अमेरिका और चीन — दुनिया की दो सबसे बड़ी आर्थिक शक्तियों — के बीच बढ़ते तनाव ने अब एक निर्णायक मोड़ ले लिया है। दो दिनों की तनावपूर्ण बातचीत के बाद, दोनों देशों ने एक समझौते पर पहुंचकर आर्थिक टकराव को टाल दिया है। इस समझौते के तहत दुर्लभ खनिजों (रेयर अर्थ मिनरल्स) के निर्यात और विदेशी छात्रों के आपसी आदान-प्रदान में बदलाव लाया गया है।
ये दुर्लभ खनिज स्मार्टफोन, इलेक्ट्रिक वाहनों, सैटेलाइट्स और उन्नत हथियार प्रणालियों के निर्माण में अत्यंत आवश्यक होते हैं। हालांकि अमेरिका तकनीकी नवाचार में अग्रणी है, फिर भी यह चीन पर निर्भर है, जो विश्व के 60% से अधिक दुर्लभ खनिज उत्पादन और लगभग 90% परिष्करण (refining) क्षमता को नियंत्रित करता है।
2025 में ट्रम्प प्रशासन ने चीन से सभी आयातों पर भारी शुल्क लगा दिए थे, जिसके जवाब में चीन ने भी पलटवार किया। इस व्यापार युद्ध में दोनों देशों ने अपने-अपने आयात शुल्क को क्रमशः 145% और 125% तक बढ़ा दिया था। यह टकराव एक रणनीतिक अलगाव में तब्दील हो गया था, जहां दोनों देश एक-दूसरे की आपूर्ति श्रृंखला को बाधित करने की कोशिश में लगे थे।
इसी बीच, कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने “चीन-प्लस-वन” रणनीति अपनानी शुरू कर दी — यानी चीन के अलावा एक और देश को उत्पादन और आपूर्ति के लिए जोड़ा जाने लगा। इसने भारत के लिए खुद को एक संभावित वैकल्पिक केंद्र के रूप में स्थापित करने का सुनहरा अवसर प्रदान किया।
हालांकि, बुधवार की सुबह दोनों देशों के अधिकारियों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत चीन ने अमेरिका के लिए फिर से दुर्लभ खनिजों का निर्यात और उत्पादन शुरू करने पर सहमति जताई, जबकि अमेरिका ने चीनी छात्रों के वीज़ा पर लगी रोक हटाकर शैक्षणिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया। दोनों देशों ने एक-दूसरे पर लगे टैरिफ को 115% तक घटाने पर भी सहमति दी है, हालांकि 10% अतिरिक्त शुल्क बरकरार रहेगा। यह समझौता सीमित समय के लिए वैध रहेगा।
यह समझौता यह संकेत देता है कि अमेरिका के नए टैरिफ और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं का क्या भविष्य होगा, यह अभी अनिश्चित है। यद्यपि रणनीतिक अलगाव बरकरार है, पर यह सौदा कूटनीतिक उपायों के माध्यम से व्यापार को फिर से गति देने की कोशिश करता है — जिसमें दुर्लभ खनिजों और शिक्षा का आदान-प्रदान केवल आर्थिक नहीं बल्कि रणनीतिक और सांस्कृतिक भी है। इस सौदे से दोनों देशों के बीच व्यापार में फिर से तेजी आने की संभावना है, खासकर अब जब 90 दिन की समयसीमा में तेजी से परिवहन की आवश्यकता होगी।
क्या भारत अब भी एक वैकल्पिक शक्ति बन सकता है?
उत्तर है — हां। भारत की भौगोलिक स्थिति और पश्चिमी रणनीतिक लक्ष्यों के साथ बढ़ती निकटता उसे एक प्रबल दावेदार बनाती है। परंतु भारत के सामने चुनौतियाँ भी हैं — जैसे कि अपर्याप्त रिफाइनिंग और प्रोसेसिंग इंफ्रास्ट्रक्चर, सरकारी लालफीताशाही, पर्यावरणीय नियमों की जटिलता और तकनीकी पिछड़ापन। अमेरिका-चीन के इस समझौते से भारत को एक तरह से प्रतिस्पर्धा से राहत और तैयारी का समय मिल सकता है — जिससे वह अपने तकनीकी कौशल और अधोसंरचना को सुधार सके।
इस लगातार बदलते वैश्विक परिदृश्य में भारत के लिए जरूरी है कि वह अपने अवसरों और क्षमताओं में संतुलन बनाए रखे। उसे इस बात पर गहरी नजर रखनी होगी कि अमेरिका और चीन अपने व्यापारिक लाइसेंसों और टैरिफ को किस दिशा में ले जाते हैं। यह टकराव या समझौता केवल दो देशों का मामला नहीं है, बल्कि इसका असर वैश्विक ऊर्जा, रक्षा और तकनीकी विकास पर भी पड़ेगा।
भारत के पास संसाधन हैं, वैश्विक राजनयिक समर्थन है, और एक तेज़ी से आधुनिक होती अर्थव्यवस्था है — जो उसे इस नए वैश्विक व्यवस्था में केंद्रीय भूमिका निभाने में सक्षम बनाते हैं। अमेरिका-चीन का यह अस्थायी समझौता भले ही भारत की गति को कुछ धीमा कर दे, लेकिन यदि वैश्विक सप्लाई चेन में गहराई से अलगाव (decoupling), सहयोगी व्यापार ढांचे और हरित तकनीक (green tech) पर जोर बढ़ता है — तो भारत के लिए संभावनाओं के द्वार अभी भी खुले रहेंगे।
रिया गोयल कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
निजी हैं और कल्ट करंट का इससे सहमत होना अनिवार्य नहीं है।