पाकिस्तानी सेना:रक्षक या उत्पीड़क? (आवरण कथा)

संतु दास

 |  01 Apr 2025 |   95
Culttoday

23 मार्च को पाकिस्तान दिवस के मौके पर पाकिस्तानी सेना ने अपनी ताकत का प्रदर्शन किया, लेकिन इस दिखावे के पीछे छिपी है एक कड़वी सच्चाई। आज, पाकिस्तानी सेना आंतरिक रूप से विभाजित और कमजोर होती जा रही है, और इसका सबसे बड़ा कारण है अपने ही नागरिकों के प्रति उसका क्रूर रवैया और आतंकवाद से निपटने की गलत नीतियां।
हाल के दिनों में पाकिस्तानी सेना पर आतंकवादी हमलों में तेजी आई है, लेकिन इससे भी गंभीर बात यह है कि सेना ने अपने ही नागरिकों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया है, जिससे निचले स्तर के जवानों के बीच असंतोष की आग भड़क उठी है। सेना के भीतर का असंतोष तेजी से बढ़ रहा है, और विभिन्न रिपोर्टों से पता चलता है कि निचले रैंक के जवानों में गहरी नाराजगी है। कई सैनिक अब खुले तौर पर सेना प्रमुख के इस्तीफे की मांग कर रहे हैं। सेना के आंतरिक विभाजन और इस तरह की असंतोषपूर्ण स्थिति ने उसकी प्रभावशीलता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
पाकिस्तानी सेना के ‘आतंकवाद विरोधी’ अभियान पूरी तरह से विफल होते दिखाई दे रहे हैं। ये अभियान केवल दमन और अत्याचार पर आधारित हैं, जिनसे न तो आतंकवाद खत्म हो रहा है और न ही जनता का समर्थन मिल रहा है। बलूचिस्तान में मेहरंग बलोच जैसे शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार करना स्थानीय आबादी के बीच असंतोष को और बढ़ा रहा है। सेना की इस क्रूरता ने बलूचिस्तान की जनता को और अधिक उग्र कर दिया है, और वहां विरोध प्रदर्शनों की संख्या में वृद्धि हो रही है।
पाकिस्तानी सेना की सबसे बड़ी विफलताओं में से एक बलूचिस्तान के साथ उसका बर्ताव है। सेना ने बलूचिस्तान को एक उपनिवेश की तरह माना है और वहां के लोगों के साथ वैसा ही व्यवहार किया है जैसा उपनिवेशवादी ताकतें अपने उपनिवेशों के साथ करती थीं। बलूचिस्तान में 11वीं कोर और अन्य सेना बलों की बड़ी संख्या में तैनाती के बावजूद, क्षेत्र सरकार के नियंत्रण से बाहर हो चुका है।
सेना की इस विफलता का एक प्रमुख कारण यह है कि पाकिस्तानी सेना ने हमेशा आतंकवाद को एक रणनीतिक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया है, लेकिन अब यह रणनीति उसके खिलाफ जा रही है। सेना द्वारा समर्थित और प्रशिक्षित आतंकवादी समूह अब सेना के खिलाफ ही हमले कर रहे हैं। सेना ने जिस तरह से आतंकवाद से निपटने का तरीका अपनाया है – जिसमें बमबारी, गोलाबारी और अपने ही नागरिकों पर अत्याचार शामिल है – वह पूरी तरह से विफल साबित हो रहा है।
पाकिस्तानी संसद में भी बलूचिस्तान की स्थिति पर गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं। मौलाना फजलुर रहमान और पूर्व गृह मंत्री राना सनाउल्लाह जैसे वरिष्ठ नेताओं ने चेतावनी दी है कि पाकिस्तान की भौगोलिक सीमाएं जल्द ही बदल सकती हैं। यह बयान स्पष्ट रूप से बलूचिस्तान में सरकार की घटती पकड़ और वहां बढ़ते विद्रोह को दर्शाता है।
कभी अपनी पेशेवरता के लिए जानी जाने वाली पाकिस्तानी सेना आज अपने ही नागरिकों के बीच एक दमनकारी बल के रूप में देखी जा रही है। इस्लामाबाद में व्यापारियों से पैसे उगाही करने के आरोप, मानवाधिकारों के उल्लंघन और बलूचिस्तान में हिंसा जैसे मामलों ने सेना की साख को बुरी तरह से गिरा दिया है। यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया भी अब बलूचिस्तान के मुद्दे पर ध्यान देने लगा है।
पाकिस्तानी सेना आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहां उसकी ताकत और प्रभावशीलता पर गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं। सेना का आतंकवाद से निपटने का तरीका न केवल विफल हो रहा है, बल्कि इसके परिणामस्वरूप जनता के बीच और भी असंतोष पैदा हो रहा है। बलूचिस्तान में सेना की क्रूरता और वहां के लोगों के साथ उपनिवेशवादी व्यवहार ने स्थिति को और अधिक गंभीर बना दिया है। इसके साथ ही, सेना के भीतर का असंतोष और निचले रैंक के जवानों की नाराजगी ने सेना की एकता और अनुशासन पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है।
पाकिस्तानी सेना, जो कभी अपने पेशेवरता और अनुशासन के लिए जानी जाती थी, आज अपने ही नागरिकों के लिए एक दमनकारी बल बन गई है। अगर यह स्थिति जल्द ही नहीं सुधारी गई, तो पाकिस्तान को अपनी आंतरिक स्थिरता और राष्ट्रीय एकता के लिए गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
 सेना को यह समझना होगा कि आतंकवाद का समाधान दमन और अत्याचार नहीं है, बल्कि जनता का विश्वास और समर्थन जीतना है। अगर सेना अपने नागरिकों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करती है और आतंकवाद से निपटने के लिए एक न्यायसंगत और समावेशी दृष्टिकोण अपनाती है, तो वह न केवल आतंकवाद को हरा सकती है, बल्कि अपनी साख और जनता का विश्वास भी फिर से हासिल कर सकती है। अन्यथा, सेना में बढ़ता असंतोष पाकिस्तान की नींव को हिला सकता है।


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