भारत-पाक-अफगानिस्तानः उभरता त्रिकोण
संदीप कुमार
| 01 Dec 2025 |
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इतिहास के पन्नों में अक्सर ऐसे मोड़ आते हैं जब भू-राजनीतिक समीकरण अपनी ही धुरी पर पूरी तरह से घूम जाते हैं, और दक्षिण एशिया इस समय ठीक उसी निर्णायक और विडंबनापूर्ण क्षण का गवाह बन रहा है। नवंबर 2025 का यह महीना अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में एक विरोधाभास की उत्कृष्ट मिसाल बनकर उभरा है। एक तरफ जहां पाकिस्तान और अफगानिस्तान की 2600 किलोमीटर लंबी डूरंड लाइन बारूद के धुएं, हवाई हमलों और मासूम बच्चों की चीखों से गूंज रही है, वहीं दूसरी तरफ नई दिल्ली के शांत और सुरक्षित गलियारों में तालिबान प्रशासन के उद्योग और वाणिज्य मंत्री अल्हाज नूरुद्दीन अजीजी का स्वागत किया जा रहा था। यह महज एक यात्रा नहीं थी, बल्कि यह रावलपिंडी के उन जनरलों के लिए एक कड़वा यथार्थ था, जिन्होंने 2021 में काबुल पर तालिबान के कब्जे को अपनी रणनीतिक जीत बताया था। आज, वही काबुल अपनी आर्थिक और सामरिक सांसें बहाल करने के लिए इस्लामाबाद की ओर नहीं, बल्कि नई दिल्ली की ओर देख रहा है।
पाकिस्तान के लिए यह स्थिति किसी दुःस्वप्न से कम नहीं है। 2021 में जब अमेरिकी सेना अफगानिस्तान छोड़कर जा रही थी, तब तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने इसे 'गुलामी की जंजीरें तोड़ने' वाला क्षण बताया था। पाकिस्तानी प्रतिष्ठान को लगा था कि उन्होंने अपनी पश्चिमी सीमा पर हमेशा के लिए 'स्ट्रैटेजिक डेप्थ' (रणनीतिक गहराई) हासिल कर ली है और अब अफगानिस्तान भारत के प्रभाव से मुक्त होकर पाकिस्तान का एक सेटेलाइट स्टेट बन जाएगा। लेकिन, चार साल बाद की तस्वीर बिल्कुल उलट है। आज पाकिस्तान अपनी उसी पश्चिमी सीमा पर अपने इतिहास के सबसे भीषण अस्तित्वगत संकट से जूझ रहा है। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के हमले, जिन्हें इस्लामाबाद 'फितना अल-खवारिज' कहता है, पाकिस्तानी सुरक्षा बलों का खून बहा रहे हैं। पेशावर, इस्लामाबाद और दक्षिण वजीरिस्तान में हो रहे आत्मघाती हमले इस बात का प्रमाण हैं कि पाकिस्तान ने जिस सांप को अपनी आस्तीन में पाला था, वह अब उसी को डस रहा है।
इस खूनी संघर्ष के बीच, अफगानिस्तान का भारत की ओर मुड़ना एक सामान्य कूटनीतिक घटनाक्रम नहीं, बल्कि एक गहरा रणनीतिक बदलाव है। 19 नवंबर को जब मंत्री अजीजी पांच दिवसीय यात्रा पर नई दिल्ली पहुंचे, तो यह संदेश स्पष्ट था कि काबुल अब पाकिस्तान के 'ब्लैकमेल' से थक चुका है। पाकिस्तान द्वारा बार-बार सीमा बंद करने, अफगान व्यापारियों के फलों और सब्जियों को ट्रकों में सड़ाने और राजनीतिक दबाव बनाने की रणनीति ने अफगान नेतृत्व को विकल्पों की तलाश करने पर मजबूर कर दिया है। और वह विकल्प भारत के रूप में सामने आया है। भारत ने भी पुरानी झिझक को त्यागते हुए यथार्थवादी कूटनीति का परिचय दिया है। विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव आनंद प्रकाश द्वारा अजीजी का स्वागत करना और उन्हें इंडिया इंटरनेशनल ट्रेड फेयर (आईआईटीएफ) में प्रमुखता देना, भारत की बदली हुई अफगान नीति का संकेत है। भारत ने अक्टूबर 2025 में काबुल में अपने मिशन को पूर्ण दूतावास का दर्जा देकर यह साफ कर दिया है कि वह वहां की सत्ता के स्वरूप से परे जाकर, अफगान जनता और अपने रणनीतिक हितों के साथ जुड़ा रहेगा।
