ढाका की नई करवट
संदीप कुमार
| 02 Sep 2025 |
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17 अगस्त 2025 को जब बांग्लादेश के सेना प्रमुख जनरल वकार-उज़-ज़मान ने देश में धर्मनिरपेक्षता के महत्व और शांति बनाए रखने में सेना की भूमिका को दृढ़ता से दोहराया, तो यह केवल एक औपचारिक बयान नहीं था। यह एक गहरी चिंता का प्रकटीकरण था, एक ऐसे राष्ट्र की आत्मा में झांकने का प्रयास था जो एक बार फिर अपने अतीत के प्रेतों से जूझ रहा है। एक तरफ बिगड़ती कानून-व्यवस्था, अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमले और दूसरी तरफ फरवरी 2026 में होने वाले चुनावों की अनिश्चितता के बीच, बांग्लादेश एक खतरनाक चौराहे पर खड़ा है। सेना, जो पिछले 15 वर्षों की राजनीतिक स्थिरता में एक पेशेवर संस्थान बनने की राह पर थी, अब अनिच्छा से ही सही, एक बार फिर देश की राजनीति के दलदल में खिंचती जा रही है।
शेख हसीना के 15 साल के लंबे शासन का अंत, जिसने एक नाजुक लेकिन प्रभावी नागरिक-सैन्य संतुलन बनाया था,उसने एक ऐसा शून्य पैदा कर दिया है जिसे भरने के लिए कट्टरपंथी ताकतें और सेना के भीतर की पुरानी विचारधाराएं फिर से सिर उठा रही हैं। यह कहानी केवल बांग्लादेश के आंतरिक संकट की नहीं है। यह भारत के लिए भी एक गंभीर रणनीतिक चेतावनी है, क्योंकि उसकी पूर्वी सीमा पर एक स्थिर, धर्मनिरपेक्ष और मैत्रीपूर्ण पड़ोसी का भविष्य दांव पर लगा है। यह विश्लेषण बांग्लादेश के इस जटिल नागरिक-सैन्य समीकरण की ऐतिहासिक जड़ों, हसीना युग के विरोधाभासों और उनके पतन के बाद उत्पन्न हुए उस खतरनाक शून्य की पड़ताल करता है, जो न केवल ढाका के भविष्य, बल्कि पूरे क्षेत्र की स्थिरता को परिभाषित करेगा।
अतीत की परछाइयां
बांग्लादेश की त्रासदी यह है कि 1971 में अपनी मुक्ति के बावजूद, वह अपनी राजनीति से पाकिस्तानी सेना के हस्तक्षेप की संस्कृति को पूरी तरह से मिटा नहीं पाया। 1970 से 1990 के दशक तक का इतिहास रक्तरंजित सैन्य तख्तापलट, राजनीतिक हत्याओं और कमजोर लोकतांत्रिक संस्थाओं का एक भयावह अध्याय है। शेख मुजीबुर रहमान की हत्या (1975), ब्रिगेडियर खालिद मुशर्रफ का प्रतिकार और उनकी हत्या, जनरल जिया-उर-रहमान का सत्ता पर कब्जा और फिर उनकी हत्या, और अंत में जनरल एचएम इरशाद का तख्तापलट—यह सब एक ही कहानी के अलग-अलग हिस्से हैं: एक ऐसी सेना जो विचारधाराओं में गहराई से विभाजित थी और जिसे राजनेताओं ने अपने हितों के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश की, और अंततः उसी का शिकार हुए।
इस काल ने एक ऐसा स्थायी अविश्वास पैदा किया, जहाँ नागरिक नेतृत्व सेना को एक खतरे के रूप में देखता था और सेना नागरिक नेताओं को अक्षम और भ्रष्ट मानती थी। 1991 में संसदीय प्रणाली की बहाली और शेख हसीना एवं खालिदा जिया के बीच की प्रतिद्वंद्विता ने नागरिक नेतृत्व को मजबूत तो किया, लेकिन सेना के भीतर गुटबाजी को संस्थागत भी बना दिया, जहां दोनों दल अपने-अपने वफादार अधिकारियों को बढ़ावा देते थे।
हसीना का विरोधाभास
2009 में जब शेख हसीना सत्ता में लौटीं, तो उन्हें इस रक्तरंजित विरासत का पूरा ज्ञान था। उन्होंने सेना के साथ एक नया, अभूतपूर्व और विरोधाभासी संतुलन बनाया, जिसे एक 'सोने के पिंजरे' की उपमा दी जा सकती है। यह उनकी 15 साल की सत्ता का आधार था।
