महामारी के बहाने सरकारें बढ़ते असंतोष पर लगा रही सेंसरशिपःरिपोर्ट

जलज वर्मा

 |   15 Oct 2020 |   8
Culttoday

कोरोना वायरस महामारी की वजह से स्वाभाविक है कि दुनिया का परिदृश्य बदला है और बदल भी रहा है. इस दौरान महामारी को नियंत्रित करने में कई देशों की सरकारों ने बेहतर काम किया है तो कई विफल भी रहे हैं. ऐसे में जन आक्रोश या असंतोष को दबाने तथा उस पर सेंसरशिप लगाने में भी सरकारें पीछे नहीं हैं. महामारी के बहाने सरकारें विस्तारित निगरानी शक्तियों और नई प्रौद्योगिकियों की तैनाती को सही ठहरा रही हैं. यह दावा वॉशिंगटन स्थित मानवाधिकार निगरानी करने वाली संस्था फ्रीडम हाउस ने अपनी जारी एक रिपोर्ट में कही है. 

फ्रीडम हाउस के अध्यक्ष माइकल अब्रामोविट्ज के मुताबिक, "महामारी के ऐसे समय में डिजिटल तकनीक समाज की निर्भरता में तेजी ला रही है, तब इंटरनेट और कम आजाद हो रहा है. गोपनीयता और कानून के शासन के लिए पर्याप्त सुरक्षा उपायों के बिना इन तकनीकों को राजनीतिक दमन के लिए आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है."
फ्रीडम हाउस इंडेक्स में 65 देशों में 100 अंको के स्कोर पर लगातार दसवें साल इंटरनेट फ्रीडम में गिरावट दर्ज की गई है. यह पैमाना 21 संकेतकों पर आधारित है, जिनमें इंटरनेट इस्तेमाल की बाधाएं, सामग्री पर सीमा और उपयोगकर्ता अधिकारों का उल्लंघन शामिल है.
रिपोर्ट के मुताबिक लगातार छठे साल चीन सबसे खराब रैंकिंग पाने वाला देश है. रिपोर्ट कहती है कि चीनी अधिकारियों ने कम और उच्च तकनीक वाले उपकरण का इस्तेमाल न केवल कोरोना वायरस के प्रकोप का प्रबंधन करने के लिए किया बल्कि इंटरनेट यूजर्स को स्वतंत्र स्रोतों से जानकारी साझा करने और आधिकारियों से सवाल पूछने से भी रोका.
रिपोर्ट में कहा गया है कि ये रुझान वैश्विक स्तर पर चीनी शैली के "डिजिटल अधिनायकवाद" की ओर बढ़ते झुकाव के रूप में दिखाई दे रहे हैं क्योंकि हर सरकार अपने नियमों को लागू करती है.
फ्रीडम हाउस का कहना है कि अनुमानित 3.8 अरब लोग इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं और सिर्फ 20 फीसदी लोग ही ऐसे देश में रहते हैं जहां इंटरनेट आजाद है, 32 फीसदी ऐसे देश में रहते हैं जहां इंटरनेट "आंशिक रूप से स्वतंत्र" है. जबकि 35 फीसदी लोग ऐसे देश में रहते हैं जहां ऑनलाइन गतिविधियां आजाद नहीं है.
 


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