोबिलिटी एग्रीमेंट) हो सकता है। रूस जनसांख्यिकीय संकट से जूझ रहा है और उसे अपने उद्योगों को चलाने के लिए कामगारों की सख्त जरूरत है, जबकि भारत के पास विश्व का सबसे बड़ा युवा कार्यबल है। यदि यह समझौता परवान चढ़ता है, तो आने वाले वर्षों में बड़ी संख्या में भारतीय पेशेवर और श्रमिक रूस के निर्माण, ऊर्जा और सेवा क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराएंगे। यह संबंध को खरीदार-विक्रेता से बदलकर एक गहरे सामाजिक-आर्थिक एकीकरण की ओर ले जाने वाला कदम होगा।
हालाँकि, भारत और रूस के इस गुलाबी भविष्य की तस्वीर में अमेरिका का अड़ंगा किसी काले अध्याय की तरह जुड़ा हुआ है। जनवरी में डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता संभालने के बाद से ही वाशिंगटन का रुख नई दिल्ली के प्रति आक्रामक और ट्रांजेक्शनल हो गया है। ट्रंप प्रशासन ने कूटनीतिक शिष्टाचारों को दरकिनार करते हुए सीधे तौर पर आर्थिक युद्ध की भाषा बोलनी शुरू कर दी है। ट्रंप का यह स्पष्ट कथन कि वे भारत को रूसी तेल खरीदने से रोकने के लिए विवश करेंगे, केवल कोरी धमकी नहीं थी। 6 अगस्त को अमेरिका द्वारा रूसी तेल खरीद पर भारत पर 25 फीसदी अतिरिक्त शुल्क लगाना और 22 अक्टूबर को रोसनेफ्ट और लुकोइल जैसी 34 दिग्गज रूसी कंपनियों पर नए प्रतिबंध थोपना यह साबित करता है कि अमेरिका अपने 'दुश्मनों' के साथ व्यापार करने वाले मित्रों को भी बख्शने के मूड में नहीं है।
इसका सीधा असर भारतीय अर्थव्यवस्था और ऊर्जा सुरक्षा पर पड़ना शुरू हो गया है। भारतीय तेल कंपनियाँ, जो अब तक रूस से सस्ता तेल खरीदकर भारी मुनाफा कमा रही थीं और देश में ईंधन की कीमतों को नियंत्रित रख पा रही थीं, अब अमेरिकी प्रतिबंधों के डर से सहमी हुई हैं। स्पॉट मार्केट से तेल के विकल्प खोजना न केवल महंगा है, बल्कि यह भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिए भी एक चुनौती है। स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ऑयल इंडिया कॉर्पोरेशन जैसी नवरत्न कंपनी का लगभग 300 मिलियन डॉलर का लाभांश रूसी बैंकों में फँस कर रह गया है, जिसे अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के कारण भारत लाना असंभव हो रहा है। ये कंपनियाँ अब आगामी शिखर बैठक की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रही हैं कि शायद पुतिन और मोदी कोई ऐसा वित्तीय रास्ता निकालें जो डॉलर के वर्चस्व और अमेरिकी प्रतिबंधों की काट बन सके।
वलदाई चर्चा मंच से पुतिन का यह तर्क बेहद वजनदार और आर्थिक यथार्थ के करीब है कि यदि भारत अमेरिकी दबाव में आकर रूसी ऊर्जा उत्पादों से मुँह मोड़ता है, तो उसे 9 से 10 अरब डॉलर तक का सीधा नुकसान होगा। और विडंबना यह है कि यदि वह अमेरिकी आदेश को मान भी ले, तो भी उस नुकसान की भरपाई अमेरिका नहीं करेगा, बल्कि उल्टा शुल्क के रूप में और धन वसूलेगा। पुतिन का यह प्रश्न कि 'फिर ऐसा करने का औचित्य क्या है?', भारतीय नीति निर्माताओं के मन में भी गूँज रहा है। दूसरी ओर, डोनाल्ड ट्रंप और उनकी टीम दबाव को चरम सीमा तक ले जाने की रणनीति पर काम कर रही है। ट्रंप द्वारा अमेरिकी कांग्रेस के उस विधेयक का समर्थन करना, जिसमें 'सेकेंडरी सैनक्शंस' का प्रावधान है, भारत के लिए खतरे की घंटी है। 