आवरण कथा- ट्रंपाघात

संदीप कुमार

 |  30 Jun 2025 |   8
Culttoday

वैश्विक लोकतंत्र और नेतृत्व का प्रतीक रहा अमेरिका आज भीतर से बिखरा हुआ है और अंतरराष्ट्रीय मंच पर लगातार प्रभावहीन होता जा रहा है। राष्ट्रपति ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में वे नीतियाँ, जिन्हें कभी ‘साहसिक’ कहा गया था, अब अव्यवस्थित, आत्ममुग्ध और ख़तरनाक मानी जाने लगी हैं। बिखरती कूटनीतिक साझेदारियाँ, भीतरी ध्रुवीकरण और नीतिगत अस्थिरता ने अमेरिका की वैश्विक साख को गहरा आघात पहुँचाया है। ऐसे समय में, जब विश्व एक नए शक्ति-संतुलन की ओर अग्रसर है, यह प्रश्न और भी तीव्र होकर उभरता है:
क्या ट्रंप अमेरिका को एक नई दिशा की ओर ले जा रहे हैं — या उसे पतन की कगार पर धकेल रहे हैं?
क्या वे शांति और सह-अस्तित्व की दुनिया की नींव रख रहे हैं — या एक विध्वंसकारी व्यवस्था की पटकथा लिख रहे हैं?


डोनाल्ड ट्रंप का दूसरा कार्यकाल, एक व्यक्ति की सत्ता में वापसी मात्र नहीं, बल्कि लोकतंत्र, बहुपक्षीयता और अंतरराष्ट्रीय दायित्वों के प्रति बढ़ते अविश्वास का घिनौना प्रतीक है। अमानवीय प्रवासी नीतियां, सैन्य कूटनीति में अंधाधुंध फैसले, और वैश्विक गठबंधनों में गहरी होती अनिश्चितता - ये सब चीख-चीखकर कह रहे हैं कि अमेरिका अब 'विश्व का नैतिक प्रहरी' नहीं, बल्कि एक स्वार्थी और आत्ममुग्ध शक्ति बनकर रह गया है। ये वो अमेरिका है, जो वैश्विक मंच पर अपनी दादागिरी चलाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है, चाहे इसका अंजाम पूरी दुनिया को भुगतना पड़े।
लेकिन, इतिहास कभी भी अंतिम नहीं होता। 'जब तक सांस, तब तक आस' - उम्मीद अभी भी बाकी है! अगर अमेरिकी संस्थाएं, नागरिक समाज और वैश्विक समुदाय एकजुट होकर ट्रम्प के एकतरफा और विनाशकारी फैसलों का डटकर मुकाबला करें, तो यह कार्यकाल इतिहास में एक चेतावनी बनकर दर्ज हो सकता है, न कि एक ऐसी स्थायी लकीर, जिसे मिटाना नामुमकिन हो। अब सवाल यह है कि क्या अमेरिका इस 'ट्रंपाघात' से उबरकर फिर से भरोसेमंद नेतृत्व की ओर लौटेगा, या आने वाली पीढ़ियां इसे उस काले युग के रूप में याद रखेंगी, जब लोकतंत्र, नैतिकता और अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी की नींव पूरी तरह से चरमरा गई थी?
