सूख रहा ईरान
संदीप कुमार
| 01 Dec 2025 |
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आज ईरान में पानी का जो संकट है, उसके बीज उसकी राजनीतिक यात्रा में छिपे हुए हैं। पहलवी के शासन-काल में, इस देश ने पूरा ज़ोर औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण पर लगाया। श्वेत क्रांति (1963) के जरिये, शाह ने ईरान को एक ऐसा आधुनिक और औद्योगिक देश बनाने का प्रयास किया जो पश्चिम की अर्थव्यवस्था को मज़बूती से टक्कर दे सके। उस समय खेती को न सिर्फ़ जानबूझकर नज़रंदाज़ किया गया बल्कि उसे प्राथमिकता से बाहर रखा गया। यह एक सोचा-समझा फ़ैसला था जिसमें पूंजी, श्रम और बुनियादी ढांचे का इस्तेमाल फैक्टरियों, तेल और भारी उद्योग में किया गया।
भूमि सुधार ने बड़ी जागीरों को छोटे-छोटे हिस्सों में बांट दिया और जमींदार-किसान के पारंपरिक रिश्ते ख़त्म कर दिए। समानता के उद्देश्य से किए गए इस सुधार ने खेती-किसानी के कामों को प्रभावित किया और ग्रामीण कुलीन वर्ग को अलग-थलग कर दिया। चूंकि पूंजी और सिंचाई के बुनियादी ढांचों का अभाव हो गया इसलिए कई छोटे किसानों ने शाह के आधुनिकीकरण को ईरान की पारंपरिक कृषि-व्यवस्था के ख़िलाफ़ माना।
यह नाराज़गी राजनीतिक विद्रोह के लिए महत्वपूर्ण साबित हुई। ऐसे ही नाराज़ गांव वालों और छोटे शहरों के लोगों ने 1979 की इस्लामी क्रांति का शुरुआती समर्थन किया। धार्मिक नेताओं ने इस नाराज़गी का फ़ायदा उठाया जिनमें अयातुल्ला खुमैनी भी शामिल थे जो एक मामूली ग्रामीण पृष्ठभूमि से आए थे। इस क्रांति के बाद, नीतियों में एक बड़ा बदलाव यह आया कि खेती सिर्फ़ आर्थिकी नहीं रही बल्कि राष्ट्रीय सच्चाई और क्रांतिकारी न्याय का वैचारिक प्रतीक बन गई।
ईरान-इराक युद्ध (1980-1988) ने इस बदलाव को और पुख्ता कर दिया। युद्ध के समय आत्मनिर्भरता ने ‘खोदकाफ़ाई’ की सोच को आगे बढ़ाया, जिसका अर्थ है आत्मनिर्भरता। खाद्यान्न का उत्पादन विदेशी निर्भरता के ख़िलाफ़ मज़बूती का प्रतीक बन गया। सरकार ने खेती को बड़े पैमाने पर बढ़ाने का फ़ैसला किया। बांध वगैरह बनाए गए और गेहूं, चावल व गन्ने जैसी पानी की अधिक खपत करने वाली फ़सलों को सब्सिडी दी गई, यहां तक कि सूखाग्रस्त इलाकों में भी।
शिया परंपरा में बताया जाता है कि कर्बला की लड़ाई के दौरान इमाम हुसैन और उनके परिवार व समर्थकों तक पानी की आपूर्ति रोक दी गई थी। उन्हें पानी तक पहुंचने न देना यहां का एक मज़बूत नैतिक प्रतीक है। क्रांति के बाद इसी प्रतीक ने कल्याणकारी नीति का आकार लिया और मुल्क ने यह एलान कर दिया कि किसी को भी पानी से रोका नहीं जाएगा। घरों तक पानी पहुंचाने में आने वाली बाधाएं कम की गईं और यह सुनिश्चित किया गया कि पानी कोई वस्तु नहीं रहे बल्कि लोगों का अधिकार बने। हालांकि, इस मज़हबी प्रतिबद्धता ने पानी के ज़्यादा इस्तेमाल को बढ़ावा दिया और जल संरक्षण के प्रति लोगों को उदासीन बना दिया। इस कारण यहां पानी की लंबे समय तक कमी रहने वाली परिस्थितियां पैदा हो गईं।
