फ्रांस के जंगलों में लगी भीषण आग केवल एक स्थानीय आपदा नहीं है, बल्कि भारत और दुनिया के लिए एक तीव्र चेतावनी है कि जलवायु परिवर्तन अब भविष्य का संकट नहीं, वर्तमान की सच्चाई बन चुका है। जुलाई 2025 में फ्रांस के दक्षिणी हिस्सों में फैली इस आग ने 30,000 हेक्टेयर से अधिक वनभूमि को निगल लिया, हज़ारों को विस्थापित किया और अरबों यूरो की संपत्ति नष्ट कर दी। भारत जैसे विकासशील देशों को यह दृश्य एक आईना दिखाता है—क्या हम इसके लिए तैयार हैं?
यूरोप में बढ़ती जंगल की आगें रिकॉर्ड तोड़ गर्मी, लंबे सूखे और अनियमित वर्षा का नतीजा हैं। भारत भी इससे अछूता नहीं—उत्तराखंड से मणिपुर तक हर साल जंगलों की आग की घटनाएं बढ़ रही हैं। अकेले 2023-24 में देश में 55,000 से अधिक फॉरेस्ट फायर दर्ज हुए—जो पिछले पांच वर्षों की तुलना में 25% अधिक हैं। पर भारत की आपदा प्रतिक्रिया प्रणाली अब भी संसाधनों की कमी और प्रशासनिक जटिलताओं से जूझ रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में फैले जंगलों में चेतावनी तंत्र और स्थानीय जागरूकता का अभाव आग को और खतरनाक बना देता है।
फ्रांस जैसे विकसित देश जहां अत्याधुनिक तकनीक और प्रशिक्षित बल के बावजूद आग पर काबू पाने में संघर्ष कर रहे हैं, वहीं भारत को अपनी तैयारी और बुनियादी ढांचे को तत्काल मज़बूत करना होगा। इस चुनौती में ही एक अवसर भी छिपा है — जलवायु कूटनीति का। भारत अब फ्रांस की इस त्रासदी को एक केस स्टडी बनाकर विकसित देशों से जलवायु फंडिंग और तकनीकी सहयोग की माँग को और मजबूती से रख सकता है।
COP31 जैसे मंचों पर भारत यह तर्क पहले ही दे चुका है कि जलवायु संकट का भार केवल विकासशील देशों पर नहीं डाला जा सकता। जब अब यूरोप भी इसकी चपेट में है, तब भारत की यह दलील और अधिक वज़नदार हो जाती है। फ्रांस की आग इस बात का उदाहरण बन सकती है कि संकट साझा है और समाधान भी साझेदारी में ही संभव है।
लेकिन सिर्फ कूटनीति काफी नहीं। ज़मीनी स्तर पर भी सुधार की आवश्यकता है। राज्यों को अपनी वनसेवा को आधुनिक तकनीक से लैस करना होगा। गांवों में “जंगल मित्र” समितियाँ बनानी होंगी। डेटा और चेतावनी प्रणाली को पंचायत स्तर तक आसान भाषा में पहुँचाना होगा। और सबसे महत्वपूर्ण—स्कूलों, मीडिया और आमजन के बीच जागरूकता फैलानी होगी कि जंगलों की आग केवल प्राकृतिक नहीं, मानवीय चूक का भी परिणाम है।
फ्रांस की इस त्रासदी ने भारत को एक मौका दिया है—नेतृत्व का। क्या भारत केवल सहानुभूति जताकर रह जाएगा, या इस संकट को बदलाव की दिशा में बदल पाएगा? यह समय डरने का नहीं, दिशा देने का है। जलवायु नेतृत्व अब केवल अमीर देशों की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि भारत जैसे उभरते राष्ट्रों के लिए भी एक ऐतिहासिक अवसर है।
श्रेया गुप्ता कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
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