31 जुलाई को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारतीय आयात पर 25 प्रतिशत 'पारस्परिक' टैरिफ की घोषणा की। इसका उद्देश्य नई दिल्ली पर दबाव बनाना था ताकि वह अमेरिकी सामानों के लिए व्यापारिक अवरोध कम करे। इसके बाद ट्रंप ने एक कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर करते हुए भारत पर अतिरिक्त 25 प्रतिशत शुल्क लगाने की घोषणा की, जो 27 अगस्त से लागू हो गया। इसका कारण था भारत द्वारा रूसी तेल की निरंतर खरीद। यह अतिरिक्त 25 प्रतिशत टैरिफ, जो एक जुर्माना सरीखा है, किसी भी अमेरिकी व्यापारिक साझेदार पर लगाया गया सबसे ऊँचा टैरिफ होगा, और दशकों में पहली बार अमेरिका-भारत के बीच इतनी गंभीर व्यापारिक तनातनी दर्ज हुई है। भारतीय सरकार ने इन टैरिफ का कड़ा विरोध किया है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हर कीमत पर अपने घरेलू उत्पादकों की रक्षा का संकल्प जताया है। इसके बावजूद, दोनों देशों ने संभावित समझौते के लिए कूटनीतिक संवाद जारी रखा हुआ है। इस जटिल स्थिति को समझने के लिए सीएफआर ने डिस्टिंग्विश्ड फेलो केनेथ आई. जस्टर से बातचीत की—जो ट्रंप प्रशासन के पहले कार्यकाल में भारत में राजदूत रह चुके हैं। चुकी यह मुद्दा आज सबसे ज्यादा मौजू है लिहाजा हम इसे पुनः प्रकाशित कर रहे हैं, जिससे वास्विक स्थिति की पड़ताल की जा सके।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जब अन्य देशों से जुड़ी समस्याओं को देखते हैं, तो वे उन्हें मुख्यतः द्विपक्षीय नजरिए से आंकते हैं, और खास चिंताओं के संदर्भ में ही। वे 'पारस्परिकता' की अवधारणा में गहरा विश्वास रखते हैं। उनके नजरिए से, अमेरिका-भारत के आर्थिक रिश्ते लंबे समय से असंतुलित हैं। वे भारत के ऊँचे व्यापार अवरोधों और अमेरिका के भारत के साथ बड़े व्यापार घाटे से चिंतित हैं।
इसी के चलते प्रशासन ने 25 प्रतिशत 'पारस्परिक' शुल्क लगाया है ताकि भारत पर दबाव बने और वह बाज़ार में और खुलापन लाए तथा एक व्यापार समझौते को मंजूरी दे।
व्हाइट हाउस ने 27 अगस्त से एक अतिरिक्त 25 प्रतिशत टैरिफ भी लगा दी। इस मामले में राष्ट्रपति की चिंता यह है कि भारत द्वारा आयात किए गए तेल के भुगतान से रूस को आर्थिक सहारा मिलता है, जो यूक्रेन के खिलाफ युद्ध और निर्दोष नागरिकों की मौत को आगे बढ़ाता है।
इस दूसरे टैरिफ का उद्देश्य अप्रत्यक्ष रूप से पुतिन पर दबाव डालना होगा कि वे युद्ध खत्म करने की किसी योजना पर सहमत हों। यह भी संभव है कि ट्रंप मोदी को प्रेरित करना चाहते हों कि वे सीधे पुतिन से अपील करें। हालांकि, ट्रंप-पुतिन बैठक के बाद ऐसी रिपोर्टें आई थीं कि वे इस अतिरिक्त टैरिफ को स्थगित भी कर सकते हैं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बेशक, यह स्थिति रूस-यूक्रेन वार्ता की प्रगति पर ट्रंप के आकलन के अनुसार बदल भी सकती है।
मोलभाव की रणनीति?
