6–7 जुलाई 2025 को जब रियो डी जेनेरियो की चमचमाती शामों में BRICS नेताओं का जमावड़ा हुआ, तो यह सिर्फ एक सम्मेलन नहीं, बल्कि वैश्विक वित्तीय व्यवस्था के भविष्य की पटकथा लिखने वाला क्षण बन गया। इस 17वें BRICS शिखर सम्मेलन में दुनिया ने साफ देखा—अब BRICS अमेरिकी डॉलर के एकाधिकार को चुनौती देने के लिए न केवल तैयार हैं, बल्कि सक्रिय मोर्चाबंदी की दिशा में कदम भी बढ़ा चुके हैं।
BRICS क्रास बॉर्डर पेमेंट इनिसिएटिव का बिगुल और डॉलर की नींव पर चोट
सम्मेलन के केंद्र में रही ‘BRICS क्रास बॉर्डर पेमेंट इनिसिएटिव’—एक ऐसी साझा भुगतान प्रणाली, जो सदस्य देशों को अपनी स्थानीय मुद्राओं में व्यापार की सुविधा देगी। यह न केवल डॉलर-निर्भरता को कम करेगी, बल्कि वैश्विक दक्षिण को आर्थिक संप्रभुता की नई राह पर ले जाएगी। ब्राज़ील के राष्ट्रपति लुइज़ लूला दा सिल्वा ने कहा, “हमें अब ऐसी दुनिया चाहिए जहाँ डॉलर ही एकमात्र विकल्प न हो।”
लेकिन जैसे ही यह विचार सामने आया, वाशिंगटन में हलचल मच गई।
ट्रंप की धमकी और अमेरिका की प्रतिक्रिया
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप—जो जनवरी 2025 में फिर से दोबारा सत्ता में लौटे हैं— उन्होंने BRICS की इस पहल को “अमेरिका-विरोधी आर्थिक गठबंधन” कहकर खारिज कर दिया। ट्रंप ने दो टूक कहा, “जो देश BRICS की इस नीति का हिस्सा बनेंगे, उन पर 10% अतिरिक्त टैरिफ लगाया जाएगा।” यह चेतावनी 1 अगस्त 2025 से लागू हो सकती है।
इस बयान ने BRICS देशों के साथ-साथ वैश्विक वित्तीय बाजारों में हलचल मचा दी। निवेशकों में असमंजस, नीति निर्माताओं में बेचैनी और विश्लेषकों में उत्सुकता भर गई—क्या यह नया शीत युद्ध आर्थिक मोर्चे पर शुरू हो गया है?
भारत: दो ध्रुवों के बीच संतुलन साधता खिलाड़ी
BRICS का संस्थापक सदस्य भारत इस उथल-पुथल में सबसे दिलचस्प स्थिति में है। एक ओर वह बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था का समर्थक है, दूसरी ओर वह अमेरिका का रणनीतिक साझेदार भी। हाल ही में भारत और अमेरिका के बीच एक ‘मिनी ट्रेड डील’ की घोषणा लगभग तय मानी जा रही थी, जिसमें डिजिटल व्यापार, कृषि, टेक्सटाइल और फार्मा जैसे क्षेत्रों में सहयोग शामिल था। लेकिन वह डील भी अभी ठंडे बस्ते में है तिस पर तुर्रा ट्रंप की इस धमकी ने इस डील पर और प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।
अब भारत के सामने स्पष्ट विकल्प नहीं, बल्कि कठिन संतुलन है। अगर वह BRICS की ‘BRICS क्रास बॉर्डर पेमेंट इनिसिएटिव’ पहल का समर्थन करता है, तो उसे अमेरिका की अप्रसन्नता झेलनी पड़ सकती है—जिससे भारत के प्रमुख निर्यात उद्योग जैसे फार्मा, IT और वस्त्र प्रभावित होंगे। लेकिन अगर भारत इस पहल से दूरी बनाए रखता है, तो वह एक ऐसे वैश्विक बदलाव से पीछे छूट सकता है, जहाँ उसका नेतृत्व अपेक्षित है।
भारत के लिए यह संकट नहीं, नेतृत्व का क्षण है
भारत के सामने यह मौका है कि वह सिर्फ भागीदार नहीं, दिशा-निर्धारक बने। चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करने वाला भारत एक ऐसा पुल बन सकता है जो BRICS और पश्चिम के बीच संवाद की राह खोले। भारत की रणनीतिक स्वायत्तता उसे वह ताक़त देती है जिससे वह दोनों पक्षों से संवाद करते हुए एक नई वैश्विक व्यवस्था की नींव रख सके।
BRICS का जवाब और अमेरिका की तानाशाही सोच पर सवाल
ब्राज़ील, चीन और रूस ने ट्रंप की धमकी का करारा जवाब दिया। लूला दा सिल्वा ने इसे “तानाशाही और अव्यावसायिक सोच” करार दिया, जबकि चीन और रूस ने संयुक्त बयान जारी कर कहा कि BRICS का उद्देश्य अमेरिका को हटाना नहीं, बल्कि वित्तीय व्यवस्था को अधिक संतुलित और समावेशी बनाना है।
निष्कर्ष: भारत की अग्निपरीक्षा और भविष्य की राह
2025 का यह क्षण भारत के लिए केवल एक कूटनीतिक चुनौती नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक अवसर है। क्या भारत वैश्विक राजनीति का दर्शक बना रहेगा, या अपने बुद्धिमत्ता और विवेक से नया संतुलन गढ़ेगा? रियो की धरती से गूंजती यह पुकार भारत से जवाब चाहती है—नेतृत्व करो या फिर अवसर गँवा दो।
यह समय भारत का है—संतुलन का, संकल्प का और एक नए विश्व आर्थिक युग की आधारशिला रखने का।
श्रेया गुप्ता कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
निजी हैं और कल्ट करंट का इससे सहमत होना अनिवार्य नहीं है।