टैरिफ का प्रहारः क्या होगा भारतीय फार्मा का भविष्य?

संदीप कुमार

 |  02 Sep 2025 |   22
Culttoday

अभी भारतीय दवा कंपनियाँ अमेरिका द्वारा लगाए गए टैरिफ से मुक्त हैं, लेकिन यह सुरक्षा अधिक समय तक टिकने वाली नहीं है। भारत से आयात पर वर्तमान में 25% शुल्क है, जिसे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस माह अतिरिक्त कर लगाने की घोषणा कर 50% तक बढ़ाने की बात कही है। कारण बताया गया है भारत का रूसी तेल का आयात। अभी तक दवा क्षेत्र को अमेरिकी टैरिफ के दायरे से बाहर रखा गया है, लेकिन हालिया साक्षात्कार में ट्रंप ने संकेत दिया कि अगले 18 महीनों में वे दवा-विशेष टैरिफ लगा सकते हैं, जो 250% तक पहुँच सकते हैं। अनुमान है कि 25% फार्मा टैरिफ ही अमेरिकी दवा लागत में हर साल 51 अरब डॉलर जोड़ देगा, जिससे दवाओं की कीमतों में लगभग 13% की वृद्धि हो सकती है।
टैरिफ तनाव और सेक्शन 232 समीक्षा
अमेरिका-भारत द्विपक्षीय व्यापार संबंधों में पहले ही तनाव है। ट्रंप प्रशासन ने घोषणा की है कि भारत द्वारा रूसी कच्चे तेल की खरीद के बदले भारत से आयात पर अतिरिक्त टैरिफ लगाए जाएँगे, जिससे कुल शुल्क 50% तक पहुँच जाएगा। अब तक फार्मास्यूटिकल्स इस दायरे से बाहर रहे हैं, जबकि भारत अमेरिकी दवा उत्पादों पर 5–10% शुल्क लगाता है। अप्रैल 2025 में अमेरिका ने ट्रेड एक्सपैंशन एक्ट, 1962 के तहत अपने दवा आयात की सेक्शन 232 समीक्षा शुरू की है। मार्च 2026 तक इसके नतीजे आएँगे और तभी तय होगा कि राष्ट्रपति उन आयातों पर शुल्क लगाएँगे या नहीं, जिन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा जोखिम माना जाएगा। पहले इसी कानून के तहत स्टील और एल्युमिनियम पर लगाए गए टैरिफ ने अमेरिकी उत्पादकता और साझेदारों के साथ व्यापारिक संबंधों पर नकारात्मक असर डाला था। भारत इस मुद्दे को विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में उठाएगा और दलील देगा कि स्टील और एल्युमिनियम पर नए टैरिफ डब्ल्यूटीओ के नियमों के अनुरूप नहीं हैं, साथ ही प्रतिशोधात्मक टैरिफ कदम उठाने का अधिकार भी सुरक्षित रखेगा।
अमेरिकी फार्मा टैरिफ: वर्तमान स्थिति
हाल ही में अमेरिका ने यूरोपीय संघ और जापान से आने वाले दवा आयात पर 15% और ब्रिटेन से आने वाली दवाओं पर 10% टैरिफ लगाया है। यह लंबे समय से चली आ रही उस परंपरा से बड़ा विचलन है, जिसमें स्वास्थ्य महत्व के कारण दवाओं को व्यापार विवादों से अलग रखा जाता था। इन टैरिफ का भविष्य फिलहाल अनिश्चित है और यह सेक्शन 232 समीक्षा के परिणाम पर निर्भर करेगा। ट्रंप ने संकेत दिया है कि किसी भी नए टैरिफ को अगले 18 महीनों में धीरे-धीरे लागू किया जाएगा ताकि अमेरिकी दवा आपूर्ति श्रृंखला सुरक्षित हो सके और उत्पादन को अमेरिकी ज़मीन पर वापस लाया जा सके।
हालाँकि, इस योजना का आधार यह है कि टैरिफ से आयातित दवाएँ महँगी हो जाएँगी, उपभोक्ता घरेलू विकल्पों की ओर रुख करेंगे और अमेरिकी दवा निर्माण व रोज़गार को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन ये मान्यताएँ अमेरिकी स्वास्थ्य-तंत्र की जटिलताओं को नज़रअंदाज़ करती हैं और घरेलू उत्पादन (ऑनशोरिंग) के आर्थिक व परिचालन पहलुओं की अनदेखी करती हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका के 90% स्वास्थ्य ख़र्च का संबंध क्रॉनिक बीमारियों से है, जिनका प्रबंधन मुख्य रूप से प्रिस्क्रिप्शन दवाओं—ब्रांडेड और जेनेरिक दोनों—से होता है। अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा फार्मा बाज़ार है, जिसने 2024 में 212.67 अरब डॉलर मूल्य की दवाएँ आयात कीं। अमेरिका में 90% प्रिस्क्रिप्शन जेनेरिक दवाओं के लिए होते हैं, लेकिन ये कुल खर्च का केवल 20% ही बनाते हैं, जिसका मतलब है कि दवा पर होने वाला बड़ा हिस्सा पेटेंट-प्रोटेक्टेड दवाओं पर खर्च होता है।
भारतीय जेनेरिक पर निर्भरता
अमेरिकी स्वास्थ्य-तंत्र भारत पर भारी रूप से निर्भर है। अमेरिका की 47% जेनेरिक दवाएँ भारत से आती हैं और ये दवाएँ किफ़ायती दरों पर जीवन-रक्षक इलाज सुनिश्चित करती हैं। भारतीय जेनेरिक रोसुवास्टेटिन इसका उदाहरण है—इसके बाज़ार में आने के बाद 2016 से 2022 के बीच अमेरिका में इस दवा का खर्च उठा पाने वाले लोगों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई। लेकिन यदि जेनेरिक पर टैरिफ 10–15% से ऊपर लगाया गया तो भारतीय कंपनियाँ बेहद पतले मुनाफ़े (रेज़र-थिन मार्जिन्स) के कारण अमेरिकी बाज़ार से बाहर निकल सकती हैं, या लागत घटाने के लिए ऐसे कदम उठा सकती हैं जो दवा की गुणवत्ता से समझौता करेंगे। इस स्थिति में दवा की कमी और लागत बढ़ने से अमेरिकी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुरक्षा पर सीधा ख़तरा होगा।
आपूर्ति श्रृंखला की कमजोरियाँ
फार्मा आपूर्ति श्रृंखलाएँ बेहद जटिल हैं और इनकी सबसे बड़ी कमजोरी चीन पर निर्भरता है। की स्टार्टिंग मैटेरियल्स (केएसएम) और एक्टिव फार्मास्यूटिकल इंग्रीडिएंट्स (एपीआई) जैसी अहम सामग्रियों के लिए दुनिया का 40% हिस्सा चीन से आता है। कोविड-19 महामारी ने भारत की कमज़ोरियों को उजागर किया, जिसके चलते प्रोडक्शन-लिंक्ड इंसेंटिव (पीएलआई) स्कीम शुरू की गई ताकि केएसएम और एपीआई का घरेलू उत्पादन बढ़े। इसके बावजूद भारत अभी भी अपनी 70% एपीआई ज़रूरतें चीन से पूरी करता है।
यदि भारतीय दवा उत्पादों पर टैरिफ लगाया गया, तो भारतीय निर्माता एपीआई उत्पादन से हतोत्साहित हो जाएँगे। इसके बजाय, नुकसान कम करने और टैरिफ से बची लागत बनाए रखने के लिए वे सस्ते चीनी एपीआई की ख़रीद बढ़ाएँगे। कम से कम अंतरिम अवधि में तो यही होगा। इस तरह भारत और अमेरिका दोनों की कोशिशें, जो दवा आपूर्ति श्रृंखलाओं को चीन से अलग करने के लिए की जा रही हैं, कमज़ोर पड़ जाएँगी। इससे भारत और अमेरिका दोनों की स्वास्थ्य सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है, क्योंकि चीन पर निर्भरता और गहरी होगी। अमेरिकी स्वास्थ्य प्रणाली का दूसरा पहलू यह है कि अमेरिका में दवा निर्माण बढ़ाना जटिल प्रक्रिया है और अनुमान है कि इसे पूरी तरह विकसित करने में कम से कम 5–10 साल लगेंगे। टैरिफ उच्च-लाभ वाली ब्रांडेड दवाओं के निर्माताओं को अमेरिका में उत्पादन लाने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है, चाहे वे मौजूदा इन्फ्रास्ट्रक्चर ख़रीदें या नई उत्पादन इकाइयाँ बनाएँ। लेकिन इसके लिए बड़े पैमाने पर निवेश, समय और अतिरिक्त चुनौतियाँ होंगी—
i) स्टील और एल्युमिनियम पर अमेरिकी टैरिफ, जो निर्माण लागत बढ़ाएँगे,
ii) अमेरिकी कठोर नियामक नियम, और
iii) उच्च-स्तरीय कुशल कार्यबल की ज़रूरत।
एमएफएन दवा मूल्य निर्धारण और नवाचार जोखिम
फार्मा आयातों को और जटिल बना रही है ट्रंप प्रशासन की नई दवा मूल्य नीति। मई 2025 में एक एक्जीक्यूटिव ऑर्डर के तहत यह नीति लाई गई—'मोस्ट-फेवर्ड नेशन (एमएफएन) प्रिस्क्रिप्शन ड्रग प्राइसिंग टू अमेरिकन पेशेंट्स।' इसके तहत कुछ नवोन्मेषी दवाओं की कीमतों को उन विकसित देशों में दी जाने वाली न्यूनतम कीमत से जोड़ा जाएगा, जिनकी प्रति व्यक्ति जीडीपी अमेरिका की 60% या उससे अधिक है।
ट्रंप ने 17 फार्मा कंपनियों को पत्र लिखकर निर्देश दिए हैं कि वे अमेरिकी रोगियों के लिए एमएफएन नीति के तहत दवाओं की कीमत घटाएँ, और उन्हें 60 दिन का समय दिया गया है।
मूल्य नियंत्रण और नवाचार पर असर
हालाँकि दवा मूल्य नियंत्रण रणनीतियाँ अल्पकालिक लाभ दे सकती हैं, लेकिन इससे कंपनियों का मुनाफ़ा घटेगा और अनुसंधान एवं विकास (आरएंडडी) में निवेश बुरी तरह प्रभावित होगा। इससे फार्मास्यूटिकल क्षेत्र में नवाचार धीमा पड़ जाएगा और कंपनियाँ अमेरिका-आधारित उत्पादन में निवेश करने से हतोत्साहित होंगी। यह स्थिति बेहद अनुचित होगी क्योंकि इससे अमेरिका और अन्य देशों की निर्भरता चीन पर बढ़ सकती है—जो धीरे-धीरे नवाचार के क्षेत्र में अंतर को पाट रहा है। परिणामस्वरूप नई दवाओं और अत्याधुनिक उपचारों तक पहुँच सीमित हो सकती है और वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा पर गंभीर असर पड़ेगा। यह नीति अमेरिकी रोगियों के लिए दवाओं की कीमत घटाने और उन्हें अन्य तुलनात्मक रूप से विकसित देशों की कीमतों के बराबर लाने के उद्देश्य से है, लेकिन इसके चलते नवाचार बुरी तरह बाधित हो सकता है और वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा कमजोर हो सकती है। ट्रंप के पहले राष्ट्रपति कार्यकाल में भी दवा मूल्य नियंत्रण नीतियाँ लागू करने का प्रयास हुआ था, लेकिन उन्हें कानूनी चुनौतियों और हितधारकों के विरोध का सामना करना पड़ा।
उद्योग की प्रतिक्रिया
फार्मा टैरिफ और एमएफएन (मोस्ट-फेवर्ड नेशन) की आशंका ने फार्मास्यूटिकल उद्योग में अनिश्चितता पैदा कर दी है। यहाँ तक कि अमेरिकी अस्पतालों और फार्मेसियों ने कुछ दवाओं का स्टॉकपाइल (भंडारण) शुरू कर दिया है। उद्योग जगत की प्रतिक्रिया मिश्रित रही है—कुछ कंपनियाँ इस संभावना से असमंजस में हैं कि टैरिफ भविष्य में पुनः बातचीत से बदल सकते हैं, इसलिए वे अभी तय नहीं कर पा रहीं कि उत्पादन इकाइयाँ अमेरिका में स्थानांतरित करें या नहीं। वहीं, कई बड़े खिलाड़ी अमेरिकी विनिर्माण क्षमता बढ़ाने में भारी निवेश कर रहे हैं।
अमेरिकी दिग्गज कंपनियाँ—एलि लिली, जॉनसन एंड जॉनसन, एबवी, ब्रिस्टल मायर्स स्क्विब, गिलियड और रेजेनरॉन—के साथ स्विट्ज़रलैंड की रोश और नोवार्टिस, जापान की ताकेदा, फ्रांस की सनोफी और ब्रिटेन की एस्ट्राजेनेका ने अगले पाँच वर्षों में लगभग 320 अरब डॉलर निवेश करने का वादा किया है ताकि अमेरिका में अपनी औद्योगिक और उत्पादन क्षमता को मजबूत व विस्तारित किया जा सके।
भारतीय दवा निर्माता भी टैरिफ जोखिम से बचने के लिए अमेरिका में अपने उत्पादन केंद्र बढ़ा रहे हैं। ज़ाइडस लाइफसाइंसेज ने अमेरिकी बायोटेक कंपनी एजीनस इंक. की विनिर्माण इकाइयों को खरीदने का फैसला किया है, जो कैंसर-रोधी इम्यून थैरेपी बनाने में विशेषज्ञ है। इसके साथ ही यह कंपनी वैश्विक बायोलॉजिक्स सीडीएमओ (कॉन्ट्रैक्ट डेवलपमेंट एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑर्गनाइजेशन) क्षेत्र में प्रवेश कर रही है। सिंगीन इंटरनेशनल लिमिटेड ने अमेरिका में अपनी पहली बायोलॉजिक्स उत्पादन साइट खरीदी है, जो मोनोक्लोनल एंटीबॉडी निर्माण पर केंद्रित है। वहीं, सन फार्मा ने इस वर्ष चेकपॉइंट थेराप्यूटिक का अधिग्रहण किया, जिसे उद्योग विशेषज्ञ एक रणनीतिक कदम मानते हैं। इस अधिग्रहण से सन फार्मा को अनलॉक्साइट नामक दवा मिली—जो उन्नत क्यूटेनियस स्क्वैमस सेल कार्सिनोमा (सीएसएससी) के लिए एफडीए द्वारा अनुमोदित पहली थैरेपी है। इससे कंपनी की इम्यूनो-ऑन्कोलॉजी (विशेषकर त्वचा कैंसर) में स्थिति मजबूत हुई है। ये प्रयास न केवल बाज़ार तक पहुँच बढ़ाते हैं बल्कि पोर्टफोलियो और उत्पादन स्थलों में विविधता लाकर स्वास्थ्य सुरक्षा को मजबूत करते हैं और भारत की दवा अनुसंधान एवं विकास क्षमता बढ़ाने की दिशा में अनुकूल माहौल बनाते हैं।
आगे का रास्ता
फार्मास्यूटिकल उद्योग के लिए टैरिफ के विकल्प तलाशना बेहद ज़रूरी है। अमेरिकी बाज़ार पर अत्यधिक निर्भरता घटाने के लिए यूरोपीय फार्मा प्रमुख (नोवार्टिस और सनोफी) ने यूरोप से अपील की है कि वे दवा की कीमतें बढ़ाएँ ताकि नवाचार को बढ़ावा मिले और अमेरिकी टैरिफ दबाव का संतुलन साधा जा सके। टैक्स इंसेंटिव या सब्सिडी अमेरिकी विनिर्माण को प्रोत्साहित कर सकते हैं और इन्हें दवा मूल्य निर्धारण व आपूर्ति श्रृंखला में अधिक पारदर्शिता लाने के औज़ार के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। यदि भारतीय जेनेरिक समेत फार्मा पर टैरिफ लगाया गया, तो इससे अमेरिकी दवा की कीमतें बढ़ेंगी, दवा की कमी होगी और चीनी एपीआई पर निर्भरता और गहरी जाएगी। इसके बजाय, वार्ताओं का केंद्र भारत से विनिर्माण प्रतिबद्धताएँ हासिल करने पर होना चाहिए—बिना लागत बढ़ाए। इसके साथ ही उच्च-लाभ वाली दवाओं के लिए अमेरिकी विनिर्माण साइट्स में विस्तार की संभावना भी तलाशनी चाहिए।
निष्कर्ष
अमेरिका–भारत फार्मास्यूटिकल व्यापार वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। अमेरिका द्वारा दवा-विशेष टैरिफ लगाने से न केवल अमेरिकी रोगियों की सस्ती दवाओं तक पहुँच प्रभावित होगी, बल्कि वैश्विक दवा आपूर्ति श्रृंखलाओं में भी हलचल मच जाएगी। भारतीय जेनेरिक दवा निर्माता बेहद कम मुनाफ़े (रेज़र-थिन मार्जिन्स) पर काम करते हैं और वे अमेरिका की लगभग आधी जेनेरिक दवाएँ उपलब्ध कराते हैं। यदि टैरिफ 10–15% से ऊपर गया तो उनके मुनाफ़े पर गंभीर चोट पहुँचेगी। सबसे अहम बात यह है कि टैरिफ अमेरिकी बायोफार्मा अनुसंधान और नवाचार पर नकारात्मक असर डालेगा और संभव है कि इसका नेतृत्व धीरे-धीरे चीन के हाथों चला जाए। रणनीतिक निवेश और एपीआई विविधीकरण ही अमेरिका और भारत दोनों को यह संतुलन साधने में मदद कर सकते हैं कि आर्थिक व स्वास्थ्य सुरक्षा बनी रहे और आवश्यक दवाओं तक पहुँच भी प्रभावित न हो।

लक्ष्मी रामकृष्णन ओआरएफ के सेंटर फॉर न्यू इकोनामिक डिप्लोमेसी में एसोसिएट फ़ेलो हैं।


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