मेरे दृष्टिकोण से, भारत पर यह ऊँचे टैरिफ दरें एक मोलभाव की रणनीति हैं। यही तरीका ट्रंप ने जापान और यूरोपीय संघ के साथ समझौतों में अपनाया था। फिर भी, राष्ट्रपति की बयानबाज़ी और सार्वजनिक धमकियाँ, मोदी सरकार के लिए घरेलू स्तर पर किसी भी समझौते को स्वीकारना और कठिन बना सकती हैं।
मुझे नहीं लगता कि ट्रंप इन व्यापारिक मुद्दों को किसी व्यापक 'इंडो-पैसिफिक रणनीति' का हिस्सा मानते हैं, या यह अमेरिका और भारत के साझा रणनीतिक उद्देश्यों के खिलाफ है। इसलिए भारत सरकार के लिए यह मान लेना कि ये टैरिफ उनकी साझेदारी को मूल रूप से कमजोर करते हैं, अभी जल्दबाज़ी होगी।
राष्ट्रपति की भारत-अमेरिका साझेदारी में गहरी रुचि है और वे मोदी के साथ अपने अच्छे रिश्ते बनाये रखना चाहते हैं। लेकिन साथ ही वे टैरिफ को एक साधन मानते हैं जिससे आर्थिक संबंधों को संतुलित किया जा सके और, यदि अतिरिक्त टैरिफ लागू होता है, तो रूस-यूक्रेन युद्ध खत्म करने के लिए एक और सौदा संभव हो।
भारत की प्रतिक्रिया
भारत की प्रतिक्रिया कई परतों में बँटी हुई है।
शुरुआत में, जब भारत सरकार को लगा था कि व्यापार समझौते की घोषणा बस होने ही वाली है, तो यह अप्रत्याशित था कि और भी नए मुद्दे सामने आ गए।
लेकिन जब व्हाइट हाउस से भारत के टैरिफ को 'घृणित' और भारतीय अर्थव्यवस्था को 'मृत' कहा गया, तो भारतीय विशेषज्ञों और टिप्पणीकारों में आक्रोश फैल गया। इस पर ट्रंप के बार-बार दिए गए बयान ने और ईंधन डाला कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्षविराम कराया है—जिसका भारत ने खुलेआम खंडन किया, और इससे ट्रंप और खिन्न हो गए।
हाल ही में, जब राष्ट्रपति ने 27 अगस्त से अतिरिक्त 25 प्रतिशत टैरिफ लगाई, तो भारत के विदेश मंत्रालय ने इसे 'अनुचित, अन्यायपूर्ण और अव्यवहारिक' करार दिया और कहा कि भारत 'अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए सभी आवश्यक कदम उठाएगा।' मोदी ने भी किसानों, डेयरी सेक्टर और मछुआरों की भलाई से समझौता न करने की प्रतिज्ञा ली और कहा कि वे व्यक्तिगत रूप से भी 'इसकी भारी कीमत चुकाने को तैयार हैं।'
दुर्भाग्यवश, अब भारत में सम्मानित आवाज़ें अमेरिका के साथ अपनी रणनीतिक साझेदारी के मूल्य पर सवाल उठाने लगी हैं।
अमेरिका: भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार
इसके बावजूद, अमेरिका भारत का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण व्यापारिक साझेदार है। भारत के कुल माल निर्यात का लगभग 20 प्रतिशत अमेरिका को जाता है।
हालाँकि यह 'पारस्परिक' टैरिफ कुछ प्रमुख क्षेत्रों—जैसे दवा उद्योग, इलेक्ट्रॉनिक्स और ऊर्जा—को छूट देता है, जो मिलकर भारत के कुल निर्यात का लगभग 40 प्रतिशत हैं, लेकिन फिर भी इसका नुकसान बड़ा होगा। खासकर वस्त्र, रत्न-आभूषण और ऑटो पार्ट्स जैसे क्षेत्रों पर गंभीर असर पड़ेगा।
क्या ट्रंप के टैरिफ भारत-अमेरिका रिश्तों को पटरी से उतार देंगे?
