ताइवान पर तकरारःक्यों आई दोस्ती में दरार?

संदीप कुमार

 |  01 Aug 2025 |   3
Culttoday

13 जुलाई 2025 को फाइनेंशियल टाइम्स ने ताइवान पर अमेरिका और चीन के बीच जारी तनाव को लेकर एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इस रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका के रक्षा नीति उप सचिव एल्ड्रिज कोल्बी ने वाशिंगटन के प्रमुख इंडो-पैसिफिक सहयोगियों, विशेष रूप से ऑस्ट्रेलिया और जापान के अधिकारियों से बात की। कोल्बी ने ताइवान पर अमेरिका-चीन गोलीबारी युद्ध की स्थिति में अपनी स्थिति स्पष्ट करने और इन देशों के मनाने की कोशिश की। ज़ाहिर है फिलहाल ये दोनों सहयोगी देश कोई सीधा जवाब देने से बचते रहे। ऐसी आकस्मिक परिस्थितियों से निपटने के लिए मज़बूत राजनीतिक प्रतिबद्धता और सहयोगियों के बीच विश्वास निर्माण की आवश्यकता होती है। हालांकि, ट्रंप प्रशासन अपने हिंद-प्रशांत क्षेत्र के सहयोगियों को सही संकेत नहीं दे रहा है।
ताइवान पर कब हमला कर सकता है चीन?
अब सवाल ये कि क्या चीन का इरादा ताइवान पर हमला करने का है? और अगर आक्रमण करेगा तो कब? ये गहन अटकलों का विषय है। हालांकि, जिस एक स्पष्ट 'समय सीमा' पर अक्सर बात की जाती है, वो है 2027। ये वर्ष पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की स्थापना की 100वीं वर्षगांठ के साथ मेल खाता है। राष्ट्रपति शी जिनपिंग इस अवधि को वो समय मानते हैं, जब चीन अपनी 'राष्ट्रीय संप्रभुता, सुरक्षा और विकास हितों की रक्षा के लिए रणनीतिक क्षमताओं' में व्यापक सुधार कर चुका होगा। ट्रंप प्रशासन भी इस समय सीमा को गंभीरता से लेता दिख रहा है। इसके संकेत 2021 में पूर्व अमेरिकी इंडो-पैसिफिक कमांड एडमिरल फिलिप डेविडसन द्वारा दी गई चेतावनी से मिला था। तब उन्होंने कहा था कि चीन 2027 तक ताइवान को लेकर कुछ ना कुछ बड़ा कदम उठाएगा। इस चेतावनी को 'डेविडसन विंडो' भी कहा जाता है।
ऐसे में अगर ताइवान को लेकर अमेरिका और चीन युद्ध में उलझ जाते हैं, तो वॉशिंगटन की कोशिश पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में अपने गठबंधन नेटवर्क का लाभ उठाने की होगी। हालांकि, पिछले कुछ हफ़्तों में इस हब-एंड-स्पोक नेटवर्क में खामियां उजागर हुई हैं, खासकर ट्रम्प प्रशासन के दौरान। ट्रंप के कार्यकाल में अपने प्रमुख पश्चिमी प्रशांत सहयोगियों-जापान और ऑस्ट्रेलिया-के प्रति अमेरिका का रवैया लापरवाह किस्म का रहा है।
सबसे पहले ये बात बतानी ज़रूरी है कि हालांकि, अमेरिका के जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ द्विपक्षीय संधि गठबंधन है, लेकिन इस संधि में अस्पष्टताएं भी हैं। इनमें से किसी भी सहयोगी की वॉशिंगटन के साथ सुरक्षा संधि कानूनी रूप से और स्पष्ट रूप से उन्हें किसी ऐसे संघर्ष में सैन्य भूमिका के लिए प्रतिबद्ध नहीं करती है, जिसमें उनके प्रशासन के अधीन क्षेत्र पर सीधा हमला शामिल न हो। हालांकि, संधियों में जो लिखा गया है, उसमें कुछ ऐसी बारीकियां हैं, जिन्हें समझना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, अमेरिका-जापान रक्षा संधि के अनुच्छेद-VI में कहा गया है कि टोक्यो क्षेत्रीय स्थिरता में योगदान के लिए जापानी धरती पर अमेरिकी सेना की तैनाती को स्वीकार और समर्थन करेगा। हालांकि, इसमें जापान की रक्षा के अलावा जापान आत्मरक्षा बल (जेएसडीएफ) की सक्रिय भागीदारी का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। इसी तरह, ऑस्ट्रेलिया ने 1951 में अमेरिका के साथ जो संधि की है, वो 'साझा ख़तरे' के संदर्भ में आपसी परामर्श के इर्द-गिर्द घूमती है।
अमेरिका की किन नीतियों से निराश हैं ऑस्ट्रेलिया-जापान?
फिर भी, संधियों में किसी स्पष्ट कानूनी दायित्व के अभाव का अर्थ ये नहीं है कि किसी आकस्मिक स्थिति में संभावित सहयोगी कार्रवाई संभव नहीं है। ऐसी ही परिस्थिति में राजनीतिक नेतृत्व, अंतर-राज्यीय समन्वय और विश्वास-निर्माण इन कमियों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जापान ने पिछले कुछ वर्षों में अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा क्षमताओं को बढ़ाने के लिए नए प्रयास किए हैं। इसके बावजूद वहां के रक्षा मामलों के जानकार ये भी कबूल करते हैं कि ताइवान पर हमले का जापान पर सीधा प्रभाव पड़ेगा, खासकर उस स्थिति में जब चीन की सेना जापान में अमेरिकी ठिकानों को निशाना बनाने की कोशिश करे। 2022 में, जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने अमेरिका से ताइवान को लेकर अपनी 'रणनीतिक अस्पष्टता' छोड़ने का आह्वान किया था। दूसरी ओर, ऑस्ट्रेलिया का रुख़ ज़्यादा संयमित रहा है। इसकी वजह ये है कि ऑस्ट्रेलिया के चीन के साथ व्यापक व्यापारिक संबंध हैं। हालांकि, इसके साथ ही ऑस्ट्रेलिया को भी इस बात का एहसास है कि ताइवान पर चीन का आक्रमण सिर्फ़ उस भौगोलिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रह सकता। वैसे भी चीन ने पिछले चार साल में ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ अपनी उत्तेजक और आक्रामक कार्रवाइयों को बढ़ा दिया है।
