शंघाई से उभरती नई वैश्विक धुरी: ईरान, एससीओ और एंटी-नाटो की बढ़ती रणनीति
संदीप कुमार
| 01 Aug 2025 |
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हाल ही में बीजिंग में संपन्न हुए शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक ने एक नए भू-राजनीतिक परिदृश्य का संकेत दिया है। लंबे समय से, वैश्विक सुरक्षा व्यवस्था का निर्धारण पश्चिमी केंद्रों जैसे वाशिंगटन या ब्रसेल्स में होता आया था, लेकिन अब एक नया कूटनीतिक ढांचा आकार ले रहा है, जिसकी पहल ईरान, रूस और चीन जैसे राष्ट्र बीजिंग में कर रहे हैं। ईरान की भागीदारी और उसके नए सुरक्षा दृष्टिकोण के साथ, एक 'एंटी-नाटो' या 'विकल्पीय वैश्विक सुरक्षा ढांचा' उभर रहा है, जो बहुध्रुवीयता, संप्रभुता और सामूहिक प्रतिरोध के सिद्धांतों पर आधारित है। यह सिर्फ एक सामरिक बदलाव नहीं है, बल्कि यह वैश्विक शक्ति संरचना के पुनर्गठन और एक नए अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के उदय का संकेत है।
यह परिवर्तन ऐतिहासिक संदर्भ में महत्वपूर्ण है। शीत युद्ध के बाद, अमेरिका के नेतृत्व वाला पश्चिमी गठबंधन दुनिया भर में राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य शक्ति का केंद्र बन गया। हालांकि, हाल के वर्षों में, रूस और चीन जैसी शक्तियों का उदय हुआ है, जिन्होंने पश्चिमी आधिपत्य को चुनौती दी है और बहुध्रुवीय दुनिया के लिए आवाज उठाई है। एससीओ एक ऐसा मंच प्रदान करता है जहां ये शक्तियां अपने हितों को आगे बढ़ा सकती हैं और एक वैकल्पिक वैश्विक सुरक्षा ढांचा विकसित कर सकती हैं। ईरान का एससीओ में शामिल होना इस प्रवृत्ति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो एक बहुध्रुवीय दुनिया की ओर बढ़ते बदलाव को दर्शाता है।
ईरान की रणनीतिक पुनर्संरचना: एक 'विकल्पीय धुरी' की खोज
तेहरान अब शंघाई सहयोग संगठन को सिर्फ एक प्रतीकात्मक मंच नहीं मानता है, बल्कि नाटो के प्रभाव को संतुलित करने वाला एक ठोस, कार्यात्मक और दूरगामी संगठन मानता है। ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अराकची ने बीजिंग में अपने भाषण में अमेरिका-इज़राइल की नीतियों की जिस स्पष्टता और विधिक आधारों से आलोचना की, वह केवल असंतोष की अभिव्यक्ति नहीं थी, बल्कि एक वैकल्पिक विश्व व्यवस्था का उद्घोष था। अराकची का तर्क था कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करके ईरान के परमाणु स्थलों पर हमले और पश्चिमी प्रतिबंध अवैध हैं। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि 'कथानक का नियंत्रण अब पश्चिमी शक्तियों के हाथ में नहीं है।' यह बयान मौजूदा वैश्विक शक्ति संरचना के प्रति ईरान की गहरी अस्वीकृति को दर्शाता है और एक नए, अधिक न्यायसंगत अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना के लिए उसकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
ईरान का दृष्टिकोण केवल सैद्धांतिक नहीं है। वह एक व्यावहारिक रणनीति का पालन कर रहा है जो क्षेत्र में अपने प्रभाव को मजबूत करने और पश्चिमी दबाव का मुकाबला करने के लिए डिज़ाइन की गई है। एससीओ को एक प्रभावी मंच के रूप में उपयोग करके, ईरान अपने क्षेत्रीय सहयोगियों के साथ अपने संबंधों को गहरा कर सकता है और एक संयुक्त मोर्चा बना सकता है। यह ईरान को अपनी सुरक्षा और आर्थिक हितों की रक्षा करने और एक स्वतंत्र विदेश नीति का पालन करने में मदद करेगा।
एससीओ को एक क्रियाशील सुरक्षा मंच बनाने का ईरानी रोडमैप
