7वां राष्ट्रीय मतदाता दिवस 25 जनवरी (बुधवार) को मनाया गया.भारत के निर्वाचन आयोग की स्थापना की याद में 2011 में इसकी शुरूआत की गई थी. 25 जनवरी 1950 को पहले गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर निर्वाचन आयोग अस्तित्व में आया था. लेकिन राष्ट्रीय मतदाता दिवस के अवसर पर इतिहास को याद करने के बजाय हमें आगे की राह के बारे में तय करना होगा. राष्ट्रीय मतदाता दिवस की घोषणा मतदाताओं की संख्या मूलत: जो हाल में ही 18 वर्ष की आयु सीमा पूरी की है, को बढ़ाने के उद्देश्य से की गई थी.
संविधान (61वां संशोधन) अधिनियम, 1988 के तहत लम्बे समय से चली आ रही जनता की मांग को पूरा करने के लिए मतदान की आयु सीमा 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष की गई थी. इसके बाद नवंबर 1989 में संपन्न हुए 10 वें आम चुनाव में 18 वर्ष से 21 वर्ष के आयु वर्ग के 35.7 मिलियन (3.5 करोड़) मतदाताओं ने पहली बार मतदान में हिस्सा लिया था.
लेकिन मिशन अभी भी पूरा नहीं हुआ था. पिछले दो दशकों में उत्साहजनक परिणाम नहीं प्राप्त हुए. योग्य युवा मतदाताओं का मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने की रफ्तार काफी ठंडी रही. कुछ मामलों में तो यह करीब 20 से 25 प्रतिशत ही रहा. मतदाता सूची में नाम दर्ज कराना अनिवार्य नहीं सिर्फ स्वैच्छिक है जिसके कारण चुनाव आयोग सिर्फ लोगों को मतदान के लिए जागरूक ही कर सकता है.लेकिन चुनाव आयोग की प्राथमिकता स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना है. यह अपने आप में एक लंबा और चुनौतीपूर्ण काम है.
जबतक मतदाता चुनाव को एक कार्यक्रम के रूप में देखेगा तबतक यह आयोग के लिए एक लंबी प्रक्रिया ही बनी रहेगी. अधिसूचना जारी करने से लेकर परिणाम घोषित करने तक चुनाव की एक लंबी प्रक्रिया है. भारत जैसे विशाल एवं बड़ी आबादी वाले देश में चुनाव संपन्न कराना एक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है. आयोग पर धन-बल और बाहु-बल से निपटने की भी जिम्मेदारी होती है.
मतदाताओं को ध्यान में रखते हुए एक साफ-सुथरी एवं त्रुटि मुक्त मतदाता सूची तैयार करना (जनप्रतिनिधि अधिनियम, 1951 की धारा 11 और 62 के अनुसार) आयोग की प्राथमिकता में शामिल होता है.मतदाताओं को लामबंद करने का काम चुनाव प्रचार कर विभिन्न राजनीतिक दलों पर छोड़ दिया गया था. सभी राजनीतिक दल स्वाभाविक रूप से मतदाताओं को लुभा कर अपने पक्ष में मतदान करने के लिए अपने सबसे उत्तम प्रयास किया.लेकिन आयोग की भी एक दायित्व एवं लोकतंत्र के प्रति जिम्मेवारी बनती है कि वो मतदाताओं को जागरूक कर उन्हें मतदान के लिए प्रेरित करे.
कुछ लोगों का यह मानना है कि साक्षरता में बढ़ोतरी होने से मतदान में स्वयं तेजी आ जायेगी. इस तरह की ढिलाई बरतने के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए. पहले आम चुनाव (1951-52) में मतदान का प्रतिशत 51.15 था. इसे हम असंतोषजनक श्रेणी में नहीं रख सकते.उस समय साक्षरता करीब 17 प्रतिशत ही थी. हालांकि, जिस तरह से साक्षरता में वृद्धि हुई, उस अनुपात में मतदान में तेजी नहीं देखी गई है. 2009 के आम चुनाव में मतदान का प्रतिशत करीब 60 प्रतिशत ही रहा जबकि 2011 की जनगणना के अनुसार साक्षरता दर 74 प्रतिशत थी.
2009 के बाद आयोग ने मतदान बढ़ाने के लिए एक अलग तरह की भूमिका की रूपरेखा तैयार की. इसके लिए निर्वाचन आयोग के एक व्यापक ‘स्वीप’ (या व्यवस्थित मतदाता शिक्षा और इलेक्टोरल पार्टिसिपेशन) नामक कार्यक्रम तैयार किया. ‘स्वीप’ के तहत निर्वाचन आयोग ने दो नारे तैयार किए पहला-‘समावेशी और गुणात्मक भागीदारी’ तथा दूसरा ‘किसी भी मतदाता को नहीं छोड़ा जा सकता’.
इस तरह पहली बार निर्वाचन आयोग ने ‘स्वीप’ के माध्यम से मतदाता जागरूकता कार्यक्रम तैयार किया. इसके अंतर्गत व्यक्तियों या संस्थाओं सहित सभी हितधारकों को लाया गया. इसके तहत मतदाता सूची में पंजीकरण एवं मतदान में भागीदारी के अंतर पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया.इसमें लिंग, क्षेत्र, सामाजिक-आर्थिक स्थिति, स्वास्थ्य की स्थिति, शैक्षणिक स्तर, पेशेवर प्रवास, भाषा आदि पर भी विशेष रूप से ध्यान दिया गया. सामाजिक बदलाव को ध्यान में रखते हुए मतदाताओं को मतदान के प्रति जागरूक करने के लिए वृहत रूपरेखा तैयार की गई. ‘स्वीप’ प्रत्येक भारतीय नागरिक को एक मतदाता ही मानता है. यहां तक कि अवयस्क लड़के एवं लड़कियों को भविष्य का मतदाता मानकर अभी से ही उसके अंदर मतदान के प्रति जागरूकता पैदा करने की जरूरत है, इसीलिए शिक्षा संस्थानों का भी उपयोग किया गया है.
65 प्रतिशत से थोड़ा कम मतदान भारत जैसे देश के लिए असाधारण नहीं हो सकता. फिर भी, राजनीतिक विश्लेषक इसे एक स्वस्थ प्रवृत्ति के रूप में नहीं देखते हैं.मतदान का उच्च प्रतिशत जीवंत लोकतंत्र का प्रतीक माना जाता है. जबकि मतदान का निम्न प्रतिशत राजनीतिक उदासीन समाज की ओर इशारा करता है.ऐसी स्थिति का फायदा विघटनकारी तत्व उठाना चाहते हैं और लोकतंत्र के लिए खतरा पैदा करना चाहते हैं. इस प्रकार लोकतंत्र को अकेले एक भव्य विचार के लिए नहीं छोड़ा जा सकता है. यह लगातार मतपत्र में प्रतिबिंबित हो दिखाई पड़ते रहना चाहिए, यही लोकतंत्र की मजबूती है.
2014 में संपन्न 16 वें आम चुनाव में, मतदान का प्रतिशत अब तक सबसे ज्यादा 66.38 प्रतिशत रहा. अधिकांश टिप्पणीकारों ने इसके लिए राजनीतिक कारकों को जिम्मेदार ठहराया है. लेकिन कुछ श्रेय निश्चित रूप से निर्वाचन आयोग के ‘स्वीप’ जागरूकता अभियान को भी दिया जाना चाहिए. इसका आने वाले चुनावों में भी परीक्षण किया जाना निश्चित है. तो अगली बार उच्च मतदान प्रतिशत का श्रेय न सिर्फ राजनीतिक कारकों बल्कि ‘स्वीप’ को भी मिलना चाहिए. इस तरह की व्याख्या अपने आप में जागरूकता अभियान में उत्प्रेरक की तरह कार्य कर सकती है.
राष्ट्रीय मतदाता दिवस मनाना लोकतांत्रिक प्रक्रिया में नए मतदाताओं को प्रोत्साहित करने के लिए भारत निर्वाचन आयोग द्वारा उठाए गए विभिन्न प्रयासों के बीच एक महत्वपूर्ण कदम है.
( लेखक नई दिल्ली स्थित स्वतंत्र अनुसंधानकर्ता एवं स्तंभकार हैं.)