इस नए रिश्ते की धुरी 'कनेक्टिविटी' है, जो पाकिस्तान को दरकिनार करती है। अजीजी की यात्रा का मुख्य उद्देश्य उन वैकल्पिक मार्गों को सुदृढ़ करना था जो पाकिस्तान पर अफगानिस्तान की निर्भरता को खत्म कर सकें। भारत और अफगानिस्तान अब दो समर्पित कार्गो फ्लाइट रूट्स के जरिए हवाई व्यापार को पूरी क्षमता से शुरू करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। दिल्ली और अमृतसर के लिए काबुल से सीधी उड़ानें केवल व्यापारिक मार्ग नहीं हैं, बल्कि ये एक 'हवाई सेतु' हैं जो पाकिस्तान की भौगोलिक नाकेबंदी को तोड़ते हैं। सूखे मेवे, हींग, कालीन और कीमती पत्थर, जो पहले वाघा बॉर्डर पर पाकिस्तान की मनमानी का शिकार होते थे, अब सीधे भारतीय बाजारों में पहुंच रहे हैं। इसके साथ ही, चाबहार बंदरगाह का रणनीतिक महत्व फिर से केंद्र में आ गया है। यद्यपि अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण ईरान के रास्ते व्यापार में चुनौतियां हैं, लेकिन काबुल और नई दिल्ली दोनों ही इस 'मल्टीमॉडल कॉरिडोर' को सक्रिय रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं। यह पाकिस्तान के लिए एक बड़ा आर्थिक झटका है, क्योंकि अफगान नेतृत्व ने अपने व्यापारियों को स्पष्ट निर्देश दे दिया है कि वे पाकिस्तानी रास्तों का उपयोग कम करें और भारत तथा मध्य एशिया के विकल्पों पर ध्यान दें।
दूसरी ओर, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच तनाव 'हॉट वॉर' में तब्दील हो चुका है। खोस्त और कुनार प्रांतों में पाकिस्तानी वायुसेना द्वारा किए गए हवाई हमलों में महिलाओं और बच्चों की मौत ने अफगान जनमानस में पाकिस्तान के प्रति नफरत को चरम पर पहुंचा दिया है। तालिबान, जो कभी पाकिस्तान का सहयोगी माना जाता था, अब पाकिस्तान पर अपनी संप्रभुता के उल्लंघन का आरोप लगा रहा है। तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद का बयान कि 'पाकिस्तानी हमलावर ताकतों ने नागरिकों को निशाना बनाया,' दोनों देशों के बीच की खाई को पाटने की किसी भी संभावना को खत्म करता दिखता है। दोहा और इस्तांबुल में कतर और तुर्की की मध्यस्थता में हुए संघर्ष विराम के प्रयास विफल हो चुके हैं क्योंकि बुनियादी मुद्दा अनसुलझा है। पाकिस्तान चाहता है कि तालिबान टीटीपी के खिलाफ कार्रवाई करे, जबकि तालिबान का कहना है कि टीटीपी पाकिस्तान की आंतरिक समस्या है और वह अपनी ही पश्तून बिरादरी के खिलाफ हथियार नहीं उठाएगा। यह गतिरोध एक स्ट्रक्चरल फॉल्ट लाइन बन चुका है जिसे भरना अब असंभव प्रतीत होता है।
