जैसे ही हम जुलाई और अगस्त में प्रवेश कर रहे हैं, विश्व अर्थव्यवस्था एक नाजुक दौर से गुजरती हुई प्रतीत हो रही है। निवेशकों के मन में डर समाया हुआ है, शेयर बाजार हर छोटी खबर पर अस्थिर हो रहा है, और देश खुद को एक मुश्किल समय के लिए तैयार कर रहे हैं। लेकिन वास्तव में, ऐसी कौन सी परिस्थितियाँ हैं जो इस बेचैनी को जन्म दे रही हैं?
आइए, इसे सरल भाषा में समझते हैं। सबसे पहले, अमेरिका की नौकरियों से जुड़ी रिपोर्ट की बात करते हैं, जो जुलाई के मध्य में आने वाली है। यदि यह रिपोर्ट दर्शाती है कि लोगों को अधिक नौकरियाँ मिल रही हैं, तो इसका अर्थ होगा कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था मजबूत है, और ऐसी स्थिति में वहाँ ब्याज दरें फिर से बढ़ाई जा सकती हैं। जब अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ती हैं, तो दुनिया भर से पूंजी निकलकर अमेरिका की ओर आकर्षित होती है। इसका प्रभाव भारत जैसे देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ता है। तात्पर्य यह है कि यदि नौकरी के आँकड़े बहुत अच्छे आते हैं, तो उसका प्रभाव वैश्विक बाजारों पर पड़ेगा और भारत भी इससे अछूता नहीं रहेगा।
अब बात करते हैं फ्रांस की। वहाँ एक महत्वपूर्ण जनमत संग्रह होने वाला है, जिसमें लोग यह निर्धारित करेंगे कि सरकार यूरोपीय संघ के सख्त बजट नियमों को दरकिनार करते हुए सामाजिक योजनाओं पर अधिक व्यय कर सकती है अथवा नहीं। यदि जनता 'हाँ' में उत्तर देती है, तो यूरोप के अन्य देश भी इसी मार्ग का अनुसरण कर सकते हैं। इससे यूरोप की आर्थिक स्थिरता पर प्रश्नचिह्न लग सकता है और निवेशकों की चिंताएँ बढ़ सकती हैं। यूरो (यूरोप की मुद्रा) में पहले से ही गिरावट के संकेत दिखाई देने लगे हैं, जिसका प्रभाव पूरे वैश्विक बाजार पर पड़ रहा है।
अब आते हैं अमेरिका और यूरोप के बीच बढ़ते व्यापारिक तनाव पर। ग्रीन सब्सिडी और डिजिटल टैक्स को लेकर दोनों देशों के बीच विवाद चल रहा है, और अब दोनों एक-दूसरे पर नए टैरिफ (आयात कर) लगाने की धमकियाँ दे रहे हैं। यदि ऐसा होता है, तो व्यापार धीमा पड़ सकता है, वस्तुओं की कीमतें बढ़ सकती हैं, और कंपनियों के लाभ में कमी आ सकती है। इस प्रकार की अनिश्चितता बाजार को बिल्कुल पसंद नहीं है।
इसी दौरान, अमेरिका और चीन के बीच व्यापारिक वार्ता भी लगातार खिंचती जा रही है। अगस्त में दोनों देशों की अगली बैठक प्रस्तावित है। यदि वार्ता सफल नहीं होती है, तो एक बार फिर व्यापार युद्ध छिड़ सकता है। इससे इलेक्ट्रॉनिक्स से लेकर खाद्य पदार्थों तक की कीमतें बढ़ सकती हैं और वैश्विक बाजारों में अस्थिरता आ सकती है।
तो इन सबका भारत पर क्या प्रभाव होगा?
यद्यपि ये घटनाएँ विदेशों में घटित हो रही हैं, किंतु उनका प्रभाव भारत में भी महसूस किया जाने लगा है। विदेशी निवेशक, जो भारतीय शेयरों में निवेश करते हैं, अब सतर्क हो गए हैं। कुछ ने पूंजी निकालकर अमेरिका जैसे सुरक्षित बाजारों में निवेश करना शुरू कर दिया है। परिणामस्वरूप, सेंसेक्स और निफ्टी में उतार-चढ़ाव बढ़ गया है, और रुपया भी डॉलर के मुकाबले कुछ कमजोर हुआ है।
व्यापार के दृष्टिकोण से देखें तो, यदि अमेरिका और चीन के बीच टकराव बढ़ता है, तो कई विदेशी कंपनियाँ भारत की ओर आकर्षित हो सकती हैं। यह एक अवसर हो सकता है। लेकिन इसके साथ ही, वैश्विक मांग भी कम हो सकती है, जिससे हमारे निर्यात क्षेत्र, जैसे कि सॉफ्टवेयर, दवाएँ और टेक्सटाइल, प्रभावित हो सकते हैं।
भारतीय रिज़र्व बैंक और सरकार दोनों ही स्थिति पर नज़र बनाए हुए हैं। आवश्यकता पड़ने पर RBI विदेशी मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप कर सकता है या ब्याज दरों में परिवर्तन कर सकता है। सरकार भी व्यापार नीतियों में संशोधन या प्रभावित क्षेत्रों को राहत प्रदान करने पर विचार कर सकती है।
अंततः, यह कहा जा सकता है कि विश्व एक चुनौतीपूर्ण दौर में प्रवेश कर रहा है। आने वाले दो महीने यह निर्धारित कर सकते हैं कि वैश्विक अर्थव्यवस्था किस दिशा में आगे बढ़ेगी। भारत के लिए यह समय सतर्क रहने का है— न तो अत्यधिक भयभीत होने का, और न ही अत्यधिक उत्साहित होने का।
यह कुछ ऐसा है जैसे हम तूफानी समुद्र में नाव चला रहे हों; हवाएँ हमारे नियंत्रण में नहीं हैं, लेकिन नाव को किस दिशा में मोड़ना है, यह पूरी तरह से हमारे हाथ में है।
श्रेया गुप्ता कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
निजी हैं और कल्ट करंट का इससे सहमत होना अनिवार्य नहीं है।