मध्य पूर्व एक बार फिर तनाव के दौर से गुजर रहा है, जहाँ ईरान और इजरायल के बीच मौजूदा तनाव एक बड़े संघर्ष में बदल सकता है। जो पहले सिर्फ़ शब्दों की लड़ाई थी, अब वह हमलों, गुप्त ऑपरेशनों और पूर्ण युद्ध में बदल चुकी है। इस पूरे संकट का केंद्र है- ईरान का परमाणु कार्यक्रम, जिसे इजरायल अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानता है। इधर, अमेरिका भी इस युद्ध में कूदने की घोषणा कर चुका था। लेकिन अब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पलटी मार दी है औऱ कहा है कि वह अभी दो सप्ताह का समय लेंगे, तभी कोई निर्णय करेंगे कि इस युद्ध में अमेरिका शामिल होगा या नहीं।
इजरायल को खतरा क्यों महसूस हो रहा है?
इजरायल का मानना है कि ईरान सिर्फ़ शांतिपूर्ण ऊर्जा के लिए यूरेनियम संवर्धन नहीं कर रहा, बल्कि धीरे-धीरे परमाणु बम बनाने की ओर बढ़ रहा है। ईरान हमेशा यही दावा करता है कि उसका कार्यक्रम सिर्फ़ असैनिक उपयोग के लिए है, लेकिन वर्षों की गोपनीयता, टूटे वादे और अंतरराष्ट्रीय निरीक्षकों पर पाबंदियों ने भरोसा खत्म कर दिया है। इजरायल का कहना है कि राजनय विफल हो चुका है।2015 का परमाणु समझौता, प्रतिबंध, वार्ताएँ कुछ भी ईरान को रोक नहीं पाया। और जब ट्रंप सरकार ने इस समझौते से अमेरिका को अलग कर लिया, तो इजरायल की नज़र में हालात और बिगड़ गए।
अब इजरायल को लगता है कि इंतज़ार करना खतरनाक हो सकता है। हर गुजरते दिन के साथ, ईरान परमाणु शक्ति बनने के करीब पहुँच रहा है और यह इजरायल के लिए एक लाल रेखा है। इसीलिए हम देख रहे हैं कि इजरायल ने आक्रामक कदम उठाए हैं। ईरानी लक्ष्यों पर हवाई हमले, तोड़फोड़ के ऑपरेशन, और एक स्पष्ट संदेश कि वह खतरा बढ़ने देखते हुए चुप नहीं बैठेगा।
अरब देशों में भी बढ़ रही हैं अंदरूनी चिंता
इजरायल अकेला नहीं है जो चिंतित है। कई खाड़ी देश जैसे सऊदी अरब और यूएई भी अंदर ही अंदर वही डर महसूस कर रहे हैं, भले ही वे खुलकर न कहें। ईरान सिर्फ़ परमाणु क्षमता ही नहीं बना रहा, बल्कि पूरे मध्य पूर्व में अपना प्रभाव भी बढ़ा रहा है। लेबनान में हिज़्बुल्लाह, यमन में हूथी, और सीरिया व इराक़ में ईरान-समर्थित मिलिशिया। ये सभी ताकतवर गुट ईरान के नियंत्रण में हैं, जिससे वह पूरे क्षेत्र में अपनी ताकत बढ़ा रहा है।
अरब नेताओं के लिए, ईरान के कदम आत्मरक्षा से ज़्यादा क्षेत्रीय वर्चस्व की कोशिश लगते हैं। एक परमाणु संपन्न ईरान, जो पहले से ही अस्थिर देशों में अपना प्रभाव जमा चुका है, कई लोगों के लिए डरावना विचार है। इसीलिए कुछ अरब देश चुपचाप इजरायल के कड़े रुख का समर्थन कर रहे हैं।भले ही राजनीतिक कारणों से वे इसे ज़ोर से न कहें।
और फिर है अमेरिका जो कभी मध्य पूर्व का सबसे ताकतवर खिलाड़ी था, अब भ्रम पैदा कर रहा है। ट्रंप के समय में अमेरिकी नीति इजरायल के समर्थन और "अनंत युद्धों से बचने" के बीच झूलती रही। इस अनिश्चितता ने सहयोगियों को परेशान कर दिया। युद्ध छिड़ गया, अब सवाल है कि क्या अमेरिका मदद के लिए आएगा? ट्रंप ने अब दो सप्ताह का समय ले लिया है कि वह इस युद्ध में शामिल होगा या नहीं, इसका निर्णय करने के लिए।
आज, अमेरिका खुद फंसा हुआ लगता है। पुरानी सरकारें या तो सैन्य कार्रवाई करती थीं या कूटनीति पर ज़ोर देती थीं, लेकिन अब अमेरिका चीन, आर्थिक प्रतिस्पर्धा और घरेलू मुद्दों पर ज़्यादा ध्यान दे रहा है। मध्य पूर्व में उसकी स्थिरता बनाए रखने वाली भूमिका कमज़ोर हो गई है, जिससे एक खतरनाक शक्ति शून्य पैदा हो गया है।
यह अनिश्चितता हालात को और जोखिम भरा बना देती है। अगर अमेरिका दूर रहा, तो ईरान और भी हिम्मत दिखा सकता है, क्योंकि उसे लगेगा कि उसे रोकने वाला कोई नहीं। लेकिन अगर अमेरिका इजरायल का पूरा समर्थन करता है, तो संघर्ष और भी भड़क सकता है। ईरान के प्रॉक्सी गुट, पड़ोसी देश, और यहाँ तक कि रूस-चीन जैसी बड़ी ताकतें भी इसमें शामिल हो सकती हैं।
संकट के कगार पर हैं मध्य पूर्व
इस समय, मध्य पूर्व एक धागे पर चल रहा है। एक गलत कदम चाहे वह गलत हमला हो या कूटनीति की असफलता पूरे क्षेत्र को अराजकता में धकेल सकता है। जो शुरुआत परमाणु ऊर्जा को लेकर बहस थी, वह अब सत्ता, प्रभाव और अस्तित्व की जंग बन चुकी है।
पूरी दुनिया इस पर नज़र गड़ाए हुई है। सवाल यह है कि क्या कूटनीति अभी भी इस संकट को शांत कर सकती है या फिर यह तनाव एक बड़े युद्ध में बदल जाएगा?
श्रेया गुप्ता कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
निजी हैं और कल्ट करंट का इससे सहमत होना अनिवार्य नहीं है।