मोदी का नया भारतः आलोचना के लिए सिकुड़ती जगह!

संदीप कुमार

 |  01 Aug 2025 |   5
Culttoday

भारत के लोकतंत्र को उसकी विविधता, असहमति और जीवंत बहसों ने ही मज़बूती दी है। संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार माना है, ताकि हर नागरिक सत्ता को सवालों के कठघरे में खड़ा कर सके। लेकिन बीते एक दशक में यह सवाल देशभर में गूँजने लगा है कि क्या भारत में असहमति को दबाया जा रहा है? क्या सरकार आलोचना को देशविरोधी करार देकर सिविल सोसाइटी की आवाज़ को कुचलने की कोशिश कर रही है? आज जब हम 'नया भारत' और 'विश्वगुरु' के सपनों की बात करते हैं, तब यह देखना बेहद ज़रूरी है कि इस विकास यात्रा में असहमति और आलोचना की जगह कितनी बची है।
मोदी सरकार के पहले कार्यकाल से ही सिविल सोसाइटी संगठनों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और अकादमिक जगत के कुछ हिस्सों को नए किस्म के कानूनी और प्रशासनिक दबावों का सामना करना पड़ा। एफसीआरए (विदेशी चंदा विनियमन अधिनियम) में संशोधन कर कई नामी-गिरामी एनजीओ (गैर-सरकारी संगठनों) की विदेशी फंडिंग पर रोक लगाई गई। एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया, जिसने दशकों तक मानवाधिकारों के हनन पर सरकारों को आईना दिखाया, उसे 2020 में भारत में अपना काम समेटना पड़ा क्योंकि उसके बैंक खाते फ्रीज कर दिए गए थे। इसी तरह ग्रीनपीस, टेरे डेस होम्स और अन्य कई संगठनों पर विदेशी चंदा लेने के नियमों के उल्लंघन के आरोप लगाए गए। सरकार का पक्ष है कि ये संगठन नियमों का पालन नहीं करते और विदेशी पैसे से भारत के विकास प्रोजेक्ट्स में अड़ंगे डालते हैं। लेकिन सवाल ये है कि क्या पर्यावरण संरक्षण या मानवाधिकार पर आवाज़ उठाना विकास विरोधी है?
कर्नाटक की पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि का मामला आज भी युवाओं के ज़ेहन में ताज़ा है। दिशा को 2021 में ‘टूलकिट’ मामले में गिरफ्तार किया गया। यह ‘टूलकिट’ दरअसल किसानों के आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाने से जुड़ा था। दिशा पर राजद्रोह जैसे गंभीर आरोप लगे, हालांकि बाद में उन्हें जमानत मिल गई। दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि नागरिकों का मत रखना या आंदोलन का समर्थन करना देशद्रोह नहीं हो सकता। लेकिन गिरफ्तारी ने यह संदेश जरूर दे दिया कि सत्ता से असहमति रखने की कीमत चुकानी पड़ेगी।
पत्रकारिता, जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, आज अपने सबसे कठिन दौर से गुजर रही है। कश्मीर टाइम्स की संपादक अनुराधा भसीन, जिन्होंने बार-बार कश्मीर में इंटरनेट बंदी और मीडिया पर अंकुश का मुद्दा उठाया, उनकी आवाज़ को प्रशासनिक स्तर पर दबाने की कोशिशें की गईं। कई स्वतंत्र पोर्टल जैसे न्यूजक्लिक, द वायर या ऑल्ट न्यूज़ ने सत्ता की कथित नाकामियों, घोटालों या सांप्रदायिक घटनाओं पर तथ्यात्मक रिपोर्टिंग की तो उन पर छापे पड़े, पत्रकारों को लंबी पूछताछ से गुज़ारना पड़ा। न्यूजक्लिक के संस्थापक को यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम) जैसी कड़ी गैर-जमानती धारा में जेल भेजा गया। सरकार इन कार्रवाइयों को ‘कानून के अनुसार’ बताती है, लेकिन आलोचक कहते हैं कि यह विपक्षी आवाज़ों को ‘ठंडा’ करने की रणनीति का हिस्सा है।
