डोनाल्ड ट्रम्प: बिस्मार्क बनेंगे या नेपोलियन?

जलज वर्मा

 |  01 May 2025 |   68
Culttoday

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में 'ग्रेट पावर कंपटिशन' की अवधारणा ने एक दिलचस्प मोड़ ले लिया है। एक समय ऐसा था जब इस अवधारणा को पुरानी और अप्रासंगिक मानकर त्याग दिया गया था, लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प के अमेरिका के पहली बार राष्ट्रपति बनने के साथ ही इसने नाटकीय रूप से पुनर्जीवन दिया। 2017 में जारी ट्रम्प की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति ने इसे प्रमुखता से स्थान दिया, जो दर्शाता है कि अमेरिका अब दुनिया के अन्य देशों के साथ सहयोग करने की बजाय चीन और रूस जैसे प्रतिद्वंद्वियों का सामना करने पर ध्यान केंद्रित करेगा।
ट्रम्प प्रशासन का मानना था कि चीन और रूस दोनों ही अमेरिकी भू-राजनीतिक लाभ को चुनौती दे रहे हैं और अपने अनुकूल एक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए, अमेरिका की प्राथमिकता यह सुनिश्चित करना था कि वह इन देशों से आगे रहे। बाद में, ट्रम्प के उत्तराधिकारी, जो बाइडेन ने भी इस रणनीति को जारी रखा, यद्यपि उन्होंने अमेरिकी मूल्यों और लोकतंत्र को बढ़ावा देने पर अधिक बल दिया।
ऐसे में जब डोनाल्ड ट्रम्प साल 2025 में एक बार फिर सत्ता में वापस आते हैं तो विश्लेषकों के मन में यह सवाल उठता है कि क्या वह विदेश नीति में कोई बड़ा बदलाव करेंगे? क्या वह 'ग्रेट पावर कंपटिशन' की अपनी पूर्ववर्ती रणनीति को जारी रखेंगे? क्या वह सहयोग और समझौते के रास्ते पर चलेंगे? या फिर वह कुछ ऐसा करेंगे जो अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को पूरी तरह से बदल देगा?
विश्लेषकों को उम्मीद थी कि 2025 में ट्रम्प के सत्ता में लौटने के बाद उनकी विदेश नीति की रणनीति में निरंतरता बनी रहेगी। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ। आश्चर्यजनक रूप से, ट्रम्प ने उस आम सहमति को तोड़ दिया जिसे उन्होंने स्वयं स्थापित किया था। अब, वह चीन और रूस के साथ प्रतिस्पर्धा करने के बजाय सहयोग करना चाहते हैं और उन समझौतों पर विचार करने के इच्छुक हैं जो पहले अमेरिकी हितों के खिलाफ माने जाते थे। ट्रम्प ने यूक्रेन में युद्ध को जल्द से जल्द खत्म करने की इच्छा व्यक्त की है, भले ही इसके लिए यूक्रेन को सार्वजनिक रूप से अपमानित करने और रूस को अपने क्षेत्रों पर कब्जा करने की अनुमति देनी पड़े।
हालांकि, चीन के साथ संबंध अभी भी तनावपूर्ण बने हुए हैं, खासकर टैरिफ को लेकर। फिर भी, ट्रम्प ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ एक व्यापक समझौता करने की इच्छा जताई है। इस बीच, उन्होंने अपने यूरोपीय सहयोगियों और कनाडा पर आर्थिक दबाव बढ़ा दिया है और ग्रीनलैंड और पनामा नहर जैसे क्षेत्रों पर कब्जा करने की धमकी दे रहे हैं। यह भी एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि अमेरिका जो की अपने सहयोगी देशों के साथ हमेशा खड़ा रहता था, आज अपने सहयोगियों को ही आर्थिक रूप से नुकसान पहुंचाने पर तुला है।
कुछ पर्यवेक्षकों ने ट्रम्प की इन हरकतों को 'ग्रेट पावर कंपटिशन' के दायरे में लाने का प्रयास किया है।  उनका तर्क है कि रूस के करीब जाना एक कुशल भू-राजनीतिक चाल है, जिसका उद्देश्य चीन और रूस के बीच दरार पैदा करना है। अन्य लोगों का मानना है कि ट्रम्प केवल एक अधिक राष्ट्रवादी किस्म की 'ग्रेट पावर कंपटिशन' को आगे बढ़ा रहे हैं, जो शी, पुतिन और यहां तक कि भारत के नरेंद्र मोदी और हंगरी के विक्टर ऑर्बन जैसे नेताओं को भी समझ में आएगी। हालांकि, यह केवल एक कयास है। हकीकत तो यह है कि ट्रम्प के भविष्य के कदम क्या होंगे यह किसी को भी नहीं पता।