भारत की राजनीति में बहस जितनी जीवंत और शोरगुल वाली है, उतना ही ज़रूरी था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नए टैरिफ पर सार्वजनिक और सख़्त प्रतिक्रिया दें। लेकिन उतना ही महत्वपूर्ण यह भी है कि वे खुद को किसी बंद गली में न धकेलें और मौजूदा व्यापार विवाद सुलझाने के रास्तों पर बातचीत के लिए खुले रहें। मेरी समझ में दोनों नेता इस सितंबर के अंत में संयुक्त राष्ट्र महासभा के मौके पर अमेरिका में एक मुलाक़ात तय करने की कोशिश कर रहे हैं।
पिछले पच्चीस वर्षों में, जब दोनों देशों में अलग-अलग सरकारें और पार्टियाँ सत्ता में आईं, तब भी भारत-अमेरिका संबंधों की प्रगति उल्लेखनीय रही है। यहाँ तक कि ट्रंप के पहले कार्यकाल में भी, जब उन्होंने और मोदी ने एक गर्मजोशी भरा व्यक्तिगत रिश्ता बनाया। लेकिन यह भी सच है कि इस द्विपक्षीय संबंध का आर्थिक पहलू हमेशा अपनी वास्तविक क्षमता से पीछे ही रहा है।
अतीत में भी भारत और अमेरिका के बीच व्यापार विवाद रहे हैं, लेकिन यह विवाद कहीं अधिक तीखा है—हालाँकि अब भी हल किया जा सकता है। शुरुआती तीखी बयानबाज़ी के बावजूद, वाशिंगटन और नई दिल्ली संवाद के रास्ते खुले रखे हुए हैं और उम्मीद है कि दोनों रचनात्मक तरीक़े से किसी व्यापारिक समझौते की दिशा में बढ़ेंगे। आख़िरकार, सितंबर में होने वाली ट्रंप-मोदी मुलाक़ात शायद उन अटके हुए मुद्दों को सुलझाने और रिश्तों को पटरी पर लाने के लिए ज़रूरी साबित होगी।
भारत की अर्थव्यवस्था पर असर
यदि यह विवाद लंबा खिंचता है, तो इसका असर भारत की अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों पर ज़रूर पड़ेगा। मौजूदा टैरिफ़ भारत से अमेरिका जाने वाले 55 प्रतिशत से अधिक निर्यात को प्रभावित कर रहा है। उदाहरण के लिए, वस्त्र और परिधान क्षेत्र में भारत की प्रतिस्पर्धा वियतनाम और बांग्लादेश से है, जिन्हें अमेरिका में कहीं कम टैरिफ़ का सामना करना पड़ता है। अगर अमेरिकी कंपनियाँ अपनी आपूर्ति शृंखला भारत से हटाकर इन देशों की ओर मोड़ देती हैं, तो भारत को व्यापार और रोज़गार दोनों ही मोर्चों पर गंभीर नुकसान होगा। विशेषज्ञों के मुताबिक़, निर्यात व्यापार में गिरावट भारत की घरेलू विकास दर को लगभग 0.5 प्रतिशत या उससे अधिक तक नीचे ला सकती है—यह इस पर निर्भर करेगा कि ऊँचे टैरिफ़ कितने समय तक चलते हैं।
अमेरिका पर असर
टैरिफ़ का बोझ अमेरिकी कंपनियों और उपभोक्ताओं पर भी पड़ेगा। जिन अमेरिकी कंपनियों के उत्पादों में भारतीय पुर्ज़े या घटक इस्तेमाल होते हैं, उनके उत्पादन ख़र्च बढ़ेंगे (या फिर उन्हें विकल्प ढूँढ़ने होंगे)। वहीं, अमेरिकी उपभोक्ताओं को भारतीय वस्त्र, रत्न-आभूषण, ऑटो पार्ट्स और कुछ खाद्य पदार्थों जैसे सामान महँगे दाम पर और सीमित विकल्पों के साथ मिलेंगे। दोनों देशों पर वास्तविक प्रभाव कई कारकों पर निर्भर करेगा—जैसे उत्पाद का भेद, माँग, गुणवत्ता और अनुबंध की शर्तें।
रणनीतिक असर और चीन का लाभ
आर्थिक नुकसान से परे, यदि कोई सौदा नहीं होता है, तो इसके दुष्प्रभाव भारत-अमेरिका संबंधों के अन्य क्षेत्रों पर भी पड़ सकते हैं—जैसे रक्षा और तकनीकी सहयोग। और अगर संबंध कमजोर होते हैं, तो इसका सीधा लाभ चीन को मिलेगा—जो न तो भारत और न ही अमेरिका के हित में है। वाशिंगटन और नई दिल्ली दोनों को समझना चाहिए कि उनकी द्विपक्षीय साझेदारी किसी भी उस व्यवस्था से कहीं अधिक महत्वपूर्ण और प्रभावशाली है, जो वे चीन के साथ बना सकते हैं—जो दोनों के लिए एक रणनीतिक चुनौती बना हुआ है।