22 जून, 2025 की रात। 'आधी रात का हथौड़ा' - कुछ इसी अंदाज में अमेरिका ने 'ऑपरेशन मिडनाइट हैमर' चलाया। इस ऑपरेशन के तहत, अमेरिकी बमवर्षकों और क्रूज मिसाइलों ने ईरान के तीन सबसे महत्वपूर्ण परमाणु स्थलों - फ़ोर्दो, नतांज और इस्फ़हान - को पल भर में धूल में मिला दिया। इस हवाई हमले ने पूरे मध्य-पूर्व को फिर से युद्ध के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया। अमेरिका ने हमेशा की तरह यह दावा किया कि ईरान 'परमाणु हथियार बनाने के अंतिम चरण' में है, और यह हमला 'निवारक सैन्य रणनीति' का हिस्सा है। लेकिन, अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने इसे सरासर मूर्खता, जानबूझकर उकसावे और एकतरफा आक्रमण करार दिया।
ईरान ने इस हमले को 'युद्ध की खुली घोषणा' मानते हुए बदले की आग में जलने की कसम खाई। इसके बाद, खाड़ी क्षेत्र में अमेरिकी ठिकानों, इजराइल और सऊदी गठबंधन पर हमलों का खतरा मंडराने लगा। ईरान समर्थित आतंकी संगठन - हिजबुल्लाह, हूती विद्रोही और इराकी शिया मिलिशिया - सबने मिलकर क्षेत्रीय अस्थिरता को और भी गहरा कर दिया। 'तेल में आग लगाना' - कुछ ऐसा ही कर दिखाया है अमेरिका ने, जिसके परिणाम न केवल मध्य-पूर्व, बल्कि पूरी दुनिया को भुगतने पड़ेंगे।
रूस और चीन ने हमेशा की तरह अमेरिका के इस कदम को अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन बताया और उसकी कड़ी निंदा की। इस घटना ने यह साबित कर दिया कि ट्रम्प का अमेरिका, रणनीतिक संयम से कहीं ज्यादा तात्कालिक शक्ति प्रदर्शन पर भरोसा करता है। यह ऐसी नीति है, जो वैश्विक शांति के लिए एक गंभीर खतरा बन सकती है। 'बिन पेंदी का लोटा' - कुछ ऐसा ही हाल अमेरिका की विदेश नीति का हो गया है, जो हर बार अपने ही फैसलों से पलट जाती है।
यह हमला न केवल पश्चिम एशिया को झकझोरता है, बल्कि वैश्विक तेल आपूर्ति, ऊर्जा सुरक्षा और राजनीतिक संतुलन को भी तहस-नहस कर देता है। 'आ बैल मुझे मार' - यह कहावत इस स्थिति पर बिल्कुल सटीक बैठती है, जहाँ एक महाशक्ति जानबूझकर खुद को युद्ध के दलदल में धकेल रही है, यह जानते हुए भी कि इसके परिणाम पूरी दुनिया के लिए विनाशकारी हो सकते हैं। अमेरिका, एक ऐसे पागल हाथी की तरह बर्ताव कर रहा है, जो अपने ही वजन से कुचलने को तैयार है।
और यह वही ट्रम्प हैं, जो अपनी चुनावी रैलियों में गरजते थे कि वे सत्ता में आने के बाद रूस-यूक्रेन युद्ध को 24 घंटे में खत्म करवा देंगे! जो भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्ष को रोकने का झूठा श्रेय लेते रहे हैं और खुद को शांति का मसीहा साबित करने के लिए बेताब रहते थे! 'थोथा चना बाजे घना' - ट्रम्प के ये दावे खोखले वादों से ज्यादा कुछ नहीं हैं, जो सिर्फ दिखावे के लिए किए जाते हैं। उनकी दिली ख्वाहिश तो हमेशा से ही नोबेल शांति पुरस्कार पाने की रही है, ताकि वे खुद को वैश्विक शांति का अगुआ बता सकें। लेकिन, सच्चाई यह है कि ट्रम्प की नीतियां शांति से कहीं ज्यादा अशांति को बढ़ावा देती हैं।
