भेदभाव रहित घर देने का अनोखा वादा

जलज वर्मा

 |  24 Jan 2017 |   47
Culttoday

आम तौर पर देखा जाता है कि आवासीय परिसरों में लोगों के साथ भेदभाव के मामले अक्सर आते रहते हैं, इसी के मद्देनजर बंगलूरू की एक कंपनी ने ऐसे घर देने की बात कर रही है जहां भेदभाव नहीं होता.

कंपनी ने अपने विज्ञापन में कहा है यहां मिलेंगे "वे घर जहां भेदभाव नहीं होता”. इस बीच इस हाउसिंग कंपनी ने अपने इस विज्ञापन से एक नई बहस को जन्म दे दिया है. सुनने में तो ये विज्ञापन कुछ नया सा लगता है लेकिन इससे जुड़ी भावनाएं शायद वही हैं जो घर खोजते इंसान को कभी न कभी महसूस हुई होंगी. देश के लगभग हर छोटे-बड़े शहर में आज भी घर खोजने वाले को जाति, धर्म, खानपान आदि से जुड़े सवालात से गुजरना होता है. बड़े शहरों में अकेले रहने वाले लोगों को कई बार, मासांहारी और किसी खास जाति का होने के चलते घर भी नहीं दिया जाता.

विशेषज्ञों के मुताबिक मकान मालिकों द्वारा बनाए जाने वाले नियम-कानून देश की बहुसांस्कृतिक परंपरा को नुकसान पहुंचा रहे हैं क्योंकि इनमें अल्पसंख्यकों और एकल जीवन जी रहे लोगों के साथ भेदभाव किया जाता है और शहरों को तमाम बस्तियों में बांट दिया जाता है.

इस विज्ञापन को देने वाली कंपनी नेस्टअवे टेक्नोलॉजी से जुड़े ऋषि डोगरा कहते हैं कि हम साल 2017 में जी रहे हैं लेकिन अब भी हमें भेदभाव झेलना पड़ता है.

डोगरा का कहना है कि लोगों को देश के किसी भी हिस्से में घूमने की छूट होनी चाहिए. पुराने दिनों को याद करते हुए डोगरा बताते हैं कि बेंगलूरु में उन्हें भी घर खोजने में बहुत समस्या हुई थी जिसके बाद अपने चार दोस्तों के साथ मिलकर उन्होंने इस कंपनी को खड़ा किया.

देश की आर्थिक राजधानी मुंबई प्रवासी भारतीयों का सबसे पसंदीदा अड्डा रहा है, लेकिन यहां भी कैथोलिक, पारसी, बोहरा मुसलमानों आदि को इस तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता है. हालांकि यहां इन लोगों ने आवासीय सोसायटी बना ली हैं जो समुदाय के अन्य सदस्यों की घर खोजने में मदद करती हैं.

एक गैर लाभकारी संस्था भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की सहसंस्थापक जाकिया सोमान कहती हैं कि साल 1992-93 में हिंदू-मुस्लिम दंगों के बाद इन दोनों समुदायों के बीच तनाव अधिक पनपा है.

ऐसे ही साल 2015 में एक मुस्लिम महिला ने फेसबुक पर एक ग्रुप बनाया था, इंडियंस अगेंस्ट डिसक्रिमिनेशन. इस महिला को सिर्फ इसके धर्म के चलते फ्लैट खाली करने का कह दिया गया था.

सोमान कहती हैं कि जब बात रहने की आती है तो हम काफी अलग-थलग पड़ जाते हैं और अब तो पूरा शहर ही समुदायों में विभाजित हो रहा है जो हमारे सामाजिक बंधन को कमजोर करता है.

हालांकि स्थानीय अदालतों ने कई मामलों में इस तरह के भेदभाव के खिलाफ फैसला दिया है लेकिन इन पर भी कई विरोधाभासी फैसले आते रहे हैं.

साल 2005 में देश की शीर्ष अदालत ने अहमदाबाद की पारसी आवासीय सोसायटी के पक्ष में दिए फैसले में कहा था कि वह पारसियों की सदस्यता को सीमित कर सकती है साथ ही दूसरों को शामिल ना करने के लिए भी स्वतंत्र है. रियल एस्टेट मामलों के वकील विनोद संपत कहते हैं कि संविधान बराबरी के अधिकारों की बात करता है लेकिन ये आवासीय बोर्ड और इनसे जुड़ी संस्थाएं अपने दिशा-निर्देश तैयार कर सकते हैं जो भेदभाव भरे हो सकते हैं.

महाराष्ट्र की आवास नीति मसौदे के मुताबिक, आवास संबंधी किसी मसले पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए.

सरकारी अधिकारियों के मुताबिक संविधान में भेदभाव के खिलाफ सुरक्षा दी गई है इसलिए ऐसे किसी खास खंड की जरूरत नहीं है, फिर भी ये है.


RECENT NEWS

भारत: वैश्विक मेडिकल टूरिज्म का नया हब
जलज श्रीवास्तव |  01 May 2025  |  124
‘ठंड हो या दंड, लेकर रहेंगे अधिकार’
कल्ट करंट डेस्क |  27 Nov 2020  |  576
To contribute an article to CULT CURRENT or enquire about us, please write to cultcurrent@gmail.com . If you want to comment on an article, please post your comment on the relevant story page.
All content © Cult Current, unless otherwise noted or attributed. CULT CURRENT is published by the URJAS MEDIA VENTURE, this is registered under UDHYOG AADHAR-UDYAM-WB-14-0119166 (Govt. of India)