अमेरिका : एकाकी राह
संदीप कुमार
| 01 Aug 2025 |
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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का सत्ता में उभार और उनकी लगातार बनी राजनीतिक लोकप्रियता काफी हद तक इस धारणा पर आधारित रही है कि अमेरिका अब एक असफल राष्ट्र बन चुका है—थका हुआ, कमजोर और पतन की ओर अग्रसर। लेकिन इस स्वघोषित विफलता के विपरीत, ट्रंप की विदेश नीति अमेरिका की शक्ति का अत्यधिक आकलन करती है। ट्रंप और उनके सलाहकार ऐसा मानते हैं कि भले ही देश आंतरिक रूप से संकटग्रस्त हो, वाशिंगटन की एकतरफा कार्रवाइयों से अब भी दुनिया को झुकाया जा सकता है और अमेरिकी शर्तों पर मजबूर किया जा सकता है।
लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अमेरिका की ताकत का मूल स्रोत ज़बरदस्ती नहीं बल्कि सहयोग रहा है। ट्रंप की टीम इस ऐतिहासिक सच्चाई को नजरअंदाज करती है, उन सभी लाभों को सहज मान लेती है जो सहयोगपरक दृष्टिकोण ने दिए, और वे उस भविष्य की कल्पना करने में असमर्थ हैं जहाँ अन्य देश अमेरिका के नेतृत्व वाले मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था से बाहर निकलने का निर्णय लें या एक नई व्यवस्था तैयार करें जो अमेरिकी हितों के प्रतिकूल हो। परंतु यही वह परिदृश्य है जिसे ट्रंप प्रशासन तेजी से वास्तविकता में बदल रहा है।
राजनीति विज्ञानी माइकल बेकली ने फॉरेन अफेयर्स में तर्क दिया है कि अमेरिका अब 'एक विद्रोही महाशक्ति' बनता जा रहा है—ना तो अंतरराष्ट्रीयतावादी और ना ही पूरी तरह से अलग-थलग, बल्कि आक्रामक, शक्तिशाली और अपने हितों के लिए हर सीमा तक जाने को तत्पर। यह चित्रण काफी हद तक सटीक है, लेकिन यह इस बात को पूरी तरह नहीं दर्शाता कि अमेरिकी वर्चस्व को अन्य देशों द्वारा कैसे सीमित या कमजोर किया जा सकता है।
ट्रंप के कार्यकाल में यह सवाल अक्सर उठता रहा है कि क्या अमेरिका वैश्विक नेतृत्व की अपनी भूमिका से पीछे हट रहा है या नहीं। लेकिन इससे कहीं अधिक जरूरी प्रश्न यह है: क्या बाकी दुनिया अमेरिका से पहले ही पीछे हटने लगी है? क्या दुनिया अब उस सहयोगी व्यवस्था से बाहर निकलने लगी है जो दशकों से अमेरिकी शक्ति की नींव रही है?
