मैनचेस्टर के रोचडेल में दो नाबालिग लड़कियों के साथ पांच वर्षों तक हुए यौन शोषण के मामले में सात पुरुषों को हाल ही में दोषी ठहराए जाने के बाद, ब्रिटेन एक बार फिर नैतिक आत्मचिंतन के कठघरे में खड़ा है। 1980 से 2013 के बीच, रॉदरहैम (साउथ यॉर्कशायर), रोचडेल (मैनचेस्टर), और टेलफोर्ड (शॉपशायर) जैसे शहरों में 1,400 से अधिक लड़कियों को संगठित रूप से "ग्रूमिंग गैंग्स" द्वारा यौन शोषण का शिकार बनाया गया। इन मामलों में एक पैटर्न बार-बार उभर कर सामने आया — कई हाई-प्रोफाइल मामलों में आरोपी मुख्यतः पाकिस्तानी मूल के पुरुष थे, जबकि पीड़ित ज़्यादातर श्वेत, निम्नवर्गीय लड़कियाँ थीं। इन खुलासों ने न केवल संस्थागत विफलताओं को उजागर किया, बल्कि नस्ल, वर्ग और सांस्कृतिक समावेशन पर राष्ट्रीय बहस को जन्म दिया।
नेशनल पुलिस चीफ्स काउंसिल (NPCC) और हाइड्रंट कार्यक्रम के हालिया आंकड़े इस समस्या की गंभीरता को दर्शाते हैं: 2023 में समूह आधारित बाल यौन शोषण (CSE) के 717 मामले दर्ज किए गए — औसतन हर दिन दो — और 2024 के पहले नौ महीनों में 572 मामले दर्ज किए गए।
NPCC के 2023 के सर्वेक्षण के अनुसार, कुल 1,15,489 बाल यौन शोषण और उत्पीड़न (CSAE) अपराधों में से 4,228 मामले समूह आधारित थे, यानी केवल 3.7%। इन समूह-आधारित मामलों में — जिनमें दो या अधिक अपराधी शामिल होते हैं — 83% संदिग्ध श्वेत थे, जबकि केवल 2% पाकिस्तानी मूल के। जब केवल "सड़क पर ग्रूमिंग" जैसे मामलों को अलग करके देखा गया, तो पाकिस्तानी संदिग्धों का प्रतिशत 2023 में लगभग 6.9% और 2024 की शुरुआत में 13.7% तक पहुँच गया। यह आँकड़ा यद्यपि अनुपातिक रूप से अधिक है, फिर भी संख्यात्मक रूप से यह एक अल्पसंख्यक ही है।
इसके बावजूद, सार्वजनिक धारणा काफी हद तक तथ्यों से कटी हुई है। हाल ही में किए गए एक YouGov सर्वेक्षण के अनुसार, 80% से अधिक ब्रिटिश नागरिक मानते हैं कि "राजनीतिक शुद्धता" (Political Correctness) ने पुलिस को इन मामलों में सख्त कार्रवाई करने से रोका। इस मानसिकता और कानूनी वास्तविकता के बीच की खाई ने ब्रिटिश पाकिस्तानी समुदायों — विशेषकर लंदन में रहने वाले समुदायों — को असहज स्थिति में डाल दिया है। वे अक्सर उन अपराधों के लिए माफी माँगने को मजबूर हो जाते हैं जो उन्होंने नहीं किए, या फिर चुप रहने पर उनके मौन को अपराध का समर्थन मान लिया जाता है। असिस्टेंट चीफ कॉन्स्टेबल बेकी रिग्स का कहना है कि जब इन मामलों को केवल नस्लीय मुद्दा बताया जाता है, तो यह सामाजिक और संस्थागत जटिलताओं को तुच्छ बना देता है।
पत्रकारिता भी इस समय एक नाजुक मोड़ पर है। मीडिया संस्थानों को चाहिए कि वे खबरों में अपराधियों की जातीय पहचान को प्रमुखता न दें, न ही सामूहिक दोषारोपण के लिए शब्दों जैसे "एशियाई गैंग्स" का प्रयोग करें। बिना सांख्यिकीय सन्दर्भ दिए ऐसी सुर्खियाँ बनाना जनता का भरोसा तोड़ता है और सामाजिक विभाजन को भड़काता है। बच्चों की सुरक्षा से जुड़ी संस्थाएँ, जैसे NSPCC (नेशनल सोसाइटी फॉर द प्रिवेंशन ऑफ क्रुएल्टी टू चिल्ड्रन), चेतावनी देती हैं कि अगर ध्यान जातीयता पर केंद्रित रहेगा, तो इससे अन्य समुदायों के पीड़ितों की पहचान और उनकी सहायता में बाधा आ सकती है।
संस्थागत प्रतिक्रिया अब बदल रही है। अप्रैल 2023 में शुरू हुए "ग्रूमिंग गैंग्स टास्कफोर्स" ने अब तक 550 से अधिक गिरफ्तारियाँ की हैं और लगभग 4,000 पीड़ितों की पहचान की है। "क्राइम एंड पुलिसिंग बिल" के तहत अब यौन शोषण की जानकारी देना कानूनी रूप से अनिवार्य बना दिया गया है, और जानबूझकर छिपाने पर दंड का प्रावधान भी है। प्रधानमंत्री कीर स्टारमर ने एक राष्ट्रीय स्तर की वैधानिक जांच की घोषणा की है, जिसे सम्मन जारी करने की शक्ति भी प्राप्त है। बैरोनेस लुईस केसी के नेतृत्व में यह जांच 800 से अधिक मामलों की दोबारा समीक्षा करेगी, जिसमें संस्थागत लापरवाही के साथ-साथ सांस्कृतिक या प्रवासन से जुड़े कारणों की भी पड़ताल की जाएगी। आशा है कि यह प्रक्रिया पीड़ितों को न्याय दिलाने के साथ-साथ भविष्य में ऐसे अपराधों की रोकथाम के लिए मार्गदर्शन देगी — बिना किसी समुदाय को बलि का बकरा बनाए।
यहीं से मूल प्रश्न उठता है: आधुनिक बहुसांस्कृतिक ब्रिटेन का प्रतीक लंदन अपने आदर्शों और नैतिक दायित्वों के बीच संतुलन कैसे बनाए रखे? वह कैसे अपराधियों को कानूनी सबूतों के आधार पर दंडित करे, बिना किसी पूरे समुदाय को दोषी ठहराए? और सबसे महत्वपूर्ण — वह कमजोरों की सुरक्षा कैसे करे, बिना समाज में घृणा और विभाजन को बढ़ावा दिए?
धनिष्ठा डे कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
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