पाकिस्तानः मुल्क नहीं, मानसिकता है
संदीप कुमार
| 01 May 2025 |
64
भारत के विभाजन की त्रासदी ने न केवल दो देशों की सीमाएं खींचीं, बल्कि दो भिन्न मानसिकताओं को जन्म दिया। पाकिस्तान को अक्सर एक राष्ट्र के रूप में देखा जाता है, परंतु यह केवल एक भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि एक विशेष प्रकार की मानसिकता है – एक ऐसी सोच, जो आक्रोश, असुरक्षा और श्रेष्ठतावादी धार्मिक अलगाव से जन्मी है। हमें पाकिस्तान को एक देश की बजाय एक मानसिक स्थिति, एक विचारधारा के रूप में देखने का प्रयास करना चाहिए, जिसकी जड़ें इतिहास में हैं, और जिसकी शाखाएं आज भी आतंकवाद, हिंसा और सांस्कृतिक विभाजन के रूप में फैल रही हैं।
पाकिस्तान का निर्माण किसी सकारात्मक वैचारिक धरातल पर नहीं हुआ था। यह 'इस्लाम खतरे में है' जैसे धार्मिक नारों पर टिका एक भावनात्मक अभियान था, जिसे जिन्ना जैसे नेता ने उस समय के राजनीतिक परिदृश्य में अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए भुनाया। जिन्ना स्वयं इस्लाम के कोई गहन जानकार नहीं थे, पर उन्होंने धार्मिक अस्मिता को एक हथियार बना लिया। यह विचार कि मुसलमान और हिंदू एक साथ नहीं रह सकते, यह न केवल विभाजन का आधार बना, बल्कि यह भविष्य के लिए भी नफरत और टकराव की नींव रख गया।
शाह वलीउल्लाह जैसे धार्मिक चिंतकों द्वारा प्रतिपादित यह 'दूरी की राजनीति' आगे चलकर मुस्लिम लीग और जिन्ना जैसे नेताओं के हाथों में एक आत्म-घातक औजार बन गई। पाकिस्तान के निर्माण की नींव 'नकारात्मकता' थी – कि हम हिंदुओं जैसे नहीं हैं, कि हम अलग हैं, और इसी आधार पर हमें अलग देश चाहिए।
पाकिस्तान के पहले दिन से ही उसके अंदर एक आत्मविरोधाभासी उग्रवाद पनपने लगा। इस्लाम के नाम पर बने इस देश में इस्लाम की असल शिक्षाओं की जगह नफरत और हिंसा ने ले ली। भारत के खिलाफ 1947 में छेड़ा गया युद्ध हो, या 1971 में बंगालियों के नरसंहार की विभीषिका – पाकिस्तान की सैन्य और राजनीतिक सोच का मूल आधार भारत-विरोध और इस्लाम की गलत व्याख्या ही रहा है।
1971 में जब बांग्लादेश ने पाकिस्तान से अलग होकर अपनी अस्मिता कायम की, तब द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की नींव ही हिल गई। बंगाली मुसलमानों ने यह साबित कर दिया कि पाकिस्तान का निर्माण इस्लाम की रक्षा नहीं, बल्कि सांप्रदायिक और भाषायी उत्पीड़न के खिलाफ किया गया एक राजनीतिक छल था। जनरल असीम मुनीर जैसे सैन्य शासकों द्वारा आज भी 'द्वि-राष्ट्र सिद्धांत' की रट लगाना न केवल ऐतिहासिक सच्चाई से आंखें चुराना है, बल्कि एक दिवालिया राष्ट्र की हताशा भी है।
कई युद्धों में भारत से हारने के बाद पाकिस्तान ने 'आतंकवाद' को अपनी रणनीति बना लिया। एक राष्ट्र ने अपने संसाधन, अपने युवाओं और अपनी विदेश नीति को इस कदर कट्टरता में झोंक दिया कि आतंकवाद वहां 'आर्थिक उद्योग' बन गया। कश्मीर, जिसका राजनीतिक भविष्य 1947 में अभी तय नहीं हुआ था, वहां पाकिस्तान ने बलपूर्वक घुसपैठ कर, उसकी शांति को सात दशकों से निगल रहा है।
जनरल मुनीर का हालिया बयान कि 'हम कश्मीर नहीं भूलेंगे' एक बार फिर आतंक को वैचारिक वैधता देने की कोशिश है। यह एक सच्चाई है कि आज भारतीय जम्मू-कश्मीर विकास, रोजगार और पर्यटन में नए कीर्तिमान बना रहा है, जबकि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में गरीबी, दमन और असंतोष की आग सुलग रही है। इसका उत्तर पाकिस्तानी हुक्मरानों के पास नहीं, केवल युद्ध और आतंक के खोखले नारे हैं।
विडंबना यह है कि जिस इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान बना, उसी इस्लाम के मूल सिद्धांत पाकिस्तान की राजनीति से पूरी तरह नदारद हैं। कुरान में अल्लाह को 'रब्ब-उल-आलमीन' कहा गया है – अर्थात समस्त सृष्टि का पालनहार। फिर पाकिस्तान का संकीर्ण, हिंसक राष्ट्रवाद किस इस्लाम से प्रेरित है? यदि इस्लाम खतरे में है, जैसा बार-बार कहा जाता है, तो यह इस्लाम की सच्चाई पर ही प्रश्नचिह्न लगाता है।
पाकिस्तान, इस्लाम के वैश्विक दृष्टिकोण को नकार कर एक कट्टर, संकुचित विचारधारा का वाहक बन गया है। अफगानिस्तान, ईरान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया – सभी मुस्लिम बहुल राष्ट्र हैं, लेकिन पाकिस्तान जैसा आत्मविरोधी और हिंसक राष्ट्र कोई नहीं। यहां तक कि चीन में मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार भी पाकिस्तान को विचलित नहीं करते, क्योंकि पाकिस्तान का इस्लाम केवल भारत के खिलाफ 'राजनीतिक इस्लाम' है – मानवता से विहीन, और स्वार्थ से प्रेरित।
पाकिस्तान एक राज्य के रूप में नहीं, एक असफल प्रयोग के रूप में इतिहास में दर्ज हो रहा है। यह एक झूठ पर खड़ा हुआ विचार है – कि मजहब मुल्क बना सकता है। जब इस विचार की नींव ही कमजोर हो, तो इमारत कितनी ही बार पुनर्निर्मित हो, वह ढहती ही है।
आज जब भारत विकास की नई ऊंचाइयां छू रहा है, पाकिस्तान अपने ही अतीत के बंजर मैदान में उलझा हुआ है – न नेता में दृष्टि है, न सेना में विवेक। अगर पाकिस्तान को वाकई बचना है, तो उसे 'भारत-विरोध' से बाहर निकल कर 'आत्म-सुधार' की राह अपनानी होगी – एक ऐसी राह जो विचारों में स्वतंत्रता, समाज में समावेश और राजनीति में जिम्मेदारी की मांग करती है।
क्या पाकिस्तान इस मानसिकता से बाहर निकल पाएगा? या वह इतिहास में केवल एक चेतावनी बनकर रह जाएगा – कि मजहब के नाम पर बने मुल्क, जब आत्मनिरिक्षण छोड़ दें, तो वे अपने ही लोगों के लिए नर्क बन जाते हैं।