नोबेल शांति पुरस्कार के प्रति ट्रम्प की ललक, उनके संकीर्ण दृष्टिकोण और ढुलमुल नेतृत्व शैली को उजागर करती है। यह पुरस्कार, जो दुनिया भर में शांति और सद्भाव को बढ़ावा देने वाले लोगों को दिया जाता है, ट्रम्प के हाथों में एक तमाशा बनकर रह गया है। उनका यह दावा कि उन्हें यह पुरस्कार तीन बार मिलना चाहिए था, न केवल अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की निष्पक्षता पर सवाल उठाता है, बल्कि वैश्विक संस्थानों के प्रति उनके मन में पल रहे अविश्वास को भी दर्शाता है। 'अपनी करनी, ना भरे तो क्या करे' - ट्रम्प को यह समझना होगा कि शांति पुरस्कार जीतने के लिए सिर्फ खोखले वादे नहीं, बल्कि ठोस काम करने पड़ते हैं।
नोबेल समिति को 'भ्रष्ट' और 'वामपंथी झुकाव वाली' संस्था कहकर, ट्रम्प ने कूटनीति की सारी हदें पार कर दी हैं। एक वैश्विक नेता से यह उम्मीद की जाती है कि वह अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का सम्मान करे, खासकर उन संस्थाओं का, जो वैश्विक शांति, सहयोग और न्याय को बढ़ावा देने के लिए स्थापित की गई हैं। 'ऊंची दुकान, फीका पकवान' - ट्रम्प की यह आलोचना दिखावे से भरी है, क्योंकि वे खुद ही अंतरराष्ट्रीय कानूनों और समझौतों का उल्लंघन करते रहे हैं।
ट्रम्प ने उत्तर कोरिया के साथ वार्ता, इजरायल-अरब समझौते और भारत-पाकिस्तान युद्धविराम जैसी कुछ सफलताओं का हवाला दिया है, लेकिन इन प्रयासों की स्थिरता और व्यापक वैश्विक संदर्भ में सीमाएं भी स्पष्ट हैं। विश्लेषकों का मानना है कि इनमें से कई पहलें एकतरफा, अपारदर्शी और दीर्घकालिक समाधान के बजाय तात्कालिक राजनीतिक लाभ से प्रेरित थीं। 'रात गई, बात गई' - ट्रम्प के ये समझौते दिखावटी थे, जिनका मकसद सिर्फ अपनी छवि चमकाना था, न कि स्थायी शांति स्थापित करना।
ट्रम्प की विदेश नीति 'अमेरिका फर्स्ट' के नारे के इर्द-गिर्द घूमती है, जिसे उनके समर्थक एक साहसिक और राष्ट्रहित में उठाया गया कदम मानते हैं। लेकिन, यही नीति अंतरराष्ट्रीय मंच पर अमेरिकी नेतृत्व की भूमिका को संकुचित कर देती है। 'अपने मुंह मियां मिट्ठू' - ट्रम्प खुद अपनी नीतियों की तारीफ करते नहीं थकते, लेकिन सच्चाई यह है कि उनकी नीतियां अमेरिका को दुनिया से अलग-थलग कर रही हैं।
ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल की शुरुआत से ही उनकी नीतियां हर तरफ से आलोचना का शिकार हो रही हैं। उनके कुछ फैसले वैश्विक स्थिरता, पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए गंभीर चिंता का कारण बने हैं। ट्रम्प का पेरिस समझौते से अमेरिका को बाहर निकालना एक ऐसा फैसला था, जिसे कई विशेषज्ञों ने जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक प्रयासों के लिए एक बड़ा झटका बताया। 'चिराग तले अंधेरा' - यह कहावत ट्रम्प की पर्यावरण नीति पर सटीक बैठती है, क्योंकि वे अपने देश में पर्यावरण की रक्षा करने के बजाय वैश्विक जलवायु संकट को और बढ़ा रहे हैं।
कुल मिलाकर, ट्रम्प का दूसरा कार्यकाल 'ट्रंपाघात' साबित हो रहा है। उनकी नीतियां न केवल वैश्विक स्तर पर अशांति फैला रही हैं, बल्कि घरेलू मोर्चे पर भी कई समस्याएं खड़ी कर रही हैं। ऐसे में, यह देखना होगा कि दुनिया इस 'ट्रंपाघात' से कैसे निपटती है और एक शांतिपूर्ण और स्थिर भविष्य की ओर कैसे बढ़ती है।