कुछ विश्लेषकों का यह मानना है कि भले ही अमेरिका के सहयोगी या तटस्थ देश ट्रंप के तरीके से असहमत हों, उनके पास अभी अमेरिका के साथ चलने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। दीर्घकाल में वे इसी व्यवस्था के साथ तालमेल बिठा लेंगे, अमेरिका को यथासंभव प्रसन्न रखने की कोशिश करेंगे, और केवल ज़रूरी होने पर ही वैकल्पिक रणनीतियाँ अपनाएंगे। आखिरकार, वे अमेरिका से भले ही नाराज़ और अविश्वासी हो जाएँ, लेकिन चीन, रूस या अन्य प्रतिस्पर्धियों की तुलना में अमेरिका अब भी उन्हें कम खतरनाक लगेगा।
इस दृष्टिकोण के अनुसार, ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका भले ही सबसे बुरा वैश्विक नेतृत्वकर्ता हो, लेकिन बाकी संभावित नेतृत्वकर्ताओं की तुलना में वह फिर भी सबसे बेहतर है। इसके अलावा, अगर अन्य देश अमेरिका-नेतृत्व वाली व्यवस्था से बाहर निकलना भी चाहें, तो वे ऐसा करने की सामूहिक या व्यक्तिगत क्षमता नहीं रखते। वे शायद उस समय को याद करें जब अमेरिका अधिक अंतरराष्ट्रीयवादी, खुला और सहयोगी हुआ करता था, लेकिन अब उन्हें एक अधिक राष्ट्रवादी, आत्मकेंद्रित और कठोर अमेरिका के साथ जीना सीखना होगा।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: अमेरिका और सहयोगी राष्ट्र:
अमेरिका का वैश्विक वर्चस्व मात्र उसकी सैन्य शक्ति का प्रतिफल नहीं था। द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका के उपरांत, अमेरिका ने दूरदर्शिता एवं रणनीतिक कौशल का प्रदर्शन करते हुए एक ऐसी वैश्विक व्यवस्था का निर्माण किया जो साझा वैचारिक आधार, सुदृढ़ संस्थागत संरचना और पारस्परिक विश्वास की नींव पर प्रतिष्ठित थी। मार्शल योजना के माध्यम से युद्ध-जर्जरित यूरोप का पुनरुद्धार करना हो, अथवा उत्तर अटलांटिक संधि संगठन जैसे सैन्य गठबंधनों का निर्माण करना हो, अमेरिका ने अपने सहयोगियों को न केवल वित्तीय एवं सुरक्षात्मक सहायता प्रदान की, अपितु उन्हें एक साझा उद्देश्य की भावना से भी जोड़ा, जिससे वे स्वयं को अमेरिका के समकक्ष अनुभव कर सकें, न कि उसके अधीनस्थ। शीत युद्ध के दौरान, अमेरिका ने लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा एवं साम्यवाद के प्रसार को अवरुद्ध करने के लिए अपने सहयोगी राष्ट्रों के साथ मिलकर एक सुदृढ़ मोर्चाबंदी की। इस कालखंड में, अमेरिका का नेतृत्व न केवल दिशा-निर्देशक था, अपितु उसने अंतर्राष्ट्रीय नियमों एवं कानूनों के अनुपालन को भी सुनिश्चित किया, जिससे वैश्विक स्तर पर उसकी विश्वसनीयता एवं स्वीकार्यता में अभिवृद्धि हुई।
परंतु, वर्तमान परिदृश्य इस स्वर्णिम युग के अवसान का संकेत देता है। विशेष रूप से एक पूर्ववर्ती प्रशासन के दौरान, 'अमेरिका फर्स्ट' की नीति ने दशकों से स्थापित अंतर्राष्ट्रीय साझेदारियों की आधारशिला को गंभीर रूप से क्षीण किया। उस प्रशासन ने विश्व व्यापार संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, नाटो और पेरिस जलवायु समझौते जैसे महत्वपूर्ण बहुपक्षीय मंचों से न केवल अपनी दूरी बनाई, अपितु अनेक अवसरों पर इन संस्थाओं की प्रभावकारिता पर भी प्रश्नचिह्न लगाए। इस नीति ने स्पष्ट संकेत दिया कि अमेरिका अब वैश्विक नेतृत्व की पारंपरिक, सहयोगी भूमिका से पीछे हट रहा है और अपनी घरेलू प्राथमिकताओं को अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से वरीयता प्रदान कर रहा है। इस प्रवृत्ति ने न केवल अमेरिका के पारंपरिक सहयोगियों को निराश किया, अपितु वैश्विक स्तर पर उसकी विश्वसनीयता और नेतृत्व क्षमता पर भी गंभीर संदेह उत्पन्न किए।