सांस्कृतिक और वैचारिक पहलू
ईरान में पानी सिर्फ़ कुदरती चीज़ नहीं हैं बल्कि एक वैचारिक रचना है जो उसकी क्रांति की पहचान है। इस्लामी गणराज्य सभी तक पानी और रोटी पहुंचाने को ईश्वर का इंसाफ़ और हुकूमत की करुणा मानता है। इस कारण ख़ास तौर से गांवों में खेती के लिए मिलने वाली सब्सिडी राजनीतिक समावेश और वफ़ादारी का ज़रिया बन गई। किसान को लंबे समय से ‘क्रांति का रखवाला’ माना जाता रहा है, वे अब सस्ती बिजली और सिंचाई के पानी से बेहिसाब लाभ उठाने लगे।
यह सिर्फ़ लोगों के लुभाने का रास्ता नहीं है बल्कि यह बताता है कि सरकार की गांवों में कितनी गहरी जड़ें हैं। शुरुआती नेतृत्व ने खेती-किसानी को एक पवित्र काम और एक क्रांतिकारी फ़र्ज़ माना। वे आत्मनिर्भरता को नैतिक गुण मानते थे। वे उद्योग को सामाजिक समानता से कम महत्व देते थे और काम करने की क्षमता के बजाय वफ़ादारी को अहमियत देते थे।
इस तरह रोटी यहां एक वैचारिक मुद्दा बन गई है। इसका पता अनगिनत फ़ारसी मुहावरों से भी चलता है, जो सम्मान, रोजी-रोटी और ईश्वरीय आशीर्वाद का आधार बनाकर तैयार किए गए हैं। इसलिए यह सुझाव देना कि रोटी या उसे बनाने वाले पानी को एक क़ीमती चीज़ मानना चाहिए, राजनीतिक रूप से अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। यही कारण है कि पानी की कीमतों में सुधार के प्रस्तावों को आमतौर पर ‘इस्लामी विरोधी’ या ‘कुलीनवादी’ कहकर नकार दिया जाता है।
फ़ारसी और इस्लामी संस्कृति में रोटी का जो प्रतीकात्मक महत्व है, उसने इस प्रतिबद्धता को और बढ़ा दिया है। यह सुनिश्चित करना कि ‘रोटी हमेशा मेज़ पर रहे’ और ‘किसी दूसरे देश से न आए’ एक सामाजिक अनुबंध और धार्मिक ज़िम्मेदारी, दोनों बन चुकी है।
इसी सोच ने नीतिगत गतिरोध भी बढ़ाए हैं। फ़ैसले लेने वाले, जिनमें से कई लोग नौकरशाही के बजाय क्रांति व युद्ध के समय की संस्थाओं से उभरे हैं, जल संकट को युद्ध के समय के नज़रिये से देखते हैं, और इस तरह वहां इसको सहना पड़ता था, जल का संरक्षण नहीं किया जाता। पानी की कमी तनाव की एक और वज़ह है, जिसके लिए भी नागरिकों को धैर्य का परिचय देना होता है। इस तरह की सोच सुधार-प्रक्रिया को कमज़ोर करती है। नतीजतन, सब्सिडी बनी रहती है, खपत भी जारी रहती है और वह कहानी, जो कभी देश व समाज को जोड़ती थी, आज स्थिरता के लिए ज़रूरी रणनीतिक योजना में बाधक बन रही है।
मौजूदा चुनौतियां
इन सबका नकारात्मक असर पड़ता है। ईरान का जल संकट अब ढांचागत, प्रशासनिक और सामाजिक पहलुओं को भी प्रभावित कर रहा है।