संयुक्त राष्ट्र, अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (आईसीसी) और अन्य वैश्विक संस्थानों से ट्रम्प प्रशासन की दूरी, एक गहरे जख्म की तरह है, जो अमेरिका के ऐतिहासिक अंतरराष्ट्रीय जुड़ाव के विरुद्ध है। 'गंगा उलटी बहना' - कुछ ऐसा ही हो रहा है, जहाँ अमेरिका, वैश्विक सहयोग के पथ से भटककर अलगाववाद की राह पर चल पड़ा है। यह सिर्फ दूरी नहीं, बल्कि उस भरोसे का टूटना है, जो दुनिया ने अमेरिका पर जताया था।
रूस को फिर से G8 में शामिल करने की ट्रम्प की वकालत और मैक्रॉन जैसे नेताओं पर की गई अभद्र टिप्पणियां, कूटनीतिक संवाद की मर्यादा को तार-तार कर देती हैं। यह 'मुंह में राम, बगल में छुरी' वाली नीति है, जहां दिखावे के लिए तो मित्रता की बात की जाती है, लेकिन असलियत में कूटनीति का गला घोंटा जा रहा है। सम्मेलनों में संयुक्त घोषणाओं से परहेज करना, वैश्विक सहयोग के लिए एक ऐसी दीवार खड़ी कर देता है, जिसे पार करना मुश्किल है।
ट्रम्प ने अपने दूसरे कार्यकाल में आक्रामक तरीके से टैरिफ युद्ध छेड़ दिया। यह युद्ध, हालाँकि किसी नतीजे पर नहीं पहुँचा, लेकिन इसने वैश्विक व्यापार में ज़हर घोल दिया। 'ऊंट किस करवट बैठेगा' - यह कहना मुश्किल है, लेकिन इतना तय है कि चीन, भारत और कनाडा जैसे साझेदारों के साथ अमेरिका के व्यापारिक संबंध अब पहले जैसे नहीं रहे। वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला पर इसका क्या असर होगा, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
ग्रीनलैंड, पनामा नहर और गाजा पर ट्रम्प के बेतुके बयान, न केवल अवास्तविक थे, बल्कि उन्होंने अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के सारे कायदे-कानून ताक पर रख दिए। इन बयानों से अमेरिका के रणनीतिक दृष्टिकोण की विश्वसनीयता को गहरा धक्का लगा। 'बंदर के हाथ में उस्तरा' - कुछ ऐसा ही हो रहा है, जहाँ ट्रम्प के हाथों में सत्ता आकर अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति का मज़ाक बन रही है।
दूसरे देशों को प्रेस की स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाने वाला अमेरिका खुद मीडिया घरानों को प्रेस कॉन्फ्रेंस से प्रतिबंधित कर रहा है। यह कदम लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों को खोखला कर रहा है। 'घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने' - ट्रम्प का यह कदम हास्यास्पद है, क्योंकि वे खुद अपने देश में प्रेस की स्वतंत्रता को दबा रहे हैं, और दूसरों को नसीहत दे रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर अमेरिका की जो साख थी, उसे ट्रम्प ने पूरी तरह से मिट्टी में मिला दिया है।
ट्रम्प की नीतियाँ एक नए वैश्विक शक्ति-संतुलन की ओर इशारा कर रही हैं, जहाँ पारंपरिक सहयोगी अब अमेरिका की जगह दूसरे विकल्पों पर विचार कर रहे हैं। 'बिल्ली के भाग छींका टूटा' - कुछ ऐसी ही स्थिति है, जहाँ चीन और यूरोपीय संघ जैसे देश अमेरिका की कमजोर होती पकड़ का फायदा उठाकर आगे बढ़ रहे हैं। अब अमेरिका को अपनी भूमिका को या तो नए सिरे से परिभाषित करना होगा, या फिर सीमित होकर रह जाना होगा।