हालांकि अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच आकस्मिक योजना बनाना बेहद ज़रूरी है, लेकिन वाशिंगटन अपने सहयोगियों के साथ इस तरह के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए सही परिस्थितियां तैयार नहीं कर पाया है। दरअसल, ट्रंप प्रशासन का ज़्यादा ध्यान फिलहाल व्यापार और टैरिफ पर है। अमेरिका ने अपने सहयोगियों के साथ अनुचित संरक्षक-ग्राहक संबंधों की शर्तों पर फिर से बातचीत करके अपनी ताकत का खुलकर प्रदर्शन किया है। ये बात तब और स्पष्ट हुई, जब ट्रंप प्रशासन ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र के सहयोगी देशों से अपने रक्षा खर्च को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के पांच प्रतिशत तक बढ़ाने की मांग की। अमेरिका की ये आदेशनुमा सलाह ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और विशेष रूप से जापान को नापसंद है। ट्रंप प्रशासन शायद ऑस्ट्रेलिया-ब्रिटेन-अमेरिका (एयूकेयूएस) समझौते की समीक्षा को भी आगे बढ़ाएगा। इससे ऑस्ट्रेलियाई नीति निर्माताओं में अनिश्चितता की स्थिति और बढ़ जाएगी। आर्थिक मोर्चे पर, ट्रंप के दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में अमेरिकी प्रशासन द्वारा 'पारस्परिक शुल्क' (रेसिप्रोकेल टैक्स) लगाने के फैसले के बाद एक अंधाधुंध व्यापार युद्ध छिड़ गया है। अमेरिका के साथ जापान एक न्यायसंगत व्यापार समझौता नहीं कर सका। इसे देखते हुए ट्रंप ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी यानी जापान पर 25 प्रतिशत टैरिफ लगाया। इतना ही नहीं व्यापार समझौते के लिए अपनी शर्तों को पेश ना करने के कारण ट्रंप प्रशासन ने इसे 'खराब' कहा। 
क्या ट्रंप प्रशासन अपने रुख़ में लाएगा बदलाव?
हालांकि, अमेरिका हिंद-प्रशांत क्षेत्र में महत्वपूर्ण सैन्य और आर्थिक शक्ति रखता है, लेकिन ट्रंप प्रशासन को अपने प्रमुख क्षेत्रीय सहयोगियों को साथ मिलकर चलना होगा। अगर अमेरिका उनके साथ समान शर्तों पर काम करने की आवश्यकता को समझने में असफल रहता है तो इस क्षेत्र में किसी भी गंभीर संघर्ष का एकजुट जवाब देने में चुनौतियां पैदा होंगी। ट्रंप की रक्षा अपेक्षाओं और आर्थिक मांगों के बीच एकीकृत योजना का अभाव समन्वय में बाधा डालता है। हालांकि, जापान और ऑस्ट्रेलिया दोनों ही ताइवान पर चीनी आक्रमण के परिणामों से अच्छी तरह वाकिफ हैं, लेकिन अमेरिका का रवैया भी उन्हें निराश कर रहा है। इसके अलावा, ये भी एक तथ्य है ताइवान की रक्षा के संबंध में अमेरिका का रुख़ भी स्पष्ट नहीं है। ऐसे में हिंद-प्रशांत की क्षेत्रीय गतिशीलता की अनिश्चितताओं को देखते हुए प्रमुख सहयोगियों के लिए भी ताइवान की रक्षा को लेकर स्पष्ट रूप से प्रतिबद्ध होना और भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
हब-एंड-स्पोक नेटवर्क के सभी सदस्य देश ताइवान जलडमरूमध्य में किसी भी संघर्ष की स्थिति के लिए आकस्मिक योजना बनाने की ज़रूरत को समझते हैं। हालांकि, इसके साथ ही अमेरिका को अपने कूटनीतिक दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करना होगा। ट्रंप प्रशासन को ये स्वीकार करना होगा कि किसी भी सफल सहयोगी प्रतिक्रिया का आधार कोई लिखित संधि दायित्व के बजाए सामूहिक राजनीतिक इच्छाशक्ति होती है। अगर अमेरिका इस क्षेत्र में किसी सामूहिक कार्ययोजना को क्रियान्वित करना चाहता है, तो उसे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपने सहयोगियों के साथ अपने संबंधों की फिर से समीक्षा करनी होगी। 

लेखक फिलीपींस में भू-राजनीतिक विश्लेषक और लेखक हैं। वो डे ला सैले यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल स्टडीज़ डिपार्टमेंट में लेक्चरर भी हैं।
 


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