लॉस एंजेलेस में जून 2025 में छिड़े बवाल, विशेष रूप से ICE (इमिग्रेशन एंड कस्टम्स एन्फोर्समेंट) की आक्रामक छापेमारी और उसके बाद हुए जनविरोध, ने अमेरिकी लोकतंत्र की जड़ों में छुपी गहरी दरारें उजागर कर दी हैं। भारतीय दृष्टिकोण से यह संकट न सिर्फ अमेरिका के मानवीय अधिकारों के वैश्विक प्रचार और उसके घरेलू व्यवहार के बीच की विसंगतियों को उजागर करता है, बल्कि यह संविधानिक संतुलन, नागरिक स्वतंत्रता और लोकतंत्र के भविष्य को लेकर भी गंभीर सवाल खड़े करता है।
6 जून 2025 को लॉस एंजेलेस के परमाउंट और डाउनटाउन जैसे क्षेत्रों में ICE द्वारा की गई छापेमारी में 118 से अधिक अवैध प्रवासियों को हिरासत में लिया गया। इन कार्रवाइयों में नकाबपोश एजेंटों और अर्धसैनिक बलों का उपयोग किया गया, जो आम जनता के बीच भय और आक्रोश का कारण बना। इसके विरोध में शहर भर में विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए, जिन्हें नागरिक अधिकार समूहों, कानूनी विशेषज्ञों और यहां तक कि हॉलीवुड के नामचीन चेहरों का भी समर्थन मिला।
भारतीय लोकतांत्रिक दृष्टिकोण से उठते प्रश्न:
1. कानूनी प्रक्रिया का उल्लंघन: कई हिरासतों में गिरफ्तारी वारंट नहीं दिखाए गए। यह किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में मौलिक प्रक्रिया का सीधा उल्लंघन है। अमेरिका, जो अक्सर भारत सहित अन्य देशों को मानवाधिकारों पर नसीहत देता है, खुद ऐसे व्यवहार से अपनी नैतिक श्रेष्ठता को खोता नजर आ रहा है।
2. परिवारों का विछोह और नैतिक पीड़ा: सोशल मीडिया पर वायरल हुए वीडियो—जिनमें बच्चों को रोते-बिलखते देखा गया क्योंकि उनके माता-पिता को जबरन हिरासत में लिया जा रहा था—ने एक नैतिक सवाल खड़ा कर दिया: क्या यही वह अमेरिका है जो मानवता की रक्षा की दुहाई देता है?
3. शांतिपूर्ण विरोध पर दमन: प्रदर्शनों के दौरान पुलिस द्वारा आंसू गैस, रबर की गोलियों और विस्फोटक फ्लैश-बैंग्स का प्रयोग किया गया। यह दमनकारी रणनीतियाँ अक्सर तानाशाही शासनों में देखी जाती हैं—और अमेरिका, जो दुनिया भर में लोकतांत्रिक मूल्यों का वाहक होने का दावा करता है, उन्हीं तरीकों को अपनाकर विरोधाभासी स्थिति में आ गया है।
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा टाइट 10 का हवाला देते हुए 4,000 नेशनल गार्ड और 700 मरीन सैनिकों को बिना कैलिफोर्निया के गवर्नर गैविन न्यूसम की अनुमति के लॉस एंजेलेस भेज देना एक संवैधानिक टकराव की शुरुआत थी। भारत के लिए यह घटना 1975 के आपातकाल की याद दिलाती है—जब संविधान का सहारा लेकर सत्ता के केंद्रीकरण की कोशिश की गई थी।
जब शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को “दंगे” कहकर प्रचारित किया जाए, तो यह लोकतांत्रिक असहमति को अपराध साबित करने का खतरनाक प्रयास होता है। इससे न केवल लोकतंत्र कमजोर होता है, बल्कि दमनकारी शासन प्रणाली को एक 'नया सामान्य' बना देने का खतरा भी उत्पन्न हो जाता है।
इस घटनाक्रम का असर पूरे अमेरिका में दिखा। न्यूयॉर्क, शिकागो और अटलांटा जैसे शहरों में एकजुटता में प्रदर्शन हुए। राजनीतिक ध्रुवीकरण और भी तीव्र हो गया—जहां दक्षिणपंथ इसे "कानून व्यवस्था का उल्लंघन" कहता है, वहीं वामपंथ इसे "संघीय सत्ता का अतिक्रमण" मानता है। भारत जैसे देश के लिए यह प्रश्न उठता है: क्या अमेरिका अपने घर में लोकतांत्रिक एकता स्थापित किए बिना दुनिया की लोकतांत्रिक अगुवाई कर सकता है?
1992 में रॉडनी किंग दंगे और 1965 के वॉट्स विद्रोह की यादें ताजा हो जाती हैं, लेकिन 2025 की यह अशांति विशिष्ट है—यह न तो स्वतःस्फूर्त है और न ही केवल नस्लीय मुद्दों पर केंद्रित। यह राज्य की योजना-बद्ध कार्रवाई और अप्रवासी समुदायों को लक्षित करने का परिणाम है, जिसमें संघीय सैन्य कार्रवाई ने गंभीरता को और बढ़ा दिया है।
भारत, जो स्वयं संघीय और लोकतांत्रिक जटिलताओं से जूझता रहा है, इस घटना से सबक भी ले सकता है और यह अवसर भी है कि अमेरिका को वैश्विक मंचों पर उसकी कथनी और करनी के बीच की दूरी के लिए जवाबदेह ठहराया जाए।
लॉस एंजेलेस का यह आंदोलन केवल अप्रवासन नीति का मुद्दा नहीं है—यह अमेरिकी गणराज्य की आत्मा और उसकी लोकतांत्रिक साख का प्रश्न है। भारत और पूरी दुनिया इसे केवल चिंता की दृष्टि से नहीं, बल्कि साझा लोकतांत्रिक हित की दृष्टि से देख रही है।
आकांक्षा शर्मा कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
निजी हैं और कल्ट करंट का इससे सहमत होना अनिवार्य नहीं है।