ट्रम्प की विदेश नीति ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में वैश्विक नेतृत्वकर्ता की भूमिका सिर्फ राष्ट्रहित से संचालित हो सकती है, या उसे व्यापक नैतिक, कूटनीतिक और मानवतावादी मूल्यों के साथ भी जोड़ा जाना चाहिए। 'लातों के भूत बातों से नहीं मानते' - ट्रम्प को यह समझना होगा कि दुनिया सिर्फ ताकत से नहीं चलती, बल्कि नैतिकता और जिम्मेदारी भी जरूरी है।
डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियों ने वैश्विक मंच पर जिस तरह की अस्थिरता पैदा की है, वह सिर्फ अमेरिका की आंतरिक राजनीति का मसला नहीं है, बल्कि विश्व व्यवस्था के ताने-बाने में एक गहरा छेद है। 'पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर' - ट्रम्प की यह नीति अमेरिका के लिए घातक साबित हो सकती है, क्योंकि वे दुनिया के साथ दुश्मनी मोल लेकर खुद को कमजोर कर रहे हैं। उनकी प्राथमिकताएँ सिर्फ घरेलू राजनीति को साधने और 'अमेरिका फर्स्ट' के नारे तक सीमित रहीं, जिससे अंतरराष्ट्रीय सहयोग, आपसी विश्वास और संस्थागत ढांचे को गहरी चोट पहुँची है। इस स्थिति में, अंतरराष्ट्रीय समुदाय की प्रतिक्रियाएँ भी तीखी, स्पष्ट और बहुपक्षीय होती जा रही हैं।
ट्रम्प की नीतियों ने विश्व समुदाय को एक अजीब कश्मकश में डाल दिया है - यह समझ में नहीं आ रहा कि उनके फैसलों पर हंसे या रोएं। 'जैसी करनी वैसी भरनी' - यह कहावत यहाँ बिल्कुल सटीक बैठती है, क्योंकि अमेरिका को उन नीतियों के गंभीर परिणाम भुगतने पड़ रहे हैं, जो उसने खुद बनाई हैं। अब अमेरिका को अपने कर्मों का फल भुगतना ही होगा।
यूरोपीय संघ, खासकर जर्मनी और फ्रांस, ट्रम्प की नाटो के प्रति उदासीनता और G7 शिखर सम्मेलनों में उनके असहयोगी रवैये से न केवल नाराज हुए, बल्कि उन्होंने अपनी रणनीतिक स्वायत्तता को और मजबूत करने का फैसला किया। 'दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है' - यूरोपीय संघ अब अमेरिका पर आँख मूंदकर भरोसा करने को तैयार नहीं है, और अपनी सुरक्षा के लिए खुद कदम उठाने को मजबूर है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन और पेरिस जलवायु समझौते से ट्रम्प के हटने के फैसले ने अमेरिका को 'वैश्विक असहयोगी' के रूप में पेश कर दिया है। अब अमेरिका दुनिया के सामने एक ऐसे देश के रूप में आ गया है, जो सहयोग करने को तैयार नहीं है। पर्यावरण विशेषज्ञों ने ट्रम्प को 'पर्यावरण का विध्वंसक' तक कह डाला। 'घर जला तमाशा देखा' - ट्रम्प दुनिया को जलता हुआ देखकर तमाशा देख रहे हैं, उन्हें पर्यावरण की कोई परवाह नहीं है।
ट्रेड नीति के मोर्चे पर, चीन, भारत और यूरोपीय संघ के साथ आर्थिक टकराव, टैरिफ युद्ध और मुद्रा विवादों ने अमेरिका के व्यापारिक सहयोगियों को डरा दिया। 'जिस थाली में खाना, उसी में छेद करना' - ट्रम्प अपने व्यापारिक सहयोगियों के साथ दुश्मनी करके अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। भारत जैसे देशों को न केवल आर्थिक, बल्कि रणनीतिक मोर्चे पर भी मुश्किलों का सामना करना पड़ा, क्योंकि अमेरिका की नीति कभी भी स्थिर नहीं रही।
कुल मिलाकर, इन सभी प्रतिक्रियाओं से यह साफ हो गया है कि अमेरिका के दोस्त अब उसे विश्व नेता के रूप में नहीं, बल्कि एक 'अस्थिर साझेदार' के रूप में देखने लगे हैं। ट्रम्प की वाणी और व्यवहार में जो असहिष्णुता और स्वार्थ दिखाई दिया, वह आज की बहुपक्षीय दुनिया के साथ मेल नहीं खाता। 'जब रोम जल रहा था, नीरो बांसुरी बजा रहा था' - ट्रम्प दुनिया की परवाह किए बिना अपनी ही धुन में मस्त हैं।
