अंतरराष्ट्रीय विकास सहायता में अग्रणी भूमिका निभाने वाला जर्मनी अब अपनी प्रतिबद्धता से पीछे हटता नजर आ रहा है। प्रस्तावित 2025 बजट में लगभग €1.8 अरब की कटौती—आर्थिक सहयोग और विकास मंत्रालय (BMZ) तथा विदेश मंत्रालय दोनों में—इस बदलाव की गवाही देती है। यह ऐसे समय हो रहा है जब दुनिया भर में संघर्ष, खाद्य संकट, जलवायु आपदाएं और शरणार्थी समस्याएं लगातार गंभीर होती जा रही हैं। ऐसे में जर्मनी का पीछे हटना कई देशों, संगठनों और विशेषज्ञों के लिए चिंता का विषय बन गया है।
2022 में जर्मनी ने OECD देशों में सबसे अधिक सहायता राशि—करीब €33.3 अरब (0.83% सकल राष्ट्रीय आय का हिस्सा)—दिखाई थी। लेकिन इस राशि का बड़ा भाग यूक्रेन से आए शरणार्थियों पर घरेलू खर्च था। जब इन घरेलू खर्चों को हटाकर देखें, तो विदेशों में वास्तविक विकास सहायता पहले ही गिरने लगी थी। 2023 में BMZ के बजट में लगभग €2 अरब की कटौती की गई थी।
2023 और 2024 के बजट से यह स्पष्ट हो गया कि जर्मनी की वैश्विक सहायता में रुचि कम हो रही है। जहां BMZ के लिए 2024 में बजट लगभग €11.2 अरब रहा, वहीं विदेश मंत्रालय की मानवीय सहायता में €1 अरब की कटौती कर दी गई। इससे जर्मनी पहली बार उस 0.7% GNI लक्ष्य से नीचे चला गया, जिसे वह अंतरराष्ट्रीय मंचों पर वर्षों से बढ़ावा देता रहा है।
अब 2025 के प्रस्तावित बजट में यह गिरावट और गहराती दिख रही है। BMZ को €937 मिलियन और विदेश मंत्रालय को €836 मिलियन की कटौती का सामना करना पड़ेगा। इनमें से एक प्रमुख नुकसान वैश्विक कृषि और खाद्य प्रणाली को रूपांतरित करने की पहल को होगा, जिसकी फंडिंग 18% कम कर दी जाएगी—€420 मिलियन से घटाकर €345 मिलियन कर दी गई है।
संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 2025 में 30 करोड़ से अधिक लोगों को मानवीय सहायता की जरूरत होगी, लेकिन मौजूदा वैश्विक फंडिंग केवल 60% ज़रूरत ही पूरी कर पाएगी। अमेरिका के बाद जर्मनी दूसरा सबसे बड़ा दाता देश है, इसलिए उसकी वापसी से संघर्षग्रस्त और आपदा-प्रभावित देशों में गंभीर फंडिंग संकट उत्पन्न हो सकता है।
जर्मनी के भीतर भी इस बजट प्रस्ताव का तीखा विरोध हो रहा है। नागरिक समाज और विकास संगठनों ने, विशेषकर VENRO के नेतृत्व में, इन कटौतियों को न केवल जर्मनी की नैतिक जिम्मेदारी के खिलाफ बताया, बल्कि उसकी अंतरराष्ट्रीय साख के लिए भी हानिकारक कहा है। रोजा लक्ज़मबर्ग फाउंडेशन ने इसे बहुपक्षीय सहयोग और एकजुटता से विश्वासघात करार दिया।
जर्मनी का यह कदम उन विकसित देशों के रुख से मेल खाता है जो घरेलू दबावों के कारण विदेशी सहायता में कटौती कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, ब्रिटेन ने अपनी सहायता राशि को 0.7% से घटाकर 0.5% कर दिया, और अमेरिका में ट्रंप प्रशासन ने भी बार-बार विदेशी सहायता में कटौती की कोशिशें कीं।
विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह की कटौतियां केवल प्रगति को रोकती नहीं, बल्कि गरीबी उन्मूलन, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में दशकों की मेहनत को उल्टा भी सकती हैं। शोध बताते हैं कि सहायता में गिरावट से बाल मृत्यु दर, कुपोषण और लैंगिक असमानता जैसे संकट बढ़ते हैं। संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को हासिल करना और भी मुश्किल हो जाएगा।
हालांकि कुछ विश्लेषकों का मानना है कि नुक़सान को कुछ हद तक कम किया जा सकता है—जैसे मौजूदा संसाधनों का अधिक कुशल उपयोग, पारदर्शिता बढ़ाना, और निजी क्षेत्र के साथ साझेदारी को बढ़ावा देना।
ऐसे समय में जब दुनिया को और अधिक समर्थन की ज़रूरत है, जर्मनी की सहायता से दूरी चिंता का कारण है—यह केवल बजट नहीं, बल्कि वैश्विक ज़िम्मेदारी, नैतिक नेतृत्व और मानवता की परीक्षा का विषय बन गया है।
धनिष्ठा डे कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
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