समकालीन चुनौतियां और अमेरिका की रणनीतिक दुविधा:
इक्कीसवीं सदी ने भू-राजनीतिक परिदृश्य में अनेक नवीन एवं जटिल चुनौतियों को जन्म दिया है, जिनका अकेले किसी भी राष्ट्र के लिए प्रभावी ढंग से सामना करना लगभग असंभव है। चीन का तीव्र आर्थिक एवं सैन्य उत्थान, रूस की बढ़ती आक्रामकता, कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी, अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद का खतरा, और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दे वैश्विक स्तर पर शांति, सुरक्षा एवं समृद्धि के लिए गंभीर संकट उत्पन्न करते हैं। वर्तमान नीतियां इन जटिल एवं अंतर्संबंधित समस्याओं से सामूहिक रूप से निपटने की वैश्विक क्षमता को कमजोर कर रही हैं।
हालांकि एक वर्तमान प्रशासन ने अपने पूर्ववर्ती की तुलना में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एवं बहुपक्षवाद की भावना को पुनः स्थापित करने की दिशा में कुछ प्रयास किए हैं। अमेरिका ने पेरिस समझौते में पुनः सम्मिलित होकर और कुछ अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ अपने संबंधों को सुदृढ़ करके सकारात्मक संकेत दिए हैं। तथापि, अमेरिका की विश्वसनीयता अब पूर्ववत नहीं रही है। नाटो सदस्य राष्ट्रों में इस बात को लेकर आशंका बनी हुई है कि क्या अमेरिका भविष्य में अपनी पूर्ववर्ती नीतियों पर वापस नहीं लौट आएगा। इसी प्रकार, एशिया में क्वाड जैसे महत्वपूर्ण रणनीतिक मंचों पर भी भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे सहयोगी राष्ट्र इस चिंता से ग्रस्त हैं कि क्या अमेरिका दीर्घकालिक रूप से इस क्षेत्र में अपनी प्रतिबद्धता का निर्वाह करेगा अथवा घरेलू राजनीतिक बाध्यताओं के चलते वह अपनी नीतियों में अप्रत्याशित परिवर्तन कर सकता है। यह अनिश्चितता इन राष्ट्रों को अपनी विदेश एवं सुरक्षा नीतियों के संबंध में अधिक सतर्क एवं स्वतंत्र रूप से विचार करने के लिए प्रेरित कर रही है।
चीन का उदय और अमेरिकी एकाकीपन:
चीन का असाधारण आर्थिक एवं सैन्य उत्थान निःसंदेह संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए सबसे बड़ी रणनीतिक चुनौती के रूप में उभरा है। यदि अमेरिका अपने पारंपरिक सहयोगियों से विमुख होता है, तो वह चीन के बढ़ते प्रभाव का प्रतिरोध करने के लिए एक अकेली शक्ति बनकर रह जाएगा, जो रणनीतिक रूप से हानिकारक सिद्ध हो सकता है।
चीन न केवल अपने महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के माध्यम से यूरेशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के असंख्य राष्ट्रों को आर्थिक एवं राजनीतिक रूप से आकर्षित कर रहा है, अपितु वह दक्षिण चीन सागर में अपनी सैन्य उपस्थिति को सुदृढ़ करके और तकनीकी क्षेत्र में तीव्र प्रगति करके वैश्विक शक्ति संतुलन को तेजी से परिवर्तित कर रहा है। चीन अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी अपनी भूमिका का विस्तार कर रहा है और बहुपक्षीय संस्थाओं में अपने प्रभाव को बढ़ा रहा है। ऐसे परिदृश्य में, अमेरिका के लिए अपने पारंपरिक सहयोगियों के साथ एकजुट होकर खड़ा होना ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति हो सकती है। यदि अमेरिका अपने सहयोगियों को पृथक अनुभव कराता है अथवा उनके हितों की उपेक्षा करता है, तो वह न केवल चीन के बढ़ते प्रभाव का प्रभावी ढंग से प्रतिरोध करने की क्षमता खो देगा, अपितु वैश्विक नियमों एवं मानदंडों को बनाए रखने के अपने प्रयासों में भी कमजोर पड़ जाएगा।
लोकतांत्रिक मूल्यों पर संकट:
अमेरिका का 'अकेला पड़ना' मात्र कूटनीतिक विफलता अथवा रणनीतिक दुर्बलता का प्रतीक नहीं है, अपितु यह वैश्विक स्तर पर लोकतांत्रिक मूल्यों की प्रतिष्ठा में ह्रास का भी द्योतक है। लंबे समय तक, अमेरिका ने विश्व भर में लोकतंत्र, मानवाधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सिद्धांतों का पुरोधा रहा है। उसने न केवल इन मूल्यों का समर्थन किया, अपितु अनेक अवसरों पर उनके संरक्षण में हस्तक्षेप भी किया। अमेरिका का यह नैतिक प्राधिकार उसके वैश्विक नेतृत्व का एक महत्वपूर्ण आधार था।
तथापि, पिछले दशक में अमेरिका के भीतर घटित कुछ घटनाओं ने इस नैतिक श्रेष्ठता को गंभीर चुनौती दी है। कैपिटल हिल पर हुई अप्रिय घटनाएं, नस्लीय असमानता को लेकर राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन, मीडिया की स्वतंत्रता एवं विश्वसनीयता पर बढ़ते हुए आक्षेप, और न्यायपालिका का राजनीतिकरण जैसे आंतरिक घटनाक्रमों ने अमेरिका की लोकतांत्रिक नींव को कमजोर किया है और वैश्विक स्तर पर उसकी छवि को धूमिल किया है। जब स्वयं अमेरिका में लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण होता हुआ प्रतीत होता है, तो उसके लिए विश्व को लोकतंत्र का उपदेश देना और उसका नेतृत्व करना अधिक कठिन हो जाता है। अमेरिका का 'एकाकीपन' इस संदर्भ में न केवल उसकी विदेश नीति को कमजोर करता है, अपितु यह उन लोकतांत्रिक शक्तियों के लिए भी निराशा का कारण बनता है जो विश्व भर में स्वतंत्रता एवं मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत हैं।
यूरोप एवं एशिया की भूमिका:
यदि अमेरिका वैश्विक नेतृत्व की भूमिका से पीछे हटता है अथवा अपनी प्रतिबद्धताओं के संबंध में अनिश्चितता प्रदर्शित करता है, तो यूरोपीय संघ, यूनाइटेड किंगडम, जापान और भारत जैसे महत्वपूर्ण राष्ट्रों पर वैश्विक चुनौतियों का सामना करने और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को बनाए रखने की अधिक जिम्मेदारी आ सकती है। तथापि, यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि क्या ये राष्ट्र इस बढ़ी हुई जिम्मेदारी का निर्वाह करने के लिए पूर्णतः सक्षम हैं।
विशेष रूप से यूरोप के संदर्भ में, यूरोपीय संघ अमेरिका के बिना एक अधिक स्वतंत्र एवं स्वायत्त रणनीतिक पहचान विकसित करने की दिशा में प्रयत्नशील है। रूस-यूक्रेन संघर्ष ने यूरोपीय राष्ट्रों को अपनी सुरक्षा एवं रक्षा नीतियों पर पुनर्विचार करने के लिए विवश किया है। तथापि, आर्थिक, सैन्य एवं राजनीतिक दृष्टिकोण से, अमेरिका की दीर्घकालिक उपस्थिति एवं समर्थन की अनुपस्थिति को तत्काल प्रतिस्थापित कर पाना यूरोपीय राष्ट्रों के लिए एक बड़ी चुनौती होगी।
भारत और जापान जैसे एशियाई राष्ट्र, जो लोकतांत्रिक मूल्यों एवं रणनीतिक हितों के दृष्टिकोण से अमेरिका के स्वाभाविक सहयोगी हैं, वे भी यह अपेक्षा रखते हैं कि अमेरिका इस क्षेत्र में स्थायी रूप से अपनी साझेदारी का निर्वाह करे, न कि मात्र अवसरवादी दृष्टिकोण अपनाए। चीन के बढ़ते हुए प्रभाव को देखते हुए, इन राष्ट्रों के लिए अमेरिका के साथ मजबूत संबंध बनाए रखना अपनी सुरक्षा एवं क्षेत्रीय स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण है। तथापि, अमेरिका की घरेलू राजनीतिक अस्थिरता एवं उसकी विदेश नीति में अप्रत्याशित परिवर्तनों की आशंकाएं इन राष्ट्रों को अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखने एवं अन्य शक्तियों के साथ भी अपने संबंधों को सुदृढ़ करने के लिए प्रेरित कर सकती हैं।
अमेरिका को किस दिशा में अग्रसर होना चाहिए?
