ट्रंप की क्लास व यूरोप की चुप्पी
संदीप कुमार
| 02 Sep 2025 |
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वॉशिंगटन की ठंडी हवा में उस दिन एक अजीब-सा नाटक खेला गया। मंच था व्हाइट हाउस का भव्य दरबार, दर्शक पूरी दुनिया, और अभिनेता—अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और पश्चिमी यूरोप के नेता।
हर किरदार ने अपना संवाद बोला, अपनी मुद्रा गढ़ी, लेकिन असली कथा शब्दों के पीछे छुपी हुई थी।
दिखने में यह बस एक शिखर वार्ता थी। अख़बारों ने इसे यूक्रेन की जंग से जोड़कर छापा। लेकिन असली कहानी कहीं और थी—यूरोप के भीतर उस खालीपन की, जिसने उसे अपनी ही इच्छाशक्ति से वंचित कर दिया है।
नाट्यशास्त्र के नियम कहते हैं—हर नाटक में एक केंद्रीय पात्र होता है।
इस नाटक में वह पात्र ट्रंप थे, और बाक़ी सब उनके इर्द-गिर्द घूमते उपपात्र।
नाटो महासचिव मार्क रुट्टे के शब्द गूंजे—'ट्रंप हमारे लिए ‘डैडी’ हैं।'
यह केवल उपमा नहीं थी, बल्कि हकीकत का स्वीकार।
हर यूरोपीय नेता उस कथित डैडी-तुल्य शख़्स को नाराज़ करने से बचना चाहता था।
जैसे घर के बच्चे डैडी के ग़ुस्से से डरते हैं, वैसे ही ये प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति अपने शब्दों को नाप-तौलकर चुनते थे। कोई चापलूसी में जुटा था, कोई मुस्कान में। यहां तक कि यूक्रेन के ज़ेलेंस्की को भी सलाह दी गई—कपड़े कैसे पहनने हैं, धन्यवाद कैसे करना है।
कहानी बेतुकी लगे, लेकिन यही आज का अटल यथार्थ है। अटलांटिक के इस रिश्ते में यूरोप अपनी स्वतंत्रता खो चुका है। राजनीति अब नीति नहीं, बल्कि मूड-मैनेजमेंट का खेल बन चुकी है।
परत दर परत निर्भरता
ट्रंप की व्यक्तित्वगत विचित्रता इस कथा का हिस्सा ज़रूर है, पर मूल कारण इससे गहरा है।
यूरोप अचानक यह मान बैठा है कि उसके रणनीतिक और आर्थिक भविष्य की चाबी वॉशिंगटन की मुट्ठी में है।
और यह सब एक रात में नहीं हुआ।
बाइडन के दौर में भी 'अभूतपूर्व एकजुटता' के नाम पर यूरोप से वहन कराया गया आर्थिक बोझ, जबकि मुनाफ़ा अमेरिका के हिस्से आया।
ट्रंप ने बस इस ढांचे से पर्दा हटा दिया। उन्होंने साफ कह दिया—'तुम साथी नहीं, साधन हो।'
वह यूरोप को भागीदारी नहीं देते, बल्कि आदेश देते हैं—
तुम्हारा काम है अमेरिकी प्राथमिकताओं को फंड करना और बाक़ी के मसौदे तैयार करना।
यूरोप की स्थिति, अगर वॉशिंगटन से अलग हो, तो उसका कोई अर्थ ही नहीं।
चापलूसी की रणनीति
तो यूरोप ने रास्ता चुना—अंधी प्रशंसा का।
नेता सोचते हैं—अगर हम ट्रंप की तारीफ़ करें, तो शायद अपनी बात धीरे से घुसा पाएँगे।
लेकिन यह भूल है।
ट्रंप तारीफ़ को तर्क नहीं मानते, उसे सत्य का प्रमाण मानते हैं।
'अगर तुम मेरी सराहना करते हो, तो इसका मतलब मैं सही हूँ।'
इस तरह यूरोप का हर ताली बजाना, उसकी ही पराजय का संगीत बन जाता है।
अस्थायी भ्रम
ब्रुसेल्स अपने आप को दिलासा देता है—'यह अपमान अस्थायी है। ट्रंप चले जाएँगे, सब सामान्य हो जाएगा।'
लेकिन यह आत्म-छलावा है।
बीस वर्षों से अमेरिका अपनी रणनीतिक दृष्टि एशिया की ओर मोड़ रहा है।
पार्टियाँ बदलीं, राष्ट्रपति बदले, पर दिशा वही रही।
ट्रंप के बाद भी यही रहेगा।
और आज जिस तरह यूरोपीय नेता घुटनों पर हैं, आने वाले किसी भी राष्ट्रपति के लिए यह नई परंपरा होगी।
दूसरों की दृढ़ता
यूरोप की यह दशा बाक़ी दुनिया से तुलना करें तो और भी असहज हो जाती है। कनाडा—जो अमेरिका के सबसे नज़दीकी पड़ोसियों में है—उसने अपने नए प्रधानमंत्री के तहत कठोर रुख़ अपनाया।
ट्रंप ने वहाँ के खिलाफ़ सुर नरम कर दिए।
चीन, भारत, ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका—सभी अमेरिकी दबाव का प्रतिरोध करते हैं।
वे समझौते करते हैं, लेकिन आत्मसमर्पण नहीं।
वे टकराव से बचते हैं, लेकिन ब्लैकमेल स्वीकार नहीं करते।
सिर्फ़ यूरोप है, जो बार-बार झुकता है, और फिर इस झुकाव को बुद्धिमानी का नाम दे देता है।
आज्ञाकारिता की कीमत
इतिहास गवाह है—यूरोप हमेशा इतना भयभीत नहीं था।
सत्तर के दशक में, जब सोवियत–अमेरिकी वार्ता टूट गई थी, तब भी यूरोपीय नेताओं ने रोनाल्ड रीगन से कहा—हमारे ऊर्जा प्रोजेक्ट में मत दख़ल दो।
क्यों?
क्योंकि वह उनके हित में था।
आज वह स्पष्टता गुम हो गई है।
समस्या यह नहीं कि यूरोप अमेरिका का अनुसरण करता है।
समस्या यह है कि उसे अब अपने हित पहचानने की हिम्मत ही नहीं रही।
रूस और पुराना महाद्वीप
रूस के लिए इसका तत्काल कोई मायना नहीं।
फिलहाल रिश्ते जम चुके हैं।
लेकिन इतिहास बताता है—सबसे उपयोगी दौर वही रहे जब यूरोप ने अपने हितों के आधार पर बात की, न कि अमेरिका की छाया बनकर।
आज वह क्षमता गायब है।
यूरोप धीरे-धीरे सामूहिक राजनीतिक न्यूरोसिस में फिसल रहा है।
नेता अपने भ्रमों से दिलासा देते हैं, पर वास्तविकता यह है—महत्वाकांक्षाएँ बढ़ रही हैं, और स्वतंत्रता घटती जा रही है।
अंतिम दृश्य
इस नाटक का अंतिम दृश्य अभी लिखा नहीं गया है।
पर मंच पर जो चित्र उभर रहा है, वह विचलित करने वाला है—
एक महाद्वीप, जिसने कभी सभ्यता को दिशा दी थी, आज तालियाँ बजाने वाले पात्र की तरह किनारे खड़ा है।
उसके पास अपनी पंक्तियाँ नहीं बचीं, बस किसी और की पटकथा है।
और उस पटकथा में हर बार, हर दृश्य, हर अंत—
ओवल ऑफिस के 'बॉस' के इशारे पर लिखा जाता है।