500 फीसदी तक के आयात शुल्क का डर दिखाकर अमेरिका भारत को घुटने टेकने पर मजबूर करना चाहता है। यह केवल तेल की बात नहीं है; यह भारत की संप्रभुता और स्वतंत्र विदेश नीति पर सीधा हमला है। अमेरिका चाहता है कि भारत अपनी गुटनिरपेक्षता की पुरानी नीति को छोड़कर पूरी तरह से उसके पाले में खड़ा हो जाए, भले ही इसके लिए उसे अपने पुराने और विश्वसनीय मित्र रूस की बलि क्यों न चढ़ानी पड़े।
इतिहास के पन्नों को पलटें तो ठीक पच्चीस साल पहले, अक्टूबर 2000 में जब अटल बिहारी वाजपेयी और व्लादिमीर पुतिन ने रणनीतिक साझेदारी की घोषणा पर हस्ताक्षर किए थे, तब भी दुनिया बदल रही थी, लेकिन भारत और रूस एक-दूसरे के साथ खड़े थे। उस समझौते ने तय किया था कि शीर्ष नेताओं की वार्षिक बैठकें बिना किसी बाधा के होंगी। पिछले पाँच वर्षों में, विशेषकर यूक्रेन युद्ध और कोविड के बाद, यह परंपरा बाधित जरूर हुई है। 2021 में पुतिन की आखिरी भारत यात्रा के बाद से दुनिया बहुत बदल चुकी है। 2023 में G20 के दौरान पुतिन का न आना और लावरोव का प्रतिनिधित्व करना, कहीं न कहीं रिश्तों में आई व्यावहारिक जटिलताओं का संकेत था। लेकिन अब, जब पुतिन खुद दिल्ली आ रहे हैं, तो यह उस 'अंतराल' को भरने की कोशिश है।
आगामी शिखर सम्मेलन में लॉजिस्टिक्स, भुगतान व्यवस्था और व्यापार असंतुलन जैसे नीरस लगने वाले मुद्दे दरअसल इस रिश्ते की जीवनरेखा हैं। जब तक दोनों देश डॉलर से इतर भुगतान का कोई ठोस तंत्र (जैसे डिजिटल मुद्रा या विशेष रुपया-रूबल व्यवस्था का नया संस्करण) विकसित नहीं कर लेते, तब तक उनकी रणनीतिक साझेदारी अमेरिकी प्रतिबंधों की तलवार के नीचे लटकी रहेगी। विशाखापट्टनम में रूसी उपमंत्री का आना और चेन्नई-व्लादिवोस्तोक समुद्री गलियारे पर जोर देना इसी रणनीति का हिस्सा है कि व्यापार के लिए ऐसे रास्ते खोले जाएं जो पश्चिमी निगरानी से दूर हों।
निष्कर्षतः, दिसंबर में होने वाला यह शिखर सम्मेलन भारत के लिए एक कठिन कूटनीतिक परीक्षा साबित होगा। एक तरफ रूस के साथ दशकों पुराने विश्वास और भविष्य की ऊर्जा जरूरतों का सवाल है, तो दूसरी तरफ अमेरिका के साथ बढ़ते व्यापारिक रिश्ते और उसकी नाराजगी का डर। प्रधानमंत्री मोदी और उनकी टीम को एक ऐसी बारीक लकीर पर चलना होगा जहाँ वे रूस के साथ अपने संबंधों को गहरा भी कर सकें और अमेरिका के आर्थिक प्रतिबंधों के जाल में फँसने से भी बच सकें। मॉस्को से लेकर दिल्ली तक बिछी यह बिसात और वाशिंगटन की टेढ़ी नज़र यह बता रही है कि आने वाला महीना भारतीय विदेश नीति की दशा और दिशा तय करने वाला है। क्या भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता को बचा पाएगा या उसे महाशक्तियों के टकराव में कोई एक पक्ष चुनने के लिए विवश होना पड़ेगा? उत्तर भविष्य के गर्भ में है, लेकिन इतना तय है कि इस बार की सर्दियाँ कूटनीतिक तापमान को बहुत बढ़ा देंगी।
यह लेख रूसी समाचारपत्र कोमर्सांट के वरिष्ठ स्तंभकार सेर्गेई स्त्रोकिन द्वारा लिखित मूल आलेख के तथ्यों एवं संदर्भों पर आधारित है। उनके अध्यवसाय एवं शोध के प्रति कल्ट करंट आभार व्यक्त करते हुए पुनः प्रकाशित कर रहा है।