संयुक्त राज्य अमेरिका एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है, जहां उसे यह निर्णायक विकल्प चुनना होगा कि क्या वह वास्तव में एक 'अकेले योद्धा' की भांति वैश्विक व्यवस्था से विमुख रहना चाहता है, अथवा उसे अपने पारंपरिक सहयोगियों के साथ मिलकर एक अधिक समावेशी, संतुलित एवं बहुपक्षीय वैश्विक व्यवस्था का अभिन्न अंग बनना चाहिए।
एकतरफा निर्णय लेने एवं आत्म-केंद्रित विदेश नीति का अनुसरण करने से अमेरिका को संभवतः अल्पकालिक राजनीतिक लाभ प्राप्त हो सकता है, परंतु इसके दूरगामी दुष्परिणाम कहीं अधिक गंभीर एवं विनाशकारी होंगे। वैश्विक चुनौतियों की जटिलता एवं अन्य शक्तियों के उदय को ध्यान में रखते हुए, अमेरिका के लिए अपने सहयोगियों के साथ मिलकर कार्य करना न केवल उसकी अपनी सुरक्षा एवं समृद्धि के लिए आवश्यक है, अपितु वैश्विक स्थिरता एवं व्यवस्था को बनाए रखने के लिए भी अपरिहार्य है।
निष्कर्ष:
यदि विश्व का सर्वाधिक शक्तिशाली लोकतंत्र अपनी दशकों पुरानी साझेदारियों को कमजोर करता है और एकाकी मार्ग का चुनाव करता है, तो न केवल वैश्विक स्थिरता एवं सुरक्षा खतरे में पड़ेगी, अपितु स्वतंत्रता, मानवाधिकार एवं लोकतंत्र जैसे वे मूल्य भी संकटग्रस्त हो जाएंगे जिनका अमेरिका ने दीर्घकाल तक समर्थन किया है।
वर्तमान में, जब वैश्विक परिदृश्य बहुध्रुवीय होता जा रहा है और वैश्विक चुनौतियाँ राष्ट्रीय सीमाओं से परे व्याप्त हैं, तो एकाकी प्रयास करना वीरता नहीं, अपितु एक गंभीर भूल सिद्ध हो सकता है। अमेरिका को यह गहनता से समझना होगा कि उसका वास्तविक एवं चिरस्थायी नेतृत्व वर्चस्व में नहीं, अपितु सहयोग में निहित है; एकतरफा शक्ति प्रदर्शन में नहीं, अपितु सामूहिक सुरक्षा की भावना में निहित है। अकेले अमेरिका का भविष्य सीमित है, जबकि अपने सहयोगियों के साथ समन्वय स्थापित करने वाले अमेरिका का भविष्य अधिक समृद्ध, सुरक्षित एवं स्थिर हो सकता है। यह विचार आज की भू-राजनीतिक चर्चा का केंद्रीय विषय होना चाहिए।
अनवर हुसैन वरिष्ठ पत्रकार एवं व्याख्याता है।