वहीं दूसरी ओर, ट्रम्प के बेटे डोनाल्ड ट्रम्प जूनियर की क्रिप्टोकरेंसी कंपनी वर्ल्ड लिबर्टी फिनांसियल (डब्ल्यूएलएफ) और पाकिस्तान के बीच हुआ समझौता, ट्रम्प परिवार की छवि पर एक धब्बा है। 'बेटा बाप से दो कदम आगे' - ट्रम्प के बेटे भी अपने पिता के नक्शे कदम पर चलते हुए सत्ता का दुरुपयोग करने में पीछे नहीं हैं। यह समझौता तब हुआ, जब ट्रम्प प्रशासन भारत-पाक तनाव के बीच मध्यस्थता करने का नाटक कर रहा था, जिससे हितों के टकराव की आशंका और भी बढ़ गई। अमेरिकी सीनेट की एक कमेटी ने इस सौदे की जाँच शुरू कर दी है, ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या ट्रम्प परिवार ने अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल करके निजी लाभ कमाया है। 'हाथों को मेहंदी क्या, जब पीसे लहू' - ट्रम्प परिवार सत्ता का इस्तेमाल करके खुलकर भ्रष्टाचार कर रहा है, और उन्हें किसी का डर नहीं है।
यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती, क्योंकि ट्रम्प का शासनकाल अभी भी जारी है और वे लगातार कुछ न कुछ ऐसा कर रहे हैं, जिससे दुनिया हैरान है। 'अंधेर नगरी चौपट राजा' - कुछ ऐसा ही हाल अमेरिका का हो गया है, जहाँ ट्रम्प के नेतृत्व में सबकुछ उल्टा-पुल्टा हो रहा है। अमेरिकी प्रशासन की प्रवासी नीति ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। लॉस एंजेलिस में ट्रम्प की प्रवासी नीति के खिलाफ हजारों लोगों ने सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन किया, जिससे शहर में अफरा-तफरी मच गई। प्रदर्शनकारियों ने इसे अमानवीय और असंवैधानिक बताया। पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़पें भी हुईं, और कुछ गिरफ्तारियां भी हुईं। मानवाधिकार संगठनों ने इसे 'मानवता के खिलाफ अपराध' करार दिया। इस विरोध ने न केवल ट्रम्प की प्रवासी नीति पर सवाल खड़े किए, बल्कि अमेरिका की लोकतांत्रिक छवि को भी गहरा नुकसान पहुँचाया है।
ट्रम्प के कार्यकाल में अमेरिका ने एक ऐसी राह चुनी है, जो उसे दुनिया से अलग-थलग कर देगी। अब यह देखना है कि क्या अमेरिका इस 'ट्रंपाघात' से उबर पाएगा, या फिर यह विनाश की एक ऐसी कहानी बनकर रह जाएगा, जिसे आने वाली पीढ़ियाँ कभी नहीं भूल पाएंगी।
 

Culttoday

संयुक्त राष्ट्र, मानवाधिकार संगठनों और यूनिसेफ जैसे वैश्विक संस्थानों ने एक स्वर में ट्रम्प की प्रवासी नीति को मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन बताया। 'भैंस के आगे बीन बजाना' - इन संगठनों की चेतावनी ट्रम्प प्रशासन के लिए बेअसर साबित हुई, जो अपनी ही मनमानी करने पर तुला था। अमेरिका की प्रथम महिला मेलानिया ट्रम्प और पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा तक को इस अमानवीय नीति की निंदा करनी पड़ी, जो यह दर्शाता है कि यह कदम न केवल अंतरराष्ट्रीय कानूनों, बल्कि मानवता की बुनियादी नैतिकताओं के भी खिलाफ था। 'जब अपने ही घर में आग लगी हो, तो पड़ोसी से क्या उम्मीद करें?' - अमेरिका खुद ही मानवाधिकारों का हनन कर रहा था, तो दुनिया से क्या उम्मीद की जा सकती थी?