पिंजरे को 'सोना' बनाने के लिए, हसीना ने सेना को खुश करने की एक व्यापक नीति अपनाई। उन्होंने सेना के बजट में भारी विस्तार किया, उसे अत्याधुनिक उपकरणों से लैस किया, आकर्षक निर्माण अनुबंध दिए, और संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों में उनकी भागीदारी को बढ़ाया, जो अधिकारियों के लिए प्रतिष्ठा और आय का एक बड़ा स्रोत है। उन्होंने सेना की अवैध तस्करी नेटवर्क और बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार पर भी आँखें मूंद लीं। यह एक स्पष्ट सौदा था- जब तक सेना राजनीति से दूर रहती है, उसे आर्थिक रूप से पुरस्कृत किया जाएगा।
लेकिन साथ ही, उन्होंने उस पिंजरे की सलाखें भी मजबूत कीं। 2009 की बांग्लादेश राइफल्स की बगावत इस रणनीति का एक महत्वपूर्ण मोड़ थी। इस बगावत में, जिसमें कट्टरपंथी जमात-ए-इस्लामी और हिज्ब-उत-तहरीर जैसे संगठनों की मिलीभगत के आरोप लगे, हसीना ने सेना को सीधे हस्तक्षेप करने की अनुमति देने के बजाय एक राजनीतिक समाधान चुना। उन्होंने गृह मंत्रालय के अधीन बलों का उपयोग किया, जिससे सेना के भीतर गहरे विभाजन और रक्तपात को रोका जा सका। इस संकट में भारत के मजबूत समर्थन ने भी सेना के सामने उनके हाथ मजबूत किए।
इसके बाद, हसीना ने व्यवस्थित रूप से सेना को शक्तिहीन किया। 2011 में, उन्होंने 15वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से 'कार्यवाहक सरकार' के प्रावधान को समाप्त कर दिया—यह वही प्रावधान था जिसका उपयोग सेना ने 2007 में सत्ता पर कब्जा करने के लिए किया था। 2013 में, उन्होंने बांग्लादेश राइफल्स के विद्रोह में शामिल सैकड़ों सैनिकों और अधिकारियों को मौत और आजीवन कारावास की सजा सुनाई, जो सेना के लिए एक कड़ा संदेश था। उन्होंने सेना के भीतर अपने वफादारों को 'नोट शीट प्रमोशन' के माध्यम से शीर्ष पदों पर पहुँचाया, जिसमें कथित तौर पर उनके रिश्तेदार जनरल ज़मान की सेना प्रमुख के रूप में नियुक्ति भी शामिल थी। साथ ही, उन्होंने रैपिड एक्शन बटालियन जैसी नागरिक एजेंसियों का उपयोग विपक्ष और असंतोष को कुचलने के लिए किया, जिससे घरेलू राजनीति में सेना की भूमिका लगभग समाप्त हो गई।
भारत के दृष्टिकोण से, यह 'सोने का पिंजरा' मॉडल एक रणनीतिक वरदान था। हसीना के शासन ने न केवल बांग्लादेश में आर्थिक स्थिरता लाई, बल्कि उन्होंने भारत विरोधी उग्रवादी समूहों पर भी नकेल कसी और एक धर्मनिरपेक्ष एजेंडे को बढ़ावा दिया, जो नई दिल्ली के सुरक्षा हितों के लिए महत्वपूर्ण था।
पिंजरे का टूटना और अनिश्चितता का दौर
तो फिर यह संतुलन टूटा क्यों? 2024 के राष्ट्रव्यापी छात्र विरोध प्रदर्शनों ने इस नाजुक समीकरण को तोड़ दिया। शुरुआत में, सेना ने सरकार का समर्थन करते हुए प्रदर्शनकारियों पर नकेल कसी। लेकिन जैसे-जैसे आंदोलन की लोकप्रियता बढ़ी और देशव्यापी हो गई, सेना ने एक महत्वपूर्ण गणना की। हसीना का और अधिक समर्थन करने का मतलब होता व्यापक रक्तपात, जो न केवल उनकी पेशेवर छवि को धूमिल करता, बल्कि उन्हें सीधे घरेलू राजनीति के उस दलदल में घसीट लेता जिससे वे 15 सालों से बचे हुए थे। यह सेना के भीतर गहरे विभाजन को भी जन्म दे सकता था।
इसलिए, सेना ने आत्म-संरक्षण का रास्ता चुना। उन्होंने हसीना को पद छोड़ने के लिए मनाकर और एक अंतरिम सरकार का समर्थन करके सीधे हस्तक्षेप से परहेज किया। यह एक तख्तापलट नहीं था, बल्कि एक नियंत्रित संक्रमण सुनिश्चित करने का प्रयास था ताकि देश अराजकता में न डूबे।