दो बड़े मुद्दे
भारत-अमेरिका के सामने अब दो अहम मुद्दे हैं:
1. 25 प्रतिशत पारस्परिक टैरिफ, जो व्यापारिक समझौते से जुड़ा है।
2. अतिरिक्त 25 प्रतिशत टैरिफ, जो रूस से भारत के तेल आयात से जुड़ा है।
रूसी तेल पर संभावित टैरिफ को लेकर भारत की शुरुआती स्थिति 'देखो और इंतज़ार करो' वाली लगती है। अगर रूस-यूक्रेन संघर्ष जल्दी खत्म होता है, तो तेल आयात पर यह टैरिफ अपने आप हट जाएगा, लेकिन निकट भविष्य में इसकी संभावना कम है। ऐसे में भारत शायद अपने रूसी तेल आयात को चुपचाप कुछ घटाकर अमेरिका से ऊर्जा आयात बढ़ा सकता है। रिपोर्टें कहती हैं कि यह प्रक्रिया पहले से शुरू हो चुकी है। अगर ऐसा है, तो नई दिल्ली वाशिंगटन से टैरिफ के अमल में देरी करने की गुज़ारिश कर सकती है। और अगर सितंबर की ट्रंप-मोदी मुलाक़ात में व्यापारिक विवाद सुलझ गया, तो संभव है कि अमेरिका इस अतिरिक्त 25 प्रतिशत टैरिफ को पूरी तरह हटा दे—भले ही रूस-यूक्रेन विवाद तब तक खत्म न हुआ हो। जहाँ तक 25 प्रतिशत पारस्परिक टैरिफ की बात है, मेरी नज़र में यह ट्रंप की 'मोलभाव रणनीति' है, न कि भारत-अमेरिका रणनीतिक साझेदारी को तोड़ने की इच्छा। ऐसी स्थिति में भारत को प्रतिशोध स्वरूप अमेरिकी आयात पर टैरिफ़ लगाने के प्रलोभन से बचना चाहिए—क्योंकि यह उल्टा असर करेगा। सौभाग्य से अब तक इसके संकेत नहीं हैं कि भारत ऐसा करने जा रहा है।
आगे का रास्ता
भारत को चाहिए कि वह यथासंभव रचनात्मकता के साथ नए विचार सामने रखे। उदाहरण के लिए, अन्य अमेरिकी व्यापारिक समझौतों की समीक्षा करके यह देखा जा सकता है कि कौन-से तत्व भारत-अमेरिका सौदे को और आकर्षक बना सकते हैं। इसमें शामिल हो सकते हैं—भारतीय कंपनियों के अमेरिका में और निवेश, कुछ कृषि उत्पादों (जैसे कपास और ब्लूबेरी) के लिए शुल्क-मुक्त प्रवेश, और कुछ अन्य वस्तुओं को सीमित कोटा के तहत मान्यता देना। ट्रंप के पहले कार्यकाल में दोनों देशों ने सीमित अमेरिकी डेयरी आयात का एक प्रस्ताव भी तैयार किया था—शायद इसे फिर से जीवित किया जा सके।
अपने अनुभव के आधार पर, मुझे लगता है कि मोदी एक बेहद कुशल वार्ताकार हैं और ट्रंप जैसे उच्च-जोखिम वाले नेता के साथ बातचीत करने में सक्षम हैं। प्रधानमंत्री संभवतः द्विपक्षीय रिश्ते के रणनीतिक महत्व पर बल देंगे और समय के साथ दोनों नेताओं के बीच बनी अच्छी समझ का उल्लेख करेंगे। वे यह भी दिखा सकते हैं कि वे व्यापार, ख़रीद और निवेश के मोर्चे पर कुछ और रियायतें देने को तैयार हैं, लेकिन साथ ही एक लोकतांत्रिक सरकार के प्रमुख होने के नाते उनकी कुछ सीमाएँ भी हैं, जिन पर अमेरिका की समझ और लचीलापन ज़रूरी है।अगर सब कुछ ठीक रहा, तो दोनों नेता एक समझौते पर पहुँच सकते हैं, जिसमें अंतिम पारस्परिक टैरिफ दर 15 प्रतिशत (लेकिन किसी भी हाल में 20 प्रतिशत से अधिक नहीं) तय हो। ऐसा समाधान न सिर्फ़ विवाद सुलझाएगा, बल्कि इस साल के अंत में ट्रंप की भारत यात्रा और क्वाड शिखर सम्मेलन का रास्ता भी आसान करेगा।
केनेथ आई. जस्टर, 2017 से 2021 तक भारत में अमेरिका के पच्चीसवें राजदूत रह चुके हैं।