अब्बास अराकची की प्रस्तावनाएं केवल सैद्धांतिक नहीं थीं, बल्कि उन्होंने शंघाई सहयोग संगठन के लिए एक व्यवस्थित संस्थागत खाका प्रस्तुत किया, जिसका उद्देश्य इसे एक क्रियाशील सुरक्षा मंच बनाना है। उनके प्रस्तावित उपायों में शामिल हैं:
सामूहिक सुरक्षा निकाय: यह निकाय बाहरी हमलों, आतंकवाद और तोड़फोड़ जैसी गतिविधियों का जवाब देने के लिए बनाया जाएगा, जिससे सदस्य देशों को सुरक्षा की एक सामूहिक गारंटी मिल सके।
स्थायी समन्वय तंत्र: यह तंत्र सदस्य देशों के विरुद्ध हो रही गुप्त गतिविधियों को दर्ज करेगा और जवाबी रणनीति बनाएगा, जिससे सुरक्षा खतरों का मुकाबला करने के लिए त्वरित और समन्वित प्रतिक्रिया सुनिश्चित की जा सके।
•प्रतिबंध प्रतिरोध केंद्र: यह केंद्र पश्चिमी प्रतिबंधों के प्रभाव को सामूहिक रूप से झेलने के लिए बनाया जाएगा, जिससे सदस्य देशों को आर्थिक दबाव का सामना करने में मदद मिलेगी।
•शंघाई सुरक्षा मंच: यह मंच रक्षा और खुफिया समन्वय पर चर्चा करने के लिए बनाया जाएगा, जिससे सदस्य देशों के बीच सुरक्षा सहयोग बढ़ेगा।
•सांस्कृतिक और मीडिया सहयोग: यह सहयोग सूचना युद्ध और वैचारिक हमलों का मुकाबला करने के लिए किया जाएगा, जिससे सदस्य देशों को अपने मूल्यों और हितों की रक्षा करने में मदद मिलेगी।
इन प्रस्तावों से स्पष्ट है कि ईरान केवल पश्चिम का विरोध नहीं कर रहा है, बल्कि भविष्य का खाका भी तैयार कर रहा है। वह एससीओ को एक ऐसे संगठन के रूप में देखता है जो पश्चिमी प्रभुत्व को संतुलित कर सकता है और एक अधिक बहुध्रुवीय दुनिया को बढ़ावा दे सकता है।
रूस-चीन-ईरान की त्रिधारा: बहुध्रुवीयता की नई आधारशिला
इस बैठक में रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव की उपस्थिति और उनका चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मिलना इस ओर संकेत करता है कि मास्को-बीजिंग धुरी अब केवल आर्थिक नहीं, बल्कि रणनीतिक गठजोड़ का रूप ले चुकी है। ईरान की भूमिका इस गठजोड़ को एक नया भूराजनीतिक संतुलन देने में है। रूस इस समय सेंट्रल एशिया और दक्षिण एशिया को जोड़ने वाले ब्रिज की तरह कार्य कर रहा है। भारत, चीन, पाकिस्तान, ईरान - इन सबके साथ उसका संवाद यह दर्शाता है कि एससीओ एक लचीली लेकिन प्रभावशाली व्यवस्था बनने की दिशा में बढ़ रही है, जो विविध हितों को एक मंच पर समाहित कर सकती है - बिना किसी केंद्रीय प्रभुत्व के। रूस का बढ़ता प्रभाव मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में अपनी रणनीतिक स्थिति को मजबूत करने की इच्छा को दर्शाता है, जबकि चीन के साथ उसका गठबंधन उसे पश्चिमी देशों के साथ प्रतिस्पर्धा करने और एक बहुध्रुवीय दुनिया को बढ़ावा देने की अनुमति देता है।
रूस और चीन के बीच बढ़ते सहयोग से संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके सहयोगियों के लिए चुनौतियां बढ़ रही हैं। यह गठबंधन दुनिया भर में शक्ति संतुलन को बदल सकता है और संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रभाव को कम कर सकता है।
भारत की भूमिका: पश्चिम की अपेक्षाओं के विपरीत
पश्चिमी विश्लेषकों की यह भविष्यवाणी कि भारत की मौजूदगी से एससीओ में दरार पैदा होगी, पूरी तरह गलत साबित हुई। भारत ने न केवल सक्रिय भागीदारी की, बल्कि मंच के प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी दोहराई। भारत का यह रुख बताता है कि वह बहुध्रुवीयता में अपनी भूमिका को लेकर सजग है और पश्चिम की कठोर धुरी में पूरी तरह समाहित नहीं होना चाहता। यह भारत की स्वतंत्र विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण पहलू है, जो उसे अपने राष्ट्रीय हितों के अनुसार कार्य करने की अनुमति देता है।