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ भी हालात बेहतर नहीं हैं। भीमा कोरेगाँव हिंसा मामले में कई प्रतिष्ठित एक्टिविस्ट जैसे सुधा भारद्वाज, वरवरा राव, गौतम नवलखा को यूएपीए के तहत वर्षों तक जेल में रखा गया। आरोप है कि इन लोगों ने माओवादी विचारधारा को बढ़ावा दिया। हालाँकि कई अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों और भारत के ही कुछ पूर्व न्यायाधीशों ने इस केस में सबूतों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए हैं। एल्गार परिषद का कार्यक्रम, जो वास्तव में अंबेडकरवादी विचारों के आदान-प्रदान का मंच था, उसे देशद्रोही गतिविधियों से जोड़ देना क्या लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन नहीं है?
अगर हम भारत के मौजूदा कानूनों पर नज़र डालें तो पाते हैं कि औपनिवेशिक काल का राजद्रोह कानून (आईपीसी 124ए) आज भी विरोधियों को चुप कराने का सबसे ‘आसान’ औजार बना हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में इस पर रोक तो लगाई है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर पुलिस और प्रशासन अब भी छोटे पत्रकारों, छात्रों और एक्टिविस्टों पर इसे लगाने में हिचकिचाते नहीं। इसके अलावा यूएपीए जैसी कड़ी गैर-जमानती धाराएँ सरकार की पसंदीदा बन गई हैं। इसका मकसद आतंकवाद से लड़ना था, लेकिन अब इसका इस्तेमाल असहमति को आतंक से जोड़ने में हो रहा है।
दूसरी तरफ डिजिटल स्पेस भी अब सुरक्षित नहीं रह गया है। नए आईटी (सूचना प्रौद्योगिकी) नियमों के तहत सरकार सोशल मीडिया कंटेंट को हटाने और प्लेटफॉर्म्स को बंद करने की ताकत रखती है। ट्विटर या फेसबुक जैसी कंपनियों को सरकार की नीतियों पर सवाल उठाने वाले पोस्ट हटाने को मजबूर किया गया। हेट स्पीच या फेक न्यूज़ के नाम पर ऐसे कंटेंट हटाए गए जिनमें सरकार की आलोचना थी, लेकिन सत्ता समर्थक ट्रॉल आर्मी पर वैसी सख़्ती कम ही देखने को मिली। यही वजह है कि आज कई युवा, जो पहले ट्विटर पर मुखर थे, अब लिखने से पहले सौ बार सोचते हैं।
भारत के ये हालात हमें उन देशों की याद दिलाते हैं जहाँ लोकतंत्र नाममात्र का रह गया है। हंगरी में विक्टर ओरबान ने एनजीओ को ‘विदेशी एजेंट’ घोषित कर दिया ताकि वे सरकार के खिलाफ काम न कर सकें। रूस में एलेक्सी नवलनी जैसे विपक्षी नेताओं को जेल में डालकर विरोध कुचला गया। तुर्की में प्रेस पर सेंसरशिप ने एर्दोगन के खिलाफ आवाज़ को कमजोर कर दिया। भारत अभी पूरी तरह उस रास्ते पर नहीं गया है, लेकिन कई मानवाधिकार विशेषज्ञों का मानना है कि अगर असहमति की जगह और सिकुड़ती गई तो हम भी लोकतंत्र की बुनियादी आत्मा को खो सकते हैं।
सरकार का पक्ष भी समझना ज़रूरी है। मोदी सरकार कहती है कि देश को बदनाम करने की ‘अर्बन नक्सल’ लॉबी, विदेशी एजेंडा चलाने वाले एनजीओ और फेक न्यूज़ फैलाने वाले पत्रकार भारत के विकास को रोकना चाहते हैं। सच यह भी है कि कुछ एनजीओ विदेशी पैसे के सहारे अपारदर्शी तरीके से काम करते थे। लेकिन इसका समाधान क्या यह होना चाहिए कि हज़ारों ईमानदार संगठनों को भी शक के घेरे में डाल दिया जाए? क्या बेहतर नहीं होता कि पारदर्शिता बढ़ाई जाती, लेकिन एक स्वस्थ असहमति का माहौल बनाए रखा जाता?
इन दबावों के बावजूद सिविल सोसाइटी पूरी तरह हार नहीं मानी है। किसान आंदोलन इसका बड़ा उदाहरण है। तीन कृषि क़ानूनों के खिलाफ पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने महीनों तक दिल्ली की सीमाओं पर डेरा डाल कर शांतिपूर्ण आंदोलन किया। सरकार ने पहले उन्हें खालिस्तानी, विदेशी एजेंट और देशद्रोही कहा, लेकिन अंततः क़ानून वापस लेने पड़े। यह दर्शाता है कि लोकतंत्र में जनसंगठनों की ताकत अब भी कम नहीं हुई है।
