पाकिस्तान में आंतरिक दमन और लोकतंत्र पर उसका असर

संदीप कुमार

 |  16 Jun 2025 |   15
Culttoday

पाकिस्तान इस समय एक कठिन राजनीतिक दौर से गुजर रहा है। हाल के वर्षों में वहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मीडिया, विरोध प्रदर्शनों और विपक्षी पार्टियों पर पाबंदियाँ तेज़ी से बढ़ी हैं। देश के भीतर और बाहर, अब यह सवाल जोर पकड़ रहा है — क्या पाकिस्तान में लोकतंत्र खतरे में है?

पाकिस्तान में लोगों की राय

पाकिस्तान के भीतर लोगों की राय बंटी हुई है। कई युवा, छात्र, पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता चिंतित हैं। उनका मानना है कि देश धीरे-धीरे लोकतांत्रिक मूल्यों — जैसे कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निष्पक्ष चुनाव — से दूर होता जा रहा है। यह चिंता उस समय और बढ़ गई जब पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान को सत्ता से हटाया गया, जिनका आज भी एक बड़ा समर्थक वर्ग है। उनके समर्थकों का आरोप है कि सरकार और सेना मिलकर उन्हें सत्ता से बाहर रखने की कोशिश कर रहे हैं।

विरोध प्रदर्शनों को पुलिस दमन, गिरफ्तारी और इंटरनेट बंदी जैसे उपायों से दबाया जा रहा है। सोशल मीडिया की निगरानी की जा रही है, और जो लोग सरकार या सेना की आलोचना करते हैं, उन्हें गंभीर परिणाम भुगतने पड़ते हैं। कुछ टीवी चैनलों को प्रसारण से रोका गया है और कई पत्रकारों पर हमले हुए हैं या उन्हें चुप करा दिया गया है। कानूनों का उपयोग वेबसाइटें ब्लॉक करने और असहमति जताने वालों को दंडित करने के लिए किया जा रहा है।

हालांकि, हर कोई इसे गलत नहीं मानता। कुछ लोगों का मानना है कि "राष्ट्रविरोधी" ताकतों को रोकने और अव्यवस्था से बचने के लिए कड़े कदम जरूरी हैं। ये लोग अक्सर देश में सेना की मजबूत भूमिका का समर्थन करते हैं।

दुनिया की प्रतिक्रिया

दुनिया भर में मानवाधिकार संगठनों ने चेतावनी दी है। एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वॉच जैसे संगठनों ने पाकिस्तान में बढ़ते दमन पर रिपोर्टें प्रकाशित की हैं। ये संगठन पाकिस्तान सरकार से मानवाधिकारों का सम्मान करने और लोगों को स्वतंत्र रूप से बोलने देने की अपील कर रहे हैं।

हालांकि, अधिकांश विदेशी सरकारें चुप्पी साधे हुए हैं। अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य देश केवल औपचारिक और हल्के बयान जारी कर रहे हैं। भले ही वे लोकतंत्र का समर्थन करने का दावा करते हों, लेकिन उनका पाकिस्तान के साथ संबंध मुख्य रूप से सुरक्षा और व्यापार पर आधारित है। उदाहरण के लिए, अमेरिका पाकिस्तान को अफगानिस्तान में स्थिरता और आतंकवाद विरोधी प्रयासों के लिए अहम मानता है।

चीन, जो पाकिस्तान का सबसे करीबी सहयोगी है, मानवाधिकार मुद्दों पर कभी टिप्पणी नहीं करता। वह केवल चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) जैसे परियोजनाओं पर ध्यान केंद्रित करता है, जो दोनों देशों को लाभ पहुँचाती हैं। रूस भी इसी तरह चुप है।

भारत का रुख

भारत, जो पाकिस्तान का पड़ोसी और पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी है, इस विषय पर ज़्यादातर शांत ही रहा है। भारतीय अधिकारी कभी-कभार पाकिस्तान में मानवाधिकार हनन की आलोचना करते हैं, लेकिन बहुत तीव्रता से नहीं। कुछ भारतीय मीडिया संस्थान इस मुद्दे पर रिपोर्टिंग करते हैं ताकि पाकिस्तान की समस्याओं को उजागर किया जा सके, लेकिन भारत खुद भी कई लोकतांत्रिक चुनौतियों का सामना कर रहा है और आलोचना का जोखिम नहीं लेना चाहता।

पाकिस्तान के लोकतंत्र का क्या अर्थ है?

लोकतंत्र केवल चुनाव कराने का नाम नहीं है। यह लोगों को खुलकर बोलने, सत्ता से सवाल करने और बिना डर के अपने निर्णय लेने के अधिकार से भी जुड़ा है। पाकिस्तान के मामले में, हालांकि चुनाव होते हैं, परंतु असली सत्ता अक्सर सेना के हाथ में होती है। इससे नागरिक शासन कमजोर होता है।

न्यायपालिका पर भी कभी-कभी दबाव में काम करने के आरोप लगते हैं। पत्रकार और मीडिया संस्थान पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं हैं। कई लोगों को डर है कि देश "हाइब्रिड लोकतंत्र"  की ओर बढ़ रहा है — जहां बाहर से लोकतंत्र की तरह सब कुछ दिखता है, लेकिन अंदर से सब कुछ सख्ती से नियंत्रित होता है।

यह स्थिति लंबे समय में खतरनाक हो सकती है। जब लोग लोकतंत्र से भरोसा खो देते हैं, तो इससे असंतोष, विरोध और कभी-कभी हिंसा भी भड़क सकती है। इससे चरमपंथी ताकतों के उभरने का रास्ता भी खुल जाता है।

अंतिम विचार

पाकिस्तान में चल रहा आंतरिक दमन यह दर्शाता है कि वहाँ का लोकतंत्र संकट में है। कुछ लोग इसे "व्यवस्था बनाए रखने" के लिए जरूरी मानते हैं, लेकिन कई अन्य इसे लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए एक गंभीर झटका मानते हैं। वैश्विक शक्तियाँ हस्तक्षेप करने से हिचक रही हैं, और पड़ोसी देश भारत केवल देख रहा है।

फिलहाल, यह पाकिस्तान के लोगों — पत्रकारों, वकीलों, छात्रों और आम नागरिकों — पर निर्भर है कि वे लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खड़े हों। यदि वे ऐसा नहीं करते, तो देश उन स्वतंत्रताओं से और दूर जा सकता है, जिनके लिए उसकी जनता ने वर्षों से संघर्ष किया है।

वंदिता खेलुथ कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
निजी हैं और कल्ट करंट का इससे सहमत होना अनिवार्य नहीं है।

 


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