"अगर वे पाकिस्तान के अंदर हैं, तो हम भी पाकिस्तान के अंदर तक जाएंगे।"
भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर के ये शब्द केवल एक आक्रामक प्रतिक्रिया नहीं थे। ये एक रणनीतिक संकेत थे — निडर, स्पष्ट, और केवल पाकिस्तान ही नहीं, बल्कि पश्चिमी शक्तियों को भी सीधा संबोधित करते हुए।
यूरोप के राजनयिक दौरे पर निकले जयशंकर ने कई ऐसे सख्त और स्पष्ट बयान दिए, जो अब वैश्विक मीडिया की सुर्खियों में हैं। एक प्रभावशाली साक्षात्कार में उन्होंने भारत की आतंकवाद पर नीति, पश्चिम के दोहरे मापदंडों और भारत–अमेरिका संबंधों में आ रहे बदलाव — विशेषकर ऑपरेशन सिंदूर के बाद — को बड़ी बेबाकी से सामने रखा।
आइए इसे विस्तार से समझते हैं।
पृष्ठभूमि को दोहराएं तो: 7 मई को भारत ने पाकिस्तान-प्रशासित क्षेत्र में एक सटीक और सीमित सैन्य कार्रवाई को अंजाम दिया। यह ऑपरेशन — जिसे ऑपरेशन सिंदूर नाम दिया गया — अप्रैल में पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले के प्रतिशोध में किया गया था। इसका संदेश बिल्कुल साफ था: भारत अब सीमा पार से होने वाले आतंकवाद को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेगा।
लेकिन इसके तुरंत बाद जो हुआ, वह भी कम अहम नहीं था। अमेरिका की ओर से “संयम बरतने” की पारंपरिक अपील आई और वाशिंगटन की कूटनीतिक भाषा में एक ठंडक सी महसूस की गई। यह साफ हो गया कि भारत की यह आक्रामक आत्मरक्षा नीति कुछ पश्चिमी हलकों को असहज कर रही है।
भारत ने इसके जवाब में बिना किसी झिझक के अपना रुख स्पष्ट कर दिया: नागरिकों की सुरक्षा के लिए हमें किसी की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं।
यूरोप में जयशंकर ने बिना लागलपेट के कहा: "अगर वे पाकिस्तान के भीतर हैं, तो हम भी पाकिस्तान के भीतर जाएंगे।" इसके तुरंत बाद उन्होंने विश्व समुदाय से एक तीखा सवाल पूछा: "ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में सुरक्षा क्यों महसूस होती थी?"
यह केवल एक बयान नहीं था, बल्कि एक स्मरण था — उस अंधे कोने की ओर, जो पश्चिम ने पाकिस्तान की आतंकवाद को शरण देने वाली भूमिका को लेकर सालों से नजरअंदाज किया है। भारत वर्षों से इन तथ्यों को उठाता रहा है, लेकिन पश्चिम ने अक्सर भू-राजनीतिक सुविधा के नाम पर इसे टाल दिया।
जयशंकर ने इसके आगे एक सधी हुई चेतावनी दी: “आक्रांता और पीड़ित को एक ही नैतिक धरातल पर रखना तटस्थता नहीं है — यह पक्षपात है।”
वास्तव में, एक तेजी से बहुध्रुवीय होती दुनिया में भारत अब केवल एक क्षेत्रीय शक्ति नहीं, बल्कि एक नीतिपरक वैश्विक शक्ति के रूप में उभर रहा है — जो अब पुराने, अप्रासंगिक ढाँचों को स्वीकार नहीं करता।
यूरोपीय नेताओं के साथ बैठकों में जयशंकर ने रणनीतिक सोच को फिर से गढ़ने की बात कही। उन्होंने स्पष्ट कहा कि अब न तो दुनिया एकध्रुवीय रही है, न ही द्विध्रुवीय — यह बहुध्रुवीय युग है, और भारत अब एक सशक्त ध्रुव बन चुका है।
उन्होंने रूस-यूक्रेन युद्ध पर भारत के संतुलित दृष्टिकोण का हवाला देते हुए कहा कि यह कोई भ्रम नहीं, बल्कि एक सैद्धांतिक स्थिति है — हम युद्ध को समाधान नहीं मानते, संवाद को मानते हैं।
व्यापार भी उनकी प्राथमिकताओं में था। उन्होंने भारत–यूरोपीय संघ के बीच अटके हुए मुक्त व्यापार समझौते को आगे बढ़ाने की अपील की और CBAM जैसे यूरोप के नए कार्बन टैक्स पर चिंता जताई, जो विकासशील देशों को नुकसान पहुंचा सकता है। उनका स्पष्ट संदेश था: "हम साझेदारी चाहते हैं, लेकिन समान स्तर पर।"
अब बात अमेरिका की।
आगामी चुनावों के मद्देनज़र यह अटकलें लग रही हैं कि भारत बाइडन के साथ सहज है या ट्रंप के। इस पर जयशंकर ने शांत लेकिन स्पष्ट प्रतिक्रिया दी: "हमारी कूटनीति व्यक्तियों से नहीं, राष्ट्रीय हितों से संचालित होती है।"
यह परिपक्व कूटनीति का संकेत है। भारत–अमेरिका व्यापार वार्ताएँ जारी हैं और 9 जुलाई की टैरिफ समयसीमा से पहले समाधान की उम्मीद भी है। लेकिन अब पहले जैसा जोश नहीं है। भारत अब मोहग्रस्त नहीं है — वह सहयोग करेगा, लेकिन आत्मसमर्पण नहीं।
ऑपरेशन सिंदूर और जयशंकर की बेलौस कूटनीति के बाद, एक नया भारत उभर कर सामने आ रहा है: आत्मविश्वासी, संप्रभु, और रणनीतिक रूप से मुखर।
वाशिंगटन, ब्रसेल्स और इस्लामाबाद — सबके लिए अब संदेश बिल्कुल स्पष्ट है: भारत अपनी सुरक्षा किसी और के भरोसे नहीं छोड़ेगा। और जो वर्षों तक आंखें मूंदे रहे, उनसे अब नैतिकता का उपदेश नहीं लेगा।
दुनिया देख रही है। भारत की विदेश नीति अब एक नई दिशा में जा रही है — टकराव की नहीं, गरिमा की दिशा में।
दिव्या पांचाल कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
निजी हैं और कल्ट करंट का इससे सहमत होना अनिवार्य नहीं है।