इस परिदृश्य में भारत की भूमिका एक 'स्टेबलाइजर' और भरोसेमंद साझेदार की है। भारत ने 2021 के बाद से अफगान जनता को 50,000 मीट्रिक टन गेहूं, दवाइयां और मानवीय सहायता भेजकर जो 'सॉफ्ट पावर' अर्जित की है, वह अब रणनीतिक लाभ में बदल रही है। अफगान मंत्री का भारतीय व्यापारियों को खनन, पनबिजली और कृषि में निवेश के लिए आमंत्रित करना और करों में छूट का प्रस्ताव देना यह बताता है कि तालिबान प्रशासन भी यह समझ चुका है कि बंदूकों से सत्ता पाई जा सकती है, लेकिन देश चलाने के लिए अर्थव्यवस्था की जरूरत होती है, और वह अर्थव्यवस्था पाकिस्तान के साथ जुड़कर डूब रही है, जबकि भारत के साथ जुड़कर तैर सकती है। कूटनीतिक दृष्टिकोण से देखें तो भारत ने अत्यंत चतुराई से 'वेट एंड वॉच' की नीति को 'एक्टिव एंगेजमेंट' में बदल दिया है। भारत ने तालिबान को औपचारिक मान्यता दिए बिना भी उनके साथ कार्यात्मक संबंध स्थापित कर लिए हैं। यह भारत की सुरक्षा के लिए अनिवार्य है। एक शत्रुतापूर्ण पाकिस्तान और एक अस्थिर अफगानिस्तान का संयोजन भारत के लिए खतरनाक हो सकता था। लेकिन पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच की शत्रुता ने भारत को एक अवसर दिया है कि वह काबुल में अपने प्रभाव को पुनर्जीवित करे और यह सुनिश्चित करे कि अफगान धरती का इस्तेमाल भारत विरोधी गतिविधियों (विशेषकर कश्मीर में) के लिए न हो। पाकिस्तान का यह आरोप कि भारत टीटीपी और बलूच विद्रोहियों को समर्थन दे रहा है, उसकी अपनी बौखलाहट और विफलता का परिचायक है। सच्चाई यह है कि पाकिस्तान अपनी ही नीतियों के जाल में फंस गया है। उसने 'गुड तालिबान' और 'बैड तालिबान' के बीच जो फर्क किया था, वह अब मिट चुका है।
भविष्य की ओर देखें तो यह क्षेत्र एक बड़े भू-राजनीतिक पुनर्गठन की ओर बढ़ रहा है। यदि भारत-अफगानिस्तान हवाई गलियारा और चाबहार रूट सफल होता है, तो पाकिस्तान दक्षिण एशिया के व्यापारिक मानचित्र पर अप्रासंगिक हो जाएगा। अफगानिस्तान, जो 'एशिया का दिल' कहा जाता है, अगर पाकिस्तान के बजाय भारत और मध्य एशिया की ओर झुकता है, तो यह पाकिस्तान के 'कनेक्टिविटी हब' बनने के सपने का अंत होगा। अजीजी की भारत यात्रा के दौरान अफगान सिखों और हिंदुओं को वापस बुलाने और उन्हें सुरक्षा का आश्वासन देने की बात भी कही गई, जो भारत के सांस्कृतिक और मानवीय हितों के अनुरूप है।
निष्कर्षतः, दिल्ली में अफगान प्रतिनिधिमंडल की गर्मजोशी और डूरंड रेखा पर जलती आग इस बात का गवाह है कि 'ग्रेट गेम' का एक नया अध्याय लिखा जा रहा है। पाकिस्तान ने अफगानिस्तान को अपनी रणनीतिक गहराई बनाने की कोशिश की थी, लेकिन आज अफगानिस्तान पाकिस्तान के लिए एक रणनीतिक दलदल बन गया है। वहीं भारत, जिसने 2021 में काबुल से अपने राजनयिकों को वापस बुला लिया था, आज बिना एक भी गोली चलाए काबुल के दरबार में सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक भागीदार बनकर उभरा है। यह भारतीय कूटनीति की धैर्यवान और दूरदर्शी विजय है। आने वाले दिनों में, जैसे-जैसे पाकिस्तान अपनी आंतरिक हिंसा और आर्थिक दिवालियेपन से जूझेगा, नई दिल्ली और काबुल के बीच का रिश्ता दक्षिण एशिया की सुरक्षा और स्थिरता का एक नया ध्रुव बनकर उभरेगा। यह स्पष्ट है कि जब काबुल को उम्मीद की तलाश होती है, तो वह अब रावलपिंडी के जनरल हेडक्वार्टर्स की ओर नहीं, बल्कि नई दिल्ली के रायसीना हिल्स की ओर देखता है।