भारत के लिए, एससीओ एक ऐसा मंच प्रदान करता है जहां वह मध्य एशिया और रूस के साथ अपने संबंधों को मजबूत कर सकता है। यह भारत को ऊर्जा संसाधनों तक पहुंच प्राप्त करने, आतंकवाद का मुकाबला करने और क्षेत्रीय सुरक्षा को बढ़ावा देने में भी मदद करता है। भारत का एससीओ में सक्रिय रहना इस क्षेत्र में एक जिम्मेदार और रचनात्मक शक्ति के रूप में अपनी भूमिका को मजबूत करने की उसकी इच्छा को दर्शाता है।
हालांकि, भारत के लिए एससीओ में अपनी भूमिका को संतुलित करना एक चुनौती है, क्योंकि उसके संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के साथ भी मजबूत संबंध हैं। भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि एससीओ में उसकी भागीदारी पश्चिमी देशों के साथ उसके संबंधों को नुकसान न पहुंचाए।
संयुक्त राष्ट्र के कानूनों के हवाले से पश्चिम को चुनौती
अराकची ने संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 2, खंड 4 और सुरक्षा परिषद की प्रस्ताव संख्या 487 का हवाला देते हुए बताया कि ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले और प्रतिबंध पूरी तरह गैरकानूनी हैं। यह रुख 'विधिक प्रतिरोध' का प्रतीक है - जो अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पश्चिम की नैतिक वैधता को चुनौती देता है। यह कानूनी तर्क न केवल ईरान के दृष्टिकोण को मजबूत करता है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय कानून के आधार पर पश्चिम की कार्रवाइयों की वैधता पर भी सवाल उठाता है।
यह दृष्टिकोण अंतरराष्ट्रीय कानून के महत्व पर जोर देता है और पश्चिमी शक्तियों को अंतरराष्ट्रीय नियमों का पालन करने के लिए प्रोत्साहित करता है। ईरान का कानूनी प्रतिरोध अन्य विकासशील देशों के लिए एक मिसाल कायम कर सकता है जो अपने हितों की रक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय कानून का उपयोग करना चाहते हैं।
पश्चिम की प्रतिक्रिया: अनुमान के अनुरूप दबाव
ईरान के प्रस्तावों के कुछ ही दिनों में, यूरोपीय संघ ने आठ ईरानी व्यक्तियों और एक संस्था पर नए प्रतिबंध लगाए। कारण - 'गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन।' लेकिन यह एक रणनीतिक संकेत था। पश्चिम चाहता है कि एससीओ जैसे मंच प्रभावी न बनें और ईरान जैसी राष्ट्रों की आवाज़ वैश्विक विमर्श से बाहर रहे। लेकिन यही प्रतिक्रिया ईरान की बात को सही ठहराती है: 'वर्तमान वैश्विक व्यवस्था 'नियम आधारित' नहीं, बल्कि 'शक्ति आधारित' हो चुकी है।'
पश्चिमी दबाव ईरान को अपनी विदेश नीति में और अधिक दृढ़ रहने के लिए प्रेरित कर सकता है और पश्चिमी देशों के साथ उसके संबंधों को और खराब कर सकता है। हालांकि, यह ईरान को एससीओ और अन्य गैर-पश्चिमी शक्तियों के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने के लिए भी प्रेरित कर सकता है।
नाटो बनाम एससीओ: संरचनात्मक अंतर
नाटो एक केंद्रीकृत, अमेरिका-प्रधान सुरक्षा गठबंधन है, जिसमें सदस्य देशों को केंद्रीय आदेशानुसार चलना होता है। इसके विपरीत, एससीओ का ढांचा अधिक समतावादी और संप्रभुता-सम्मत है। इसमें किसी एक शक्ति का वर्चस्व नहीं है। नाटो का आधार सामूहिक प्रतिरोध के नाम पर एकसूत्रीय संचालन है, जबकि एससीओ का आधार विविधताओं में सह-अस्तित्व और संवाद है।
यह संरचनात्मक अंतर एससीओ को उन देशों के लिए एक आकर्षक विकल्प बनाता है जो पश्चिमी आधिपत्य से असहज हैं। एससीओ सदस्य देशों को अपनी संप्रभुता बनाए रखने और अपनी विदेश नीति का स्वतंत्र रूप से पालन करने की अनुमति देता है। यह एससीओ को नाटो की तुलना में अधिक लचीला और अनुकूलनीय बनाता है।
भविष्य की परिकल्पना: क्या यह सचमुच 'एंटी-नाटो' बन सकता है?
