भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) ने असम के करबी आंगलोंग ज़िले में दुर्लभ पृथ्वी तत्वों (Rare Earth Elements – REEs) के भंडार की पुष्टि की है। हाल ही में जारी अपनी भूवैज्ञानिक रिपोर्ट में GSI ने बताया कि इस क्षेत्र में लैन्थेनम, सेरियम, नियोडिमियम और यट्रियम जैसे तत्व पाए गए हैं। ये खनिज पृथ्वी की परतों में पर्याप्त मात्रा में मौजूद होने के बावजूद, जटिल निष्कर्षण प्रक्रिया के कारण 'दुर्लभ' की श्रेणी में रखे जाते हैं।
भारत में REEs के क्षेत्र में काफी संभावनाएँ हैं, लेकिन अभी तक उत्पादन और प्रोसेसिंग की क्षमता सीमित है। भारतीय खान ब्यूरो और परमाणु खनिज निदेशालय के अनुसार, ओडिशा, केरल और तमिलनाडु के समुद्र तटीय रेतों में मोनाज़ाइट जैसे खनिजों के माध्यम से हल्के REEs की उपस्थिति पाई जाती है। लेकिन भारी REEs – जो उच्च तकनीक वाली इलेक्ट्रॉनिक और रक्षा प्रणालियों के लिए अधिक महत्वपूर्ण होते हैं – कम मात्रा में उपलब्ध होते हैं और बाज़ार में इनकी कीमत भी अधिक होती है। करबी आंगलोंग की यह खोज खास इसलिए है क्योंकि इसमें हल्के और भारी दोनों तरह के REEs मौजूद हैं, जिससे भारत की खनिज संपदा और अधिक विविधतापूर्ण बन सकती है।
भारत में फिलहाल दुर्लभ पृथ्वी तत्वों की प्रोसेसिंग की ज़िम्मेदारी मुख्य रूप से इंडियन रेयर अर्थ्स लिमिटेड (IREL) के पास है। इसके केंद्र केरल (RED), ओडिशा (OSCOM), और विशाखापत्तनम (REPM) में हैं, जहाँ 3 टन प्रतिवर्ष की क्षमता से समेरियम-कोबाल्ट मैग्नेट का उत्पादन होता है। IREL की मोनाज़ाइट प्रोसेसिंग क्षमता सालाना लगभग 10,000 टन है, लेकिन वास्तविक उत्पादन अभी भी 2,900 टन के स्तर पर ही अटका हुआ है। खासकर भारी REEs के निष्कर्षण की तकनीक अभी भारत में पर्याप्त विकसित नहीं हो पाई है, जिससे चीन पर निर्भरता बनी हुई है।
भारत की इलेक्ट्रिक वाहन (EV) नीति, जो आने वाले वर्षों में तेज़ी से विस्तार की ओर बढ़ रही है, REEs की आत्मनिर्भरता की मांग को और भी महत्वपूर्ण बना देती है। खासतौर पर नियोडिमियम आधारित मैग्नेट, उच्च दक्षता वाले EV मोटर्स के लिए अनिवार्य हैं। वर्तमान में वैश्विक मैग्नेट बाज़ार पर 90% से अधिक नियंत्रण चीन का है। इसी कारण महिंद्रा एंड महिंद्रा, उनो मिंडा और सोना कॉमस्टार जैसी भारतीय कंपनियाँ अब इन मैग्नेट्स के स्थानीय उत्पादन की योजना पर काम कर रही हैं।
जून 2025 में भारत सरकार ने IREL को निर्देश दिया कि वह जापान को नियोडिमियम का निर्यात अस्थायी रूप से रोक दे और घरेलू आपूर्ति को प्राथमिकता दे। इसके साथ ही, भारत सरकार ने 2026 तक उत्पादन लक्ष्य को 450 टन प्रतिवर्ष और 2030 तक 900 टन तक बढ़ाने की योजना बनाई है। भारत ‘मिनरल सिक्योरिटी पार्टनरशिप’ (MSP) के साथ भी सहयोग बढ़ा रहा है, जो अमेरिका के नेतृत्व में पारदर्शी और मज़बूत वैश्विक आपूर्ति शृंखला के विकास पर केंद्रित है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, भारत ‘खनिज विदेश इंडिया लिमिटेड’ (KABIL) के माध्यम से म्यांमार, मध्य एशिया, अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया और अफ्रीका जैसे देशों में रणनीतिक खनिज संपत्तियों को सुरक्षित करने के लिए निवेश के अवसर तलाश रहा है।
हालाँकि, करबी आंगलोंग की यह खोज जितनी उत्साहजनक है, उतनी ही संवेदनशील भी है। यह क्षेत्र न केवल पारिस्थितिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यहाँ बड़ी संख्या में आदिवासी समुदाय भी निवास करते हैं। इसलिए किसी भी खनन गतिविधि से पहले पर्यावरणीय नियमों, वन अधिकार अधिनियम और स्थानीय समुदायों की सहमति का पालन अनिवार्य होगा।
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) के अनुसार, 2040 तक स्वच्छ ऊर्जा तकनीकों में उपयोग होने वाले REEs की माँग तीन से सात गुना तक बढ़ सकती है। ऐसे में करबी आंगलोंग की यह खोज भारत के लिए एक निर्णायक अवसर लेकर आई है — जिससे न केवल चीन पर निर्भरता घट सकती है, बल्कि घरेलू उद्योगों को बल और भारत की अक्षय ऊर्जा तथा उन्नत निर्माण क्षेत्रों की नींव भी मजबूत हो सकती है।
हालांकि, इस अवसर को वास्तविक उपलब्धि में बदलने के लिए भारत को नियमन, प्रोसेसिंग टेक्नोलॉजी, समुदाय की सहमति और पर्यावरण सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर गंभीरता से काम करना होगा।
धनिष्ठा डे कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
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