ट्रम्प प्रशासन ने ओबामा काल के डीएसीए (डेफर्ड एक्शन फॉर चाइल्डहूड अराइवल) कार्यक्रम को समाप्त करने की भी कोशिश की, जिससे अमेरिका में जन्मे लाखों 'ड्रीमर' - वे बच्चे जिनके माता-पिता अवैध रूप से अमेरिका आए थे - शिक्षा, रोजगार और कानूनी सुरक्षा से वंचित हो सकते थे। 'गरीब को मारो, और मारो कमर तोड़' - कुछ ऐसा ही कर रहा था ट्रम्प प्रशासन, जो पहले से ही कमजोर लोगों को और भी ज्यादा बेसहारा बना रहा था। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने 2020 में इस फैसले को असंवैधानिक बताया, लेकिन ट्रम्प ने फिर से इसे निशाना बनाया, जो उनकी हठधर्मिता का प्रतीक था।
इस नीति ने अमेरिका के अंदर गहरे मतभेद पैदा किए। विश्वविद्यालयों, गवर्नरों और नागरिक संगठनों ने इस कदम को 'छात्रों के भविष्य पर हमला' करार दिया। यह 'मानवता को ताक पर रखने' का एक ऐसा उदाहरण था, जिसने न केवल कानूनी प्रक्रिया का बलात्कार किया, बल्कि उस राष्ट्र की आत्मा को भी घायल कर दिया, जिसने हमेशा खुद को 'आप्रवासियों का देश' बताया था। 'मुंह में राम, बगल में छुरी' - अमेरिका एक तरफ तो खुद को आप्रवासियों का देश कहता था, और दूसरी तरफ उनके साथ अमानवीय व्यवहार कर रहा था।
ट्रम्प ने बार-बार मेक्सिकन और अन्य लैटिन अमेरिकी प्रवासियों को 'क्रिमिनल,' 'रेपिस्ट,' और 'ड्रग डीलर्स' कहकर नस्लीय विद्वेष को बढ़ावा दिया। उनके द्वारा मुस्लिम बहुल देशों पर लगाया गया 'ट्रैवल बैन' न केवल इस्लामोफोबिया को संस्थागत बनाता था, बल्कि अमेरिका की विविधता को भी नकारता था। 'एक हाथ से ताली नहीं बजती' - ट्रम्प ने एकतरफा फैसले लेकर अमेरिका को दुनिया से काट दिया और अपने ही देश में विभाजन की रेखा खींच दी। एसीएलयू और अन्य संगठनों ने इसे संविधान विरोधी करार दिया, जिससे अमेरिकी सॉफ्ट पावर को गहरा नुकसान हुआ। दुनिया भर में अमेरिका की छवि एक 'शरण देने वाले राष्ट्र' से हटकर 'द्वार बंद करने वाले गढ़' में बदल गई। 'जैसा राजा वैसी प्रजा' - ट्रम्प के शासन में अमेरिका की छवि एक क्रूर और संवेदनहीन राष्ट्र के रूप में उभरी, जो अपने मूल्यों और सिद्धांतों को भूल चुका है।
हद तो तब हो गई, जब अमेरिकी राष्ट्रपति ने कूटनीतिक प्रोटोकॉल तोड़ते हुए पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल आसीम मुनीर से मुलाकात की, जिससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय में आश्चर्य और संदेह फैल गया। यह कदम दर्शाता है कि ट्रम्प पाकिस्तान में निर्वाचित सरकारों को दरकिनार कर सैन्य तंत्र के साथ सीधी डील करने की राह पर थे। यह पाकिस्तान की लोकतांत्रिक प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर एक बड़ा सवालिया निशान था। 'चोर-चोर मौसेरे भाई' - यह मुलाकात इस बात का सबूत थी कि सत्ता और शक्ति के खेल में ट्रम्प किसी भी हद तक जा सकते थे, भले ही इसका मतलब लोकतांत्रिक मूल्यों को ताक पर रखना ही क्यों न हो।
ट्रम्प की यह रणनीति शायद चीन के प्रभाव को सीमित करने का प्रयास हो, क्योंकि पाक सेना को अमेरिका की ओर झुकाने से चीन-पाक गठबंधन में तनाव पैदा हो सकता है। लेकिन, यह रणनीति अमेरिका और पाकिस्तान के संबंधों को स्थिर आधार पर नहीं, बल्कि सामरिक समीकरणों पर रखती है, जो लंबे समय में भ्रामक और खतरनाक साबित हो सकती है। 'सांप भी मरे, और लाठी भी ना टूटे' - ट्रम्प एक ही चाल से कई शिकार करना चाहते थे, लेकिन उनकी यह रणनीति उलटी पड़ सकती थी।