लेकिन सच्चाई यह है कि ट्रम्प का वैश्विक दृष्टिकोण 'ग्रेट पावर कंपटिशन' का नहीं, बल्कि ग्रेट पावर के मिलीभगत का है। वह 19वीं शताब्दी के यूरोप की 'कॉन्सर्ट ऑफ यूरोप' प्रणाली के समान एक ऐसी दुनिया चाहते हैं, जहां शक्तिशाली नेता मिलकर दुनिया पर अपनी इच्छानुसार शासन करें। इस प्रणाली में शक्तिशाली राष्ट्र एक साथ मिलकर काम करते हैं और विश्व व्यवस्था को बनाए रखते हैं। उनका मानना है कि वे सामूहिक रूप से चुनौतियों का समाधान कर सकते हैं और स्थिरता सुनिश्चित कर सकते हैं। ट्रम्प का यह मानना है कि यह उनका कर्तव्य है कि पूरी दुनिया में शांति स्थापित की जाए।
यह दृष्टिकोण, अमेरिकी विदेश नीति के एक मूलभूत बदलाव का प्रतिनिधित्व करता है। जहां एक ओर यह सहयोग और स्थिरता की संभावनाओं को खोलता है, वहीं यह कई खतरे भी पैदा करता है।
इस दृष्टिकोण में कई खतरे छिपे हैं। सबसे पहले, यह धारणा भ्रामक है कि प्रभाव क्षेत्रों को आसानी से परिभाषित और प्रबंधित किया जा सकता है। इतिहास ने दिखाया है कि शक्तिशाली राष्ट्रों के बीच हमेशा तनाव और प्रतिस्पर्धा बनी रहती है, भले ही वे सहयोग करने का दिखावा करें। हर राष्ट्र का अपना हित होता है और राष्ट्रहित से बढ़कर किसी के लिए भी कुछ नहीं होता। ऐसे में जब अलग-अलग पृष्ठभूमि और विचारधारा के शक्तिशाली राष्ट्र साथ आएंगे तो मतभेद होना स्वाभाविक है।
दूसरे, यह लेन-देन संबंधी दृष्टिकोण वैचारिक मतभेदों को कम आंकता है। ट्रम्प को शायद इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि शी जिनपिंग अपने प्रभाव क्षेत्र को कैसे प्रबंधित करते हैं, लेकिन चीन में लोकतंत्र को कुचलने से अमेरिका और अन्य देशों में विरोध हो सकता है। मानवाधिकारों का मुद्दा भी एक बड़ी चिंता है और एक जिम्मेदार वैश्विक शक्ति के रूप में, अमेरिका को दुनिया भर में मानवाधिकारों को बढ़ावा देने के लिए काम करना चाहिए।
तीसरा, यह दृष्टिकोण छोटे देशों की आवाज को दबा देता है। ट्रम्प को यूक्रेन के भविष्य पर बातचीत में शामिल होने या यूरोपीय सहयोगियों से परामर्श करने में कोई दिलचस्पी नहीं है। उनका मानना है कि शक्तिशाली नेता ही दुनिया का भविष्य तय कर सकते हैं।
चौथा, यह दृष्टिकोण अस्थिरता को जन्म दे सकता है। जब महान शक्तियां मौजूदा व्यवस्था को चुनौती देने वालों को दबाने का प्रयास करती हैं, तो वे अक्सर प्रतिरोध को भड़काती हैं और ऐसे आंदोलनों को जन्म देती हैं जो उनकी सत्ता को चुनौती दे सकती हैं। इतिहास हमें सिखाता है कि जब शक्तिशाली राष्ट्र छोटे देशों पर अपनी इच्छा थोपते हैं तो इससे अस्थिरता और संघर्ष पैदा होता है।
हालांकि, ट्रम्प का ये दृष्टिकोण सफल हो सकता है अगर दुनिया शांति और स्थिरता की ओर बढ़े तो।
ट्रम्प का मानना है कि वह चीन और रूस के साथ विचारधारा के बजाय व्यापार से संचालित होकर सम्बंध बनाए रखेंगे। पर ऐसा करना सही नहीं है। उनके नेतृत्व में ऐसा आचरण करना दुनिया की सुरक्षा की कीमत पर हो सकता है।
इसलिए अमेरिका को हर देश की बात सुननी चाहिए और उनके साथ भाईचारे का रिश्ता रखना चाहिए ताकि आगे चलकर कोई परेशानी न हो। हर देश को एक समान अधिकार मिलना चाहिए। यही एक सुरक्षित भविष्य का निर्माण कर सकता है।
यह स्पष्ट है कि ट्रम्प की विदेश नीति एक जटिल और बहुआयामी मुद्दा है। उनके दृष्टिकोण में कुछ फायदे और कुछ नुकसान हैं। यह देखना बाकी है कि वह आने वाले वर्षों में दुनिया को कैसे आकार देंगे।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य:
शक्ति संतुलन के इतिहास को देखते हुए, यह समझना महत्वपूर्ण है कि ट्रम्प का 'ग्रेट पावर की मिलीभगत' का विचार कोई नया नहीं है। 19वीं शताब्दी में, यूरोपीय शक्तियों ने 'कॉन्सर्ट ऑफ यूरोप' नामक एक प्रणाली स्थापित की, जिसका उद्देश्य महाद्वीप में शांति और स्थिरता बनाए रखना था। इस प्रणाली में, प्रमुख शक्तियां एक साथ मिलकर काम करती थीं और अपने प्रभाव क्षेत्रों को मान्यता देती थीं।
हालांकि, यह प्रणाली अंततः विफल रही, क्योंकि शक्तियों के बीच प्रतिस्पर्धा और महत्वाकांक्षाएं बढ़ गईं। यह इतिहास ट्रम्प के दृष्टिकोण के संभावित खतरों की चेतावनी देता है। इतिहास से हमें यह सीखने की जरूरत है कि अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने के लिए गलत तरीके इस्तेमाल नहीं करने चाहिए। सभी के साथ समान व्यवहार करना चाहिए।
मध्य शक्तियों की भूमिका:
यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि मध्य शक्तियों का उदय अंतरराष्ट्रीय राजनीति को जटिल बना रहा है। भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश अब वैश्विक मंच पर अधिक मुखर भूमिका निभा रहे हैं और वे किसी भी ऐसे विश्व व्यवस्था को स्वीकार करने के मूड में नहीं हैं जो उन्हें हाशिए पर डाल दे।
ट्रम्प की 'शक्तियों का मिलीभगत' की रणनीति इन देशों को अलग-थलग कर सकती है और अंतरराष्ट्रीय अस्थिरता को बढ़ा सकती है।
वैश्विक चुनौतियां:
जलवायु परिवर्तन, महामारी और आतंकवाद जैसी वैश्विक चुनौतियों के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता है। ट्रम्प की 'शक्तियों की मिलीभगत' की रणनीति इन चुनौतियों से निपटने के लिए आवश्यक सहयोग को कम कर सकती है।
डोनाल्ड ट्रम्प की विदेश नीति एक जटिल और विवादास्पद विषय है। उनकी 'ग्रेट पावर कंपटिशन' की रणनीति सहयोग और स्थिरता की संभावनाओं को खोलती है, लेकिन इसमें महत्वपूर्ण खतरे भी शामिल हैं। 
यह देखना बाकी है कि ट्रम्प आने वाले वर्षों में अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को कैसे आकार देंगे। लेकिन यह स्पष्ट है कि उनकी नीतियां वैश्विक राजनीति पर गहरा प्रभाव डालेंगी।
ट्रम्प प्रशासन को इतिहास के सबक को ध्यान में रखना चाहिए और छोटे देशों और सहयोगी देशों को एक साथ लेकर चलना चाहिए। तभी दुनिया में शांति और स्थिरता लाई जा सकती है।
ट्रम्प का यह कहना कि 'शक्तिशाली देशों को दुनिया को नियंत्रित करने का अधिकार है' एक खतरनाक विचार है। इससे अराजकता फैल सकती है तथा दुनिया और भी खतरनाक जगह बन सकती है। ऐसे में सभी को साथ लेकर चलना ही समझदारी है।
ट्रम्प को चाहिए कि वो अंतरराष्ट्रीय संबंधों को बेहतर बनाने के लिए काम करें। साथ ही यह भी सुनिश्चित करे कि सभी देशों को सुरक्षा और समृद्धि का लाभ मिले, न कि केवल कुछ शक्तिशाली देशों को ही।
अंत में, यह कहना उचित होगा कि ट्रम्प के पास एक ऐसा रास्ता चुनने का अवसर है जो दुनिया को अधिक शांतिपूर्ण और समृद्ध भविष्य की ओर ले जा सकता है। अब यह उन पर निर्भर करता है कि वह इस अवसर का उपयोग कैसे करते हैं।


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