ढांचागत और औद्योगिक संघर्ष: क्रांति के बाद शुरुआत में जो सरकारें यहां बनीं, उन्होंने बांधों व नहरों पर काफ़ी ख़र्च किया, लेकिन ‘जल माफिया’ ने ऐसे बांध बनाए, जो शायद ही कभी पूरी तरह भरे गए। इसके कारण 1990 के दशक के बाद से मैदानी इलाकों में भूजल का स्तर गिरता गया और कभी उपजाऊ रही ज़मीनें धूल में बदलने लगीं। इससे भी गंभीर बात यह है कि अब राज्य नियामक भी है और प्रतिस्पर्धी भी। जल की भारी खपत करने वाले ईरान के कई उद्योग, जिनमें स्टील, पेट्रोकेमिकल और ऊर्जा क्षेत्र शामिल हैं, पूरी तरह सरकारी हैं या अर्ध-सैन्य प्रतिष्ठान। इस तरह सरकार को उन्हीं कमियों से फ़ायदा मिलता है, जिनको ठीक करने का ज़िम्मा उसके कंधों पर है। औद्योगिक जल के इस्तेमाल को रोकने वाले किसी भी सुधार से सरकार के राजस्व पर भी ख़तरा पैदा होगा।
भ्रष्टाचार और गैर-कानूनी तरीके से पानी निकालना: कुओं की बड़े पैमाने पर गैर-कानूनी खुदाई से पानी की कमी और बढ़ गई है। हजारों गैर-कानूनी कुओं से बिना रोक-टोक पानी निकाला जा रहा है। इनको अक्सर राजनेताओं का संरक्षण भी मिलता है। भ्रष्टाचार और कानून को मज़बूती से लागू न करने का मतलब है कि जहां कानून है, वहां भी वे मनमाने ढंग से लागू किए जा रहे हैं। यहां के अधिकारियों को ज़ुर्माना लगाने पर कोई ख़ास प्रोत्साहन नहीं दिया जाता और वे इस गठजोड़ से फ़ायदा उठाने लगते हैं।
तकनीकी ख़ामियां और नीतिगत जड़ता: ईरान-इराक युद्ध के बाद, कई पूर्व सैनिक सिविल सेवा में शामिल हुए। क्रांति करने के कारण उनको वफ़ादार ज़रूर माना गया, लेकिन उनके पास कोई तकनीकी नज़रिया नहीं है। यहां पानी संबंधी नीति तय करने का काम जल-विज्ञानी या अर्थशास्त्री का नहीं, बल्कि सैन्य और समान विचार रखने वाली हस्तियों के पास है। इसीलिए, जल संकट का समाधान युद्ध के समय की परिस्थितियों में ढूंढा जाता है- प्रतिक्रियाशील, कम समय वाला और सुधार के बजाय प्रतिरोध के रूप में।
आपातकालीन शासन: ईरान की व्यापक राजनीतिक संस्कृति इस उदासीनता को और मज़बूत बनाती है, क्योंकि वहां की सरकार लगातार आपातकालीन परिस्थितियों से मुकाबला करती रहती है। उसे प्रतिबंध, महंगाई, ऊर्जा की कमी और सामाजिक अशांति, सब पर एक साथ काम करना पड़ता है। इस कारण जल संकट को ठीक करने के उपायों को ज़्यादा महत्व नहीं मिल पाता। यहां निवेश रणनीति को लेकर भी एकराय नहीं है और लंबे समय के लिए जलग्रहण क्षेत्र का प्रबंधन करने के बजाय बांध बनाने जैसी परियोजनाओं को अहमियत दी जाती है, क्योंकि ये लोगों की सीधी नज़रों में होते हैं और तेज़ी से पूरे भी हो जाते हैं।
सामाजिक और सुरक्षा पर असर: ग्रामीण इलाके, जो कभी क्रांति का नेतृत्व कर रहे थे, आज असंतोष के केंद्र बन गए हैं। इस्फ़हान में ज़ायंद रूद जैसी नदियों के सूखने को लेकर किसानों ने बार-बार विरोध-प्रदर्शन किया है और सरकार से जवाबदेही तय करने की मांग की है। ख़ूज़स्तान में, जहां गलत तरीके से बांध-निर्माण और उद्योगों के लिए नदियों को मोड़ने का काम होने के कारण खेती बर्बाद हो गई, इसी तरह के प्रदर्शन हिंसक हो गए थे। सूखे की समस्या गांवों से लोगों का पलायन शहरी इलाकों में बढ़ा रही है, जिससे बेरोज़गारी, घरों की कमी और लोगों की नाराज़गी बढ़ रही है।