यह मुलाकात ऐसे समय पर हुई, जब भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध चरम तनाव में थे। ट्रम्प ने अतीत में भी कश्मीर मुद्दे पर 'मध्यस्थता' की पेशकश की थी, जिसे भारत ने सिरे से खारिज कर दिया था। सेना से सीधी बातचीत, उस पृष्ठभूमि में, भारत के लिए चिंता का कारण बन सकती है। यह 'अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना' जैसा था - ट्रम्प अपनी गलत नीतियों से न केवल अमेरिका को नुकसान पहुंचा रहे थे, बल्कि भारत जैसे सहयोगी देशों को भी खतरे में डाल रहे थे।
यह आवश्यक है कि संयुक्त राष्ट्र और अन्य बहुपक्षीय संस्थान सक्रिय भूमिका निभाएं, जिससे शक्ति का संतुलन बनाए रखा जा सके और ट्रम्प की अतिवादी नीतियों के परिणामों से दुनिया को बचाया जा सके। अगर ऐसा होता है, तो ट्रम्प का यह कार्यकाल भविष्य के लिए एक चेतावनी बनकर रह जाएगा - एक ऐसा उदाहरण कि जब सत्ता विवेकहीन हाथों में हो, तो उसका दुष्परिणाम केवल एक देश पर नहीं, बल्कि पूरी दुनिया पर पड़ता है।
निष्कर्ष: 
डोनाल्ड ट्रम्प का 'ट्रंपाघात' कब तक चलेगा, यह कहना तो मुश्किल है लेकिन दुनिया को यह तय करना है कि क्या वह इस तबाही से उबरकर एक बेहतर भविष्य की ओर कदम बढ़ाएगी, या फिर इस विध्वंस की विरासत को आगे बढ़ाती रहेगी।
'जाको राखे साइयां, मार सके ना कोय' - उम्मीद अभी भी बाकी है। अगर अंतरराष्ट्रीय समुदाय एकजुट होकर काम करे, तो ट्रम्प के विनाशकारी कदमों को पलटा जा सकता है और एक शांतिपूर्ण और न्यायपूर्ण विश्व व्यवस्था स्थापित की जा सकती है।
'अंधेरे के बाद उजाला होता है' - यह याद रखना ज़रूरी है कि हर बुरा दौर हमेशा के लिए नहीं रहता। ट्रम्प का कार्यकाल एक ऐसा अंधेरा युग था, जिसने दुनिया को बहुत कुछ सिखाया है। अब यह हमारे ऊपर है कि हम उन सीखों से फायदा उठाकर एक बेहतर कल का निर्माण करें। 

आवरण कथा के अंतर्गत सभी स्टोरीज हेतु शोध और लेखन संजय श्रीवास्तव के नेतृत्व 
में कल्ट करंट टीम द्वारा किया गया है।

Browse By Tags

RECENT NEWS

आवरण कथा- ट्रंपाघात
संजय श्रीवास्तव |  30 Jun 2025  |  8
निर्दयता की क़ीमत
कल्ट करंट डेस्क |  30 Jun 2025  |  3
टैरिफ की तकरार
कल्ट करंट डेस्क |  30 Jun 2025  |  2
सुरक्षा नहीं, सौदा: ट्रंप की नाटो नीति
कल्ट करंट डेस्क |  30 Jun 2025  |  2
ट्रम्प का अहंकार,धरती का संताप
कल्ट करंट डेस्क |  30 Jun 2025  |  2
USAID में कटौती वैश्विक तबाही
कल्ट करंट डेस्क |  30 Jun 2025  |  4
अफ्रीका: सैन्य शासन का नया युग
श्रेया गुप्ता |  30 Jun 2025  |  2
To contribute an article to CULT CURRENT or enquire about us, please write to cultcurrent@gmail.com . If you want to comment on an article, please post your comment on the relevant story page.
All content © Cult Current, unless otherwise noted or attributed. CULT CURRENT is published by the URJAS MEDIA VENTURE, this is registered under UDHYOG AADHAR-UDYAM-WB-14-0119166 (Govt. of India)