ईरान की दीर्घकालिक रणनीति इस विचार पर टिकी है कि 21वीं सदी में एकमात्र सुरक्षा तंत्र नाटो नहीं रहेगा। अगर एससीओ ईरान के प्रस्तावों को स्वीकार कर संस्था के ढांचे में बदलाव करता है, तो यह सचमुच पश्चिमी प्रभुत्व को संतुलित करने वाला विकल्प बन सकता है। यह सिर्फ ईरान की बात नहीं है - इसमें रूस, चीन, भारत, पाकिस्तान, सेंट्रल एशियन राष्ट्रों जैसे अनेक देश हैं जो पश्चिमी वर्चस्व से असहज हैं और विकल्प की तलाश में हैं।
एससीओ के 'एंटी-नाटो' बनने की संभावना पश्चिमी शक्तियों के लिए एक गंभीर चुनौती पेश करती है। इससे वैश्विक शक्ति संतुलन में बदलाव हो सकता है और संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रभाव को कम किया जा सकता है।
निष्कर्ष: बीजिंग में नया विश्वदृष्टिकोण आकार ले रहा है
ईरान का शंघाई सहयोग संगठन के मंच से उठाया गया यह कदम केवल एक रणनीतिक पुनर्संरचना नहीं है, बल्कि भविष्य की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का ब्लूप्रिंट है। यह एक ऐसा प्रयास है जो बताता है कि वैश्विक राजनीति अब केवल वाशिंगटन या ब्रसेल्स में नहीं तय होगी - बल्कि तेहरान, बीजिंग और मास्को जैसे शहरों में भी उसकी स्क्रिप्ट लिखी जाएगी। ईरान अब केवल एक 'परेशानी पैदा करने वाला राष्ट्र' नहीं, बल्कि एक संस्थागत योजनाकार के रूप में उभर रहा है। और यदि उसके प्रस्तावों को समर्थन मिलता है, तो 21वीं सदी में हम सचमुच एक नया वैश्विक सुरक्षा ढांचा बनते देख सकते हैं - जहां बहुध्रुवीयता, संप्रभुता और सहयोग, वर्चस्व और अधिपत्य पर भारी पड़ेंगे।
बीजिंग में एससीओ की बैठक एक ऐसे नए युग की शुरुआत का संकेत देती है जहां वैश्विक शक्ति संरचना अधिक विकेंद्रीकृत और बहुध्रुवीय होगी। यह एक ऐसा युग है जहां विकासशील देश अंतरराष्ट्रीय मामलों में अधिक सक्रिय भूमिका निभाएंगे और वैश्विक नियमों और मानदंडों को आकार देने में मदद करेंगे। यह एक ऐसा युग है जहां सहयोग और संवाद संघर्ष और टकराव की जगह लेंगे।
हालांकि यह परिवर्तन आसान नहीं होगा। पश्चिमी शक्तियों से प्रतिरोध की उम्मीद की जा सकती है, और एससीओ के भीतर सदस्य देशों के बीच हित संघर्ष हो सकते हैं। लेकिन फिर भी, बहुध्रुवीय दुनिया का उदय एक अपरिहार्य प्रवृत्ति है। जैसे-जैसे वैश्विक शक्ति संतुलन बदलता है, विकासशील देशों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे अपनी आवाज उठाएं और भविष्य की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को आकार देने में मदद करें।
इस संदर्भ में, भारत को एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है। भारत एक बड़ा और प्रभावशाली देश है जिसकी पश्चिमी और गैर-पश्चिमी दोनों शक्तियों के साथ मजबूत संबंध हैं। भारत एक ऐसा सेतु बन सकता है जो विभिन्न दृष्टिकोणों को एक साथ लाता है और वैश्विक सहमति को बढ़ावा देता है।
भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि बहुध्रुवीय दुनिया एक अधिक न्यायसंगत और समावेशी दुनिया हो। भारत को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि बहुध्रुवीय दुनिया शांतिपूर्ण और स्थिर हो। भारत अपने कूटनीतिक कौशल और अपनी आर्थिक ताकत का उपयोग करके इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद कर सकता है। अंतिम रूप से, बीजिंग में एससीओ की बैठक वैश्विक राजनीति में एक महत्वपूर्ण क्षण थी। यह एक बहुध्रुवीय दुनिया के उदय का संकेत था, और इसने विकासशील देशों को भविष्य की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को आकार देने में मदद करने का अवसर प्रदान किया। यह अवसर भारत के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह इस क्षेत्र में और दुनिया भर में नेतृत्व की भूमिका निभा सकता है। भारत को इस अवसर को जब्त करना चाहिए और एक अधिक न्यायसंगत, समावेशी, शांतिपूर्ण और स्थिर दुनिया के निर्माण में मदद करनी चाहिए।