आगे का रास्ता
ईरान के पास अपने जल संसाधनों को ज़्यादा टिकाऊ बनाने की वैज्ञानिक क्षमता है, लेकिन उसका राजनीतिक और वैचारिक ढांचा सुधार के कामों में रुकावट डालता है।
अलग-अलग फ़सलों की खेती और आयात: चावल और गन्ने जैसी जल का ज़्यादा खपत करने वाली फ़सलों का आयात करके और सूखा झेलने वाली किस्मों पर ध्यान देकर ईरान अपने जल संसाधनों पर दबाव कम कर सकता है। हालांकि, यह आत्मनिर्भरता के सिद्धांत के विपरीत है, जो उसकी क्रांति की पहचान रही है। राजनेताओं को डर है कि आयात को आगे बढ़ाने से क्रांति के वायदे के साथ प्रतीकात्मक रूप से छल करना होगा। अलग-अलग तरह की फ़सलों की खेती के अलावा, ईरान बाढ़ से सिंचाई की जगह कुशल ड्रिप सिंचाई तंत्रों का उपयोग कर सकता है और अपनी सिंचाई व्यवस्था को आधुनिक बना सकता है। इससे खेती के पानी का अधिक से अधिक उपयोग हो सकेगा। भूजल को रिचार्ज करने वाले छोटी-छोटी योजनाएं और मिट्टी की नमी की निगरानी करने वाली व्यवस्था यदि साथ-साथ आगे बढ़ाई जाएंगी, तो नए बांधों पर भारी-भरकम ख़र्च किए बिना ग्रामीण आजीविका को टिकाऊ बनाने में मदद मिल सकेगी।
सब्सिडी और शासन में सुधार: मूल्य निर्धारण का अच्छा तंत्र बनाकर भी पानी की बर्बादी रोकी जा सकती है, लेकिन सब्सिडी हटाने से सरकार के अपने सबसे वफ़ादार आधार, यानी ग्रामीण किसानों में नाराज़गी फैलने का ख़तरा हो सकता है। 2019 का अनुभव हमारे सामने है, जब ईंधन की कीमतें बढ़ने से पूरे देश में अशांति फैल गई थी। असल में दिक्कत यह है कि राज्य खुद पानी खूब ख़र्च करता है, इसलिए किसी नियम को प्रभावी बनाने के लिए उसको पहले अपने उद्योगों पर प्रतिबंध लगाना होगा, जिसका उसने लगातार विरोध ही किया है। कीमतों में सुधार के साथ-साथ शहरी गंदे पानी की रीसाइक्लिंग और औद्योगिक पानी के पुनर्चक्रण में भी निवेश आवश्यक है, जिससे स्वच्छ जल का उपभोग कम हो सकेगा। विलवणीकरण (खारे पानी से लवण निकालकर इस्तेमाल के लायक बनाना) बंदर-अब्बास और बुशहर जैसे तटीय शहरों के लिए रणनीतिक भंडार बना सकता है, जिससे स्थानीय जल संसाधनों पर दबाव कम होगा।
तकनीकी सशक्तिकरण: सैन्य और धार्मिक लोगों के बजाय फ़ैसले लेने वाली जगहों पर तकनीकी रूप से प्रशिक्षित प्रशासकों को लाना होगा, जिससे जल प्रबंधन में अधिक स्थायी व्यवस्था बन सकेगी। हालांकि, इस तरह के बदलाव के लिए सत्ता में भी बदलाव आवश्यक है, जिसका इस्लामी गणराज्य शायद ही समर्थन करेगा। जब तक ज़रूरी फ़ैसले ‘प्रतिकूल सोच’ के लोग तय करते रहेंगे, तब तक नीतिगत प्रक्रियाएं बड़े ढांचागत सुधारों को आगे बढ़ाने के बजाय कम समय के लिए नियंत्रित व्यवस्था बनाने और विरोध-प्रदर्शनों पर सख़्ती बरतने पर ज़ोर देती रहेंगी।
कामयार कायवानफ़ार एक मूल फ़ारसी और अंग्रेज़ी भाषी संचार एवं जन–संपर्क
विशेषज्ञ हैं, यह आलेख मूल रूप से ओआरएफ के मध्यपूर्व संस्करण
में प्रकाशित हुआ है, हम साभार इसे पुनः प्रकाशित कर रहे हैं।