भारत के संविधान निर्माताओं ने इस देश को बहुलवाद, धर्मनिरपेक्षता और असहमति की ताकत से सींचा था। डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि 'संविधान केवल कागज का दस्तावेज़ नहीं है, यह जीवंत समाज का प्रतिबिंब है।' अगर असहमति को अपराध बना दिया जाएगा तो संविधान की आत्मा को ही चोट पहुँचेगी।
आज ज़रूरत इस बात की है कि हम असहमति को राष्ट्रविरोध से अलग करना सीखें। जो सरकारें हर सवाल को साजिश समझती हैं, वे ही कमजोर होती जाती हैं। स्वस्थ लोकतंत्र में आलोचना दुश्मनी नहीं बल्कि सुधार का रास्ता होती है। मीडिया को ‘गोदी मीडिया’ या ‘अंधविरोधी मीडिया’ में बाँटने से बेहतर है कि उसे स्वतंत्र, सशक्त और जवाबदेह बनाया जाए। एनजीओ को अपराधी की तरह नहीं बल्कि साझेदार की तरह देखा जाए। विरोधी विचारधाराओं को देशद्रोही ठहराने से बेहतर है कि उनसे संवाद किया जाए।
इस पूरी बहस में न्यायपालिका की भूमिका भी अहम है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट्स ने कई मामलों में सरकार की कठोर कार्रवाइयों पर रोक लगाई है, लेकिन अदालतों को भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि न्याय देर से मिलेगा तो असहमति की आवाज़ें कब की खामोश हो चुकी होंगी।
भारत की युवा पीढ़ी के पास डिजिटल माध्यम से अपनी बात कहने के तमाम नए साधन हैं। लेकिन डर यह है कि अगर हर ट्वीट या पोस्ट के लिए जेल जाने का खतरा होगा तो कितने युवा आगे आ पाएँगे? डर का यही माहौल लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी भारत की छवि प्रभावित हो रही है। वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत लगातार नीचे खिसकता गया है। 2023 में भारत 161वें स्थान पर पहुँच गया। एमनेस्टी इंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स वॉच जैसी संस्थाओं की रिपोर्ट्स भारत में सिविल सोसाइटी पर बढ़ते दबाव को विस्तार से रेखांकित करती हैं। सरकार इन्हें पश्चिमी प्रोपेगेंडा बताकर खारिज कर देती है, लेकिन इससे जमीनी सच्चाई बदल नहीं जाती।
आज जब हम ‘विश्वगुरु’ बनने की बात करते हैं तो हमें यह भी याद रखना चाहिए कि दुनिया उन्हीं देशों से सीखना चाहती है जहाँ बोलने की आज़ादी, आलोचना और विरोध को लोकतंत्र की ताकत माना जाता है। अमेरिका में वियतनाम युद्ध के विरोध से लेकर ब्रिटेन में जलवायु आंदोलन तक, कहीं भी विरोध को देशद्रोह नहीं माना गया। भारत अगर वैश्विक नेतृत्व चाहता है तो उसे अपने भीतर की आवाज़ों को दबाने के बजाय सुनना होगा।
अंत में यही कहा जा सकता है कि सिविल सोसाइटी पर बढ़ता दबाव न सिर्फ असहमति को खतरे में डाल रहा है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को भी कमजोर कर रहा है। एक ऐसा राष्ट्र जहाँ एनजीओ, पत्रकार, एक्टिविस्ट और आम लोग बिना डरे अपनी बात कह सकें - वही वास्तव में मज़बूत लोकतंत्र होता है। इतिहास गवाह है कि जब-जब विरोध को दबाया गया है, तब-तब समाज में असंतोष की चिंगारी ने बड़ा विस्फोट किया है। बेहतर यही होगा कि सरकारें आलोचना को दुश्मनी की तरह नहीं बल्कि लोकतांत्रिक संवाद के हिस्से के रूप में स्वीकारें। तभी ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ नारा सिर्फ जुमला नहीं रहेगा, बल्कि ज़मीनी हकीकत भी बनेगा। 

श्रेया गुप्ता वर्तमान में कल्ट करंट में पत्रकारिता  कर रही हैं और वैश्विक राजनीति पर पैनी दृष्टि रखती हैं।
 


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