लेकिन इस कदम ने अनजाने में एक 'पैंडोरा बॉक्स' खोल दिया है। हसीना के जाने से बना शून्य अब खतरनाक तरीके से भर रहा है। अंतरिम सरकार ने नागरिक-सैन्य समीकरण को दो तरह से बदल दिया है। पहला, सेना के भीतर विभाजन फिर से बढ़ रहा है। कट्टरपंथी इस्लामी झुकाव वाले अधिकारियों को कथित तौर पर उच्च पदों पर पदोन्नत किया जा रहा है। 2009 के विद्रोह के लगभग 300 दोषियों को रिहा कर दिया गया है। जनरल ज़मान ने हसीना शासन के तहत हुए अत्याचारों की जांच की घोषणा की है, जो सेना के भीतर वफादारों के शुद्धीकरण का संकेत हो सकता है। पाकिस्तान के साथ बढ़ते सुरक्षा सहयोग से सेना में इस्लामवादी और भारत-विरोधी तत्वों को और बल मिलने की संभावना है।
दूसरा, सेना अब अनिच्छा से कानून-व्यवस्था बनाए रखने और घरेलू राजनीति में शामिल हो गई है, जिससे स्पष्ट हताशा पैदा हो रही है। जनरल ज़मान का यह कहना कि 'सेना राष्ट्र की रक्षा के लिए है, पुलिसिंग के लिए नहीं,' इसी हताशा को दर्शाता है। इस बीच, इस्लामवादी ताकतें मजबूत हुई हैं, अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़े हैं, और नागरिक नेतृत्व का संकट गहरा गया है। शेख हसीना और अवामी लीग के राजनीतिक परिदृश्य से बाहर होने, और बीएनपी की अध्यक्ष खालिदा जिया के खराब स्वास्थ्य के साथ, देश में एक खतरनाक राजनीतिक शून्य है।
दिल्ली की दुविधा
भारत के लिए, यह स्थिति एक रणनीतिक दुःस्वप्न के सच होने जैसी है। 15 वर्षों का कालखंड और स्थिरता अब अनिश्चितता और अस्थिरता में बदल गई है। नई दिल्ली के सामने कई गंभीर चिंताएँ हैं:
कट्टरपंथ का उदय: एक कमजोर और अस्थिर बांग्लादेश कट्टरपंथी इस्लामी समूहों के लिए एक उपजाऊ जमीन प्रदान करता है, जिनका सीधा असर भारत की आंतरिक सुरक्षा पर पड़ सकता है, विशेष रूप से पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर राज्यों में।
चीन और पाकिस्तान का प्रभाव: राजनीतिक शून्य चीन और पाकिस्तान को बांग्लादेश में अपना प्रभाव बढ़ाने का एक सुनहरा अवसर प्रदान करता है, जिससे इस क्षेत्र में भारत का रणनीतिक लाभ कम हो सकता है।
आर्थिक और कनेक्टिविटी परियोजनाएं: भारत ने बांग्लादेश के साथ कनेक्टिविटी और व्यापार में भारी निवेश किया है। राजनीतिक अस्थिरता इन सभी परियोजनाओं को खतरे में डाल सकती है।
अल्पसंख्यकों की सुरक्षा: बांग्लादेश में हिंदू और अन्य अल्पसंख्यकों पर किसी भी हमले का भारत में राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव पड़ता है।
आने वाले चुनाव इस संकट का समाधान नहीं, बल्कि इसके अगले अध्याय की शुरुआत हो सकते हैं। एक कमजोर नागरिक सरकार, चाहे वह किसी भी दल की हो, सेना पर अपनी निर्भरता बढ़ाएगी, जिससे सेना का प्रभाव और बढ़ेगा। यदि चुनाव हिंसक होते हैं या परिणाम विवादित होते हैं, तो सेना के सीधे हस्तक्षेप का खतरा और भी बढ़ जाएगा।
निष्कर्ष यह है कि बांग्लादेश में हसीना युग का अंत एक युग का अंत है। वह 'सोने का पिंजरा' जो उन्होंने बनाया था, टूट चुका है, और अब 1975 के भूत एक बार फिर बैरकों से बाहर झाँक रहे हैं। भारत के लिए, यह केवल एक पड़ोसी देश का संकट नहीं है। यह उसकी 'नेबरहुड फर्स्ट' नीति की सबसे बड़ी परीक्षा है। नई दिल्ली को एक बहुत ही नाजुक संतुलन बनाना होगा—बिना हस्तक्षेप किए स्थिरता का समर्थन करना, और इस बात के लिए तैयार रहना कि उसकी पूर्वी सीमा पर एक बार फिर अनिश्चितता और अस्थिरता का लंबा दौर शुरू हो सकता है।