10–11 जुलाई को होने वाला रोम सम्मेलन एक बार फिर पश्चिमी देशों की यूक्रेन के प्रति दीर्घकालिक समर्थन को दोहराने की कोशिश है। इटली द्वारा आयोजित यह बैठक अमेरिका, यूरोपीय संघ, पोलैंड, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों और संभवतः G20 देशों के प्रतिनिधियों को एक साथ लाएगी, ताकि यूक्रेन के युद्धोत्तर पुनर्निर्माण, सैन्य तैयारी और कूटनीतिक स्थिरता के लिए सहायता जुटाई जा सके। यूक्रेन के पुनर्निर्माण की अनुमानित लागत $500–600 बिलियन आंकी गई है — एक ऐसी राशि जो केवल बर्बाद हुई संरचनाओं की नहीं, बल्कि पश्चिमी शक्तियों की इस संघर्ष को लेकर रणनीतिक प्राथमिकता को भी दर्शाती है।
भारत के लिए यह मंच चाहे जितना दूर प्रतीत हो, इसका महत्व उससे कहीं ज़्यादा निकट है। भारत अब तक पूर्व और पश्चिम के बीच एक संतुलित नीति पर चलता आया है — एक ओर रूस से दशकों पुराने रक्षा और ऊर्जा संबंध, तो दूसरी ओर अमेरिका और यूरोप के साथ रणनीतिक साझेदारी। लेकिन जब रोम में ऊर्जा तंत्र के पुनर्निर्माण, स्वास्थ्य और आवास वित्त पोषण, और यूक्रेन की रणनीतिक खनिज संपदा की सुरक्षा जैसे विषयों पर चर्चा हो रही हो, तब क्या भारत सिर्फ एक दर्शक बना रह सकता है?
भारतीय कंपनियों के लिए — विशेषकर इंफ्रास्ट्रक्चर, फार्मा, आईटी और रिन्यूएबल एनर्जी क्षेत्रों में — यूक्रेन का पुनर्निर्माण एक बड़ा व्यावसायिक अवसर है। लार्सन एंड टुब्रो या इंफोसिस जैसी कंपनियां सड़कों से लेकर ई-गवर्नेंस तक की परियोजनाओं में भाग ले सकती हैं। भारतीय दवा कंपनियां, जो पहले से ही जेनेरिक दवाओं के क्षेत्र में वैश्विक नेतृत्व कर रही हैं, यूक्रेन की स्वास्थ्य सेवाओं को फिर से खड़ा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। और जब वैश्विक संस्थाएं वैकल्पिक आपूर्ति श्रृंखलाओं की तलाश में हैं, तब भारत की डिजिटल और हरित तकनीक की विशेषज्ञता उसे एक विश्वसनीय भागीदार बना सकती है। क्या यह भारत के “मेक इन इंडिया” एजेंडे को वैश्विक मंच पर आगे बढ़ाने का मौका नहीं है?
व्यापार से परे, यूक्रेन के खनिज संसाधन — विशेषकर लिथियम, टाइटेनियम और रेयर अर्थ एलिमेंट्स — भारत की ऊर्जा संक्रमण रणनीति के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। 2030 तक 500 GW रिन्यूएबल क्षमता के लक्ष्य के लिए इन खनिजों की आपूर्ति सुनिश्चित करना अब विकल्प नहीं, आवश्यकता है। पश्चिमी देश चीन पर अपनी निर्भरता कम करने की ओर बढ़ रहे हैं, और ऐसे में भारत के पास दीर्घकालिक समझौते करने का सीमित समय है। एक स्थिर यूक्रेन वैश्विक ऊर्जा बाजारों को भी स्थिर कर सकता है, जिससे तेल कीमतों में उतार-चढ़ाव कम होगा — भारत जैसे देश के लिए, जो अपनी 80% से अधिक कच्चे तेल की जरूरत आयात से पूरी करता है, यह राहतभरी स्थिति होगी।
कूटनीतिक दृष्टिकोण से, सम्मेलन में भागीदारी — चाहे औपचारिक हो या प्रतीकात्मक — भारत की वैश्विक दक्षिण की आवाज़ के रूप में पहचान को मजबूत कर सकती है। भारत कर्ज-मुक्त पुनर्निर्माण मॉडल की वकालत कर सकता है, अनुदान आधारित वित्तपोषण को बढ़ावा दे सकता है, और केवल संसाधन दोहन नहीं बल्कि समान भागीदारी की नीति पर ज़ोर दे सकता है। 2022 में यूक्रेन को भेजी गई भारत की मानवीय सहायता को वैश्विक स्तर पर सराहा गया था। रोम में एक स्पष्ट उपस्थिति यह संदेश देगी कि भारत मानवीय मूल्यों और राष्ट्रीय हित को साथ लेकर चल सकता है।
सुरक्षा के स्तर पर भी भारत को सीखने के लिए बहुत कुछ है। अमेरिका-यूक्रेन ड्रोन निर्माण सहयोग, या यूरोपीय मिसाइल डिफेंस रणनीतियां, भारत की रक्षा क्षमताओं के आधुनिकीकरण के लिए प्रासंगिक उदाहरण बन सकते हैं। वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनाव और हिंद-प्रशांत में भारत की नौसैनिक रणनीति के मद्देनज़र, क्या भारत को इन अनुभवों से सीखने का प्रयास नहीं करना चाहिए?
बेशक, संतुलन की डोर नाज़ुक है। अत्यधिक सक्रियता रूस को असहज कर सकती है, जो अब भी भारत का प्रमुख रक्षा और ऊर्जा आपूर्तिकर्ता है। वहीं, बहुत कम सहभागिता भारत को उन वैश्विक चर्चाओं से दूर कर सकती है जो युद्धोत्तर व्यवस्था को आकार देंगी। ऐसे में सवाल यह है कि क्या भारत बिना किसी पक्ष विशेष के साथ खुले तौर पर जुड़ते हुए, अपने हित सुरक्षित रख सकता है?
रोम सम्मेलन केवल यूक्रेन तक सीमित नहीं है। यह दर्शाता है कि वैश्विक गठबंधन कैसे बदल रहे हैं, संसाधनों का आवंटन कैसे होगा, और कौन इस नई व्यवस्था में अपनी जगह बनाएगा। भारत के लिए यह केवल एक और भू-राजनीतिक घटना नहीं, बल्कि वैश्विक मंच पर अपनी उपस्थिति और भूमिका को फिर से परिभाषित करने का एक मौका है — एक ऐसा अवसर, जिसमें भारत को पक्ष नहीं चुनना है, बल्कि हिस्सेदारी हासिल करनी है।
रिया गोयल कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
निजी हैं और कल्ट करंट का इससे सहमत होना अनिवार्य नहीं है।