भारत-अमेरिका व्यापार वार्ताओं के दौरान एक ऐसा मुद्दा सामने आया है, जिसने भावनात्मक और आर्थिक दोनों स्तरों पर बहस को जन्म दिया है—अमेरिकी डेयरी उत्पादों का आयात, विशेष रूप से भारत द्वारा तथाकथित 'नॉन-वेज दूध' का विरोध। इस विवाद के मूल में है ब्लड मील (blood meal) का उपयोग—जो कि एक कत्लखाने में पशुओं के अवशेषों से बना प्रोटीन युक्त चारा है—जिसे अमेरिका में डेयरी पशुओं को आमतौर पर खिलाया जाता है। भारत में, जहाँ गायों को पवित्र माना जाता है और शाकाहार धार्मिक एवं नैतिक मूल्यों से गहराई से जुड़ा हुआ है, यह प्रथा न केवल अस्वीकार्य मानी जाती है, बल्कि अपमानजनक भी समझी जाती है।
भारत, जो दुनिया में सबसे बड़ी शाकाहारी जनसंख्या वाला देश है और जहाँ हिंदू और जैन दर्शन का गहरा प्रभाव है, दूध को पवित्र और सात्विक भोजन मानता है। राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान (एनडीआरआई) की डेयरी वैज्ञानिक डॉ. नीलम सिंह बताती हैं, “भारत में दूध केवल पोषण नहीं है। यह एक आध्यात्मिक पदार्थ है—जिसे पूजा में उपयोग किया जाता है, देवताओं को अर्पित किया जाता है और यह पवित्र गाय का ही विस्तार माना जाता है। ऐसे पशुओं से प्राप्त दूध जो मांसाहारी आहार पर पाले गए हों, यहाँ स्वीकार्य नहीं है।”
यह सांस्कृतिक रेखा अब व्यापारिक वार्ताओं में एक बड़ा रोड़ा बन गई है। अमेरिका, जो अपने डेयरी उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा देना चाहता है, भारत के इस प्रतिबंध को नॉन-टैरिफ बैरियर यानी गैर-शुल्क बाधा के रूप में देखता है—एक ऐसा प्रतिबंध जो खाद्य सुरक्षा या वैज्ञानिक मानकों पर आधारित नहीं, बल्कि सांस्कृतिक प्राथमिकताओं पर आधारित है। अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि यह तर्क देते हैं कि उनका दूध वैश्विक स्वास्थ्य मानकों को पूरा करता है और इसे रोकना वैश्विक व्यापार में निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा के सिद्धांत का उल्लंघन है।
लेकिन भारतीय सरकार अपने रुख पर अडिग रही है। वर्ष 2000 के दशक की शुरुआत से ही भारत यह शर्त रखता आया है कि कोई भी डेयरी आयात तभी स्वीकार्य होगा जब वह ऐसे पशुओं से हो जो मांस या मांस उत्पादों पर नहीं पाले गए हों। अमेरिका इस शर्त का लगातार विरोध करता रहा है, क्योंकि वहाँ की डेयरी इंडस्ट्री में ब्लड मील, मीट मील और बोन मील का व्यापक रूप से उपयोग होता है जिससे दूध उत्पादन और पशु वृद्धि में तेजी आती है।
यह बहस सांस्कृतिक संप्रभुता और वैश्विक व्यापार के बीच के व्यापक संघर्ष को उजागर करती है। मुंबई विश्वविद्यालय की खाद्य मानवविज्ञानी (फूड एंथ्रोपोलॉजिस्ट) अनन्या भट्ट कहती हैं, “यह केवल प्रोटीन या अर्थव्यवस्था की बात नहीं है। यह इस बारे में है कि देश अपने मूल्यों को व्यापार में भाग लेते हुए कैसे सुरक्षित रखते हैं। वैश्वीकरण का अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि खुले बाजारों के नाम पर नैतिक सीमाएं मिटा दी जाएं।”
इस मुद्दे का उपभोक्ता विश्वास से भी गहरा संबंध है। भारत के उपभोक्ता—विशेष रूप से शाकाहारी—अपेक्षा करते हैं कि उनका भोजन उनके नैतिक और धार्मिक मानकों के अनुरूप हो। उपभोक्ता अध्ययन केंद्र (Centre for Consumer Studies) द्वारा 2023 में किए गए एक सर्वेक्षण में सामने आया कि 75% से अधिक भारतीय उपभोक्ताओं ने कहा कि वे ऐसे दूध को अस्वीकार कर देंगे जो ब्लड मील से पाले गए पशुओं से प्राप्त हो, भले ही वह पोषण या सुरक्षा के लिहाज़ से उपयुक्त हो।
हालांकि, कुछ भारतीय अर्थशास्त्रियों को दीर्घकालिक व्यापारिक प्रभावों की चिंता भी है। अमेरिकी डेयरी उत्पादों को नकारना व्यापक व्यापार समझौतों को जटिल बना सकता है, विशेषकर ऐसे समय में जब भारत पश्चिमी देशों के साथ अपने संबंधों को और प्रगाढ़ करना चाहता है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार विश्लेषक राजीव मेहता कहते हैं, “भारत को संतुलन बनाना होगा। यदि हम वैश्विक व्यापार में एक प्रमुख भूमिका निभाना चाहते हैं, तो केवल सांस्कृतिक तर्कों के आधार पर खुद को अलग-थलग नहीं कर सकते। हालांकि, हमें उन मुद्दों पर कोई समझौता नहीं करना चाहिए जो हमारी राष्ट्रीय पहचान के मूल में हैं।”
एक संभावित समाधान लेबलिंग और प्रमाणन के रूप में सामने आ सकता है। कुछ विशेषज्ञों का सुझाव है कि भारत ऐसे अमेरिकी डेयरी उत्पादों को आयात करने की अनुमति दे सकता है जो “शाकाहारी आहार पर पाले गए पशुओं से प्राप्त” के रूप में प्रमाणित हों या जिन पर स्पष्ट लेबलिंग हो ताकि उपभोक्ता जागरूक निर्णय ले सकें। लेकिन अभी तक ऐसे प्रस्ताव औपचारिक व्यापार वार्ताओं में शामिल नहीं किए गए हैं।
'नॉन-वेज दूध' विवाद कोई सामान्य व्यापारिक टकराव नहीं है—यह उस बड़ी चुनौती का प्रतिबिंब है जिसका सामना आज कई राष्ट्र कर रहे हैं: स्थानीय मूल्यों को वैश्विक अर्थव्यवस्था की मांगों से कैसे संतुलित किया जाए। इस मामले में दूध एक प्रतीक बन गया है—पवित्रता का, आस्था का, पहचान का और प्रतिरोध का। जैसे-जैसे भारत और अमेरिका व्यापार वार्ताएं आगे बढ़ाते हैं, यह डेयरी बहस यह बताने का मानदंड बनेगी कि सांस्कृतिक संवेदनशीलता को वैश्विक व्यापार दबावों के मुकाबले कितनी अहमियत दी जाती है।